Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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.. आयु के छ माह शेष रहने पर ललितांग देव अत्यन्त दुखी रहने लगा। मित्र देव ने उसे समझाया/अन्त में ललितांग देव ने अच्युतस्वर्ग की जिनप्रतिमाओं का पूजन करते करते चैत्य वक्ष के नीचे पञ्च नमस्कार मन्त्र का जाप करते हुए स्वर्ग की आयु पूर्ण की। स्वर्ग से च्युत होकर ललिताँग जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पलखेट नामक नगर में राजा वज्रबाहु की रानी वसुन्धरा के उदर से पुत्र रूप में जन्मा । वहाँ उसका नाम वनजंघ रखा । ललितांग देव की प्रियवल्लभा स्वयंप्रभा देवी मरकर जम्बद्वीप के विदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त की रानी लक्ष्मीमति के उदर से श्रीमती नामकी पुत्री के रूप में जन्मी ।
श्रीमती को यशोधर गरु के कैवल्य महोत्सव के लिए जाने वाले देवों को आकाश में जाते देख पूर्वभव का स्मरण हो आया और अपने पूर्व भव के पति ललितांग को पाने के लिए वह अत्यन्त उत्सूक हई। उसने इसके लिए पण्डिता नामक धाय को नियुक्त किया।
पंडिता धाय श्रीमती के पूर्व भव के पति ललितांग का समाचार जानने के लिए श्रीमती द्वारा बनाये गये पूर्वभव के चित्र पट को लेकर जिनालय गई और उसने मन्दिर में चित्रपट को पसार कर बैठ ग
भी जिनपूजा के लिए मन्दिर पहुँचा । उसने चित्र पट देखा । चित्रपट को देखते ही वनजंघ को जाति स्मरण . हो आया। भागिनेय वनजंघका वज़दन्त राजा ने स्वागत किया और यथेच्छ वस्तु माँगने को कहा । चक्रवर्ती के
आग्रह पर वज्रबाहु के द्वारा अपने पुत्र वज्रजंघ के लिए पुत्री श्रीमती की याचना की । चक्रवर्ती ने याचना सहर्ष स्वीकार की । श्रीमती का वज्रजंघ के साथ विवाह हुआ । राजा वज्रबाहु ने वज्रजंघ की बहन अनुन्धरा का विवाह चक्रवर्ती के पुत्र अमिततेज के साथ किया । वनजंघ श्रीमती के साथ अपने नगर लौट आया । वज्रबाहु महाराज को शरद ऋतु के मेघ को शीघ्र ही विलीन होते देख वैराग्य हुआ और पांच सौ राजाओं एवं श्रीमती के सभी पुत्रों के साथ यमधर मुनीन्द्र के समीप दीक्षा ग्रहण की । के राज्य का संचालन करने लगा।
वज़दन्त चक्रवर्ती को कमल में बन्द मृत भौंरे को देखकर वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने अपने पुत्र अमिततेज तथा उसके छोटे भाई के राज्य न लेने पर अमिततेज के पूत्र पूण्डरीक को राज्य गद्दी पर अधिष्ठित कर यशोधर मनि के समीप अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ले ली । चक्रवर्ती की पत्नी लक्ष्मीमती का पूत्र पुण्डरीक को अल्पवयस्क जान राज्य संभालने के लिए दूत द्वारा पत्र भेजा । वनजंघ श्रीमती के साथ पूण्डरीगिनी जाने के लिए रवाना हुआ। रास्ते में पड़ाव पर दमधर और सागरसेन नामक दो चारण ऋद्धि के धारक मुनिराज पधारे । श्रीमती वनजंघ ने मनि को आहार दान दिया। उस अवसर पर देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किये । उस समय वृद्ध कंचकी ने वनजंघ से कहा कि ये दोनों मनि तो आपके ही अन्तिम युगल पुत्र है। यह बात सुनकर दौना का अपार हर्ष हआ । दमधरमनि ने अवधिज्ञान से जानकर वज्रजंघ और श्रीमती के पूर्व भवों का वृत्तान्त कहा। मतिवर आनन्द धनमित्र और अकम्पन के पूर्व भवों का भी मुनि ने कथन किया। जिस समय दमधर मुनिराज यह सब व्याख्यान कर रहे थे उस समय शार्दल, नकूल, वानर और सुकर ये चारों प्राणी निश्चिन्त होकर साम्य भाव से मुनि का उपदेश सुन रहे थे। राजा वज्रजंघ ने इन चारों प्राणियों के विषय में मनिराज से पूछा । उत्तर में मुनि ने चारों प्राणियों के पूर्वभव बतलाते हए कहा--मतिवर आनन्द धनमित्र अकम्पन तथा शार्दूल आदि चार प्राणी ये आठों अब से आपके साथ ही उत्पन्न होते रहेंगे और आपके ही साथ इस भव से आठों भव में निर्वा करेंगे । आठवें भव में आप तीर्थंकर होंगे और यह श्रीमती उस समय दानतीर्थ का प्रवर्तक श्रेयांस राजा होगा। मुनिराज के मुख से यह भवावली सुन दोनों बड़े प्रसन्न हुए । वज्रजंघ ने पुण्डरीकिणी नगरी में जाकर राज्ञी लक्ष्मीमती तथा बहिन अनुन्धरी को सांत्वना दी उनके राज्य की समचित व्यवस्था की और रानी की अनुज्ञा लेकर वज़जंष श्रीमती के साथ वापस अपने नगर लौट आया और सुखपूर्वक राज्य श्री का उपभोग करने लगा।
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