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भाषामें लिखा गया है ; अंग्रेजोंके आचार, विचार, भाव और संस्कार हम हिन्दुओंसे बहुत भिन्न हैं । और इसलिये उन विचारों और भावसंस्कारोंको हिन्दीमें प्रकाश करनेमें बड़ी कठिनाई पड़ती है । कोई १ ऐसे शब्द आ पड़ते हैं जिनका अनुवाद करना असंभव हो जाता है । उसके लिये लाख ढूंढनेपर भी हिन्दी शब्द नहीं मिलते । इसलिये शब्दार्थकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा सका जितना भावार्थकी
ओर दिया है । परंतु जहांतक संभव है वहांतक शब्दार्थके साथ ही साथ भावार्थ लानेकी चेष्टा की गई है। जहां शब्दार्थ करके भाषा जोरदार नहीं बन सकी और भात्र भी स्पष्टतया नहीं प्रकट हो सका वहां शब्दार्थको बिलकुल ही छोड़ दिया है और प्रचलित भाषामें उस भावका ही अनुवाद कर दिया है । कहीं कहीं शब्दार्थ परित्याग करनेकी स्वातंत्र्यसोमा यहांतक बढ़ानी पड़ी है कि मुलके वाक्यसे इस अनुवादका वाक्य मिलाकर देखनेने पहिलो ही दृष्ठिमें अनुवादको यथार्थता एकाएक समझमें आना कठिन हो सकता है । उदाहरणार्थ, दरबारमें राजा जयन्तसे ( हैम्लेट ) कहता है:-“ऐ मेरे प्यारे पुत्र जयन्त, इ." इसपर जयन्त ( हैम्लेट ) अपने मनमें उत्तर देता है:
A little more than kin but less than kind. इसका भावानुवाद इस प्रकार किया गया है:
... इसके ये प्यारके शब्द कांटोंसे चुभते हैं । ... वास्तवमें यह शब्दार्थ नहीं है । परन्तु भाव प्रकाश करनेके लिये इससे अधिक उपयुक्त शब्दयोजना दुर्लभ है। और तरहसे भी इसका भाव प्रकट हो सकता है; यथाः कहनेको तो चाचा और माका पति है पर है महानीच ! परन्तु इंडियन स्टेजपर नाटकके नायक द्वारा यह कहलाना
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