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D सन्तोषकुमार तिवारी
भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल था । राष्ट्र का यश-वैभव चरम सीमा पर था। वह काल भारत का स्वर्ण युग माना जाता है। जब चन्द्रगुप्त बालक ही था, चाणक्य ने उसकी प्रतिभा को परखा था और उससे प्रभावित होकर अपने बुद्धि-कौशल से उसे सम्राट बनाया था। चाणक्य अपनी धुन का पक्का था - जो बात मन में एक बार ठान लेता, उसे हर कीमत पर सफलतापूर्वक पूरी अवश्य कर लेता। महान तपस्वी तो वह था ही, देश सेवा का भाव भी उसमें कूट-कूट कर भरा था। देश की निरन्तर सेवा करते रहने के लिए वह स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त का महामात्य (महामंत्री) बना ।
अन्दर प्रवेश किया। सामने चटाई पर एक व्यक्ति बैठा था- अपने में खोया हुआ; हाथ में कलम और सामने कागज रखे हुए थे। उसका रंग काला था सिर पर एक बड़ी सी चोटी के अतिरिक्त सिर का शेष भाग मुंडित था, कमर से नीचे का भाग एक मोटी धोती में लिपटा हुआ था तथा शरीर का ऊपरी भाग नंगा था, जिस पर केवल एक मोटा जनेऊ लटक रहा था। हाँ, उसके चेहरे के हावभाव से साफ दिखाई पड़ रहा था कि यह व्यक्ति संकल्पशक्ति का धनी और अपनी लगन का पक्का है।
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सम्राट ने झुककर उसे प्रणाम किया, फिर स्वयं व मेगास्थनीज, दोनों उसके सामने चटाई पर बैठ गये। उसने आँख उठाकर एक बार आगन्तुकों की ओर गम्भीरतापूर्वक देखा फिर बिना कुछ कहे या सुने पहले की तरह अपने काम में जुट गया। थोड़ी देर बाद मेगास्थनीज को लेकर सम्राट वहाँ से वापस आया महल में वापस पहुँचने पर मेगास्थनीज बोला, "महाराज! आज तो आप मुझे अपने महामंत्री से मिलाने वाले थे ?"
सम्राट हँसे और बोले, "वे महामंत्री ही तो थे, जहाँ हम आपके साथ आश्रम में गये थे। "
चाणक्य :
तप व सेवा की सजीव मूर्ति की बात उसकी समझ में नहीं आई थी। विस्मय से बोला, "लेकिन मेगास्थनीज आँखें व मुँह फैलाए बेवकुफ बना खड़ा था। सम्राट
महाराज! इतने विशाल और वैभवशाली राष्ट्र का महामंत्री एक झोपड़ी में रह रहा है ! और महाराज ! महामंत्री तो आपके मातहत है, उन्होंने तो आपके अभिवादन भी नहीं किया। उल्टे आपने उन्हें प्रणाम किया और वे बोले तक नहीं लगते भी एक साधारण देहाती किसान मजदूर जैसे थे। मैं तो इन सारी पहेलियों में उलझ कर रह गया हूँ।'
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सम्राट ने फिर कहा, "वे हमारे महामंत्री हैं और हमारे गुरु भी, अतः उन्हें प्रणाम करना मेरा धर्म है मैं और मेरा राष्ट्र उनकी ही कृपा और आशीर्वाद का प्रसाद है। राष्ट्र-संचालन की सारी नीतियाँ उन्हीं की बुद्धि का परिणाम है तथा सारे समाज के सुख-दुःख की हलचलें उनकी अपने दिल की धड़कने हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन ही राष्ट्र की जीवनधारा में विलीन कर दिया है। रही उनके न बोलने की बात, सो वे राष्ट्र-कल्याण के प्रति चिन्तन और राष्ट्रसंचालन के लिए नियम-कानून बनाने में रात-दिन लगे रहते हैं। उनसे बात करने के लिए हमें भी पहले से समय लेना पड़ता है। आज हम उनसे समय लिए बिना ही केवल उनका आशीर्वाद लेने उनके पास गये थे।"
मेगास्थनीज का आश्चर्य और भी अधिक बढ़ा तथा चाणक्य जैसे 'महान् तपस्वी राष्ट्रभक्त से बात करने के लिए उसका मन छटपटाने लगा ।
भारत की यशोकीर्ति देश देशान्तर तक फैली हुई थी। उसी समय युनानी दूत मेगास्थनीज भारत आया। राज्य का उत्तम संचालन तथा प्रजा की सुख-समृद्धि देखकर वह अत्यन्त प्रभावित हुआ । उसने सम्राट चन्द्रगुप्त से कई बार भेंट की। महामात्य चाणक्य की प्रशंसा उसने बहुत सुनी थी, लेकिन उनसे भेंट नहीं हो पायी ती । उनसे मिलने के लिए उसने सम्राट से निवेदन किया । अद्भुत ही है। कि किसी राष्ट्र के मन्त्री या प्रधानमंत्री से मिलने के लिए निवेदन उस राष्ट्र के अध्यक्ष से किया जाय ।
एक दिन सम्राट चन्द्रगुप्त मेगास्थनीज को साथ लेकर रथ से चला। एक साधारण आश्रम में पहुँचा । द्वार पर जूते उतार कर
विद्यालय खण्ड ३२
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शिक्षा एक यशस्वी दशक
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