Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 296
________________ श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गौत्रीय निर्लोभता के धारक थे। विद्या-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं एवं मन्त्रों के इन्द्रभूति नामक अनगार उग्र तपस्वी थे। दीप्त तपस्वी कर्मों को धारक थे। प्रशस्त ब्रह्मचर्य के पालक थे। वेद और नय शास्त्र के भस्मसात करने में अग्नि के समान प्रदीप्ततप करने वाले थे। तप्त निष्णात थे। भांति-भांति के अभिग्रह करने में कुशल थे। उत्कृष्टतम तपस्वी थे अर्थात् जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन और चारित्र के धारक/पालक थे। घोर थी। जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे। जो उराल-प्रबल साधना । परीषहों को सहन करने वाले थे। घार तपस्वी/साधक थे। उत्कृष्ट में सशक्त थे। धारगुण-परम उत्तम जिनकी धारण करने में अद्भुत ब्रह्मचर्य के पालक थे। शरीर-संस्कार के त्यागी थे। विपुल तेजालेश्या शक्ति चाहिए - ऐसे गुणों के धारक थे। प्रबल तपस्वी थे। कठोर को अपने शरीर में समाविष्ट करके रखने वाले थे। चौदह पूर्वो के ज्ञाता ब्रह्मचर्य के पालक थे। दैहिक सार-सम्भाल या सजावट से रहित थे। थे और चार ज्ञान के धारक थे।" विशाल तेजोलेश्या को अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे। ज्ञान की प्रश्नोत्तर अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधारी और चार ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि और गौतम जब "ऊर्ध्वजानु अध: शिर:" आसन से ध्यान कोष्टक/ मनपर्यव ज्ञान के धारक थे। सर्वाक्षर सन्निपात जैसी विविध (२८) ध्यान में बैठ जाते थे अर्थात् बहिर्मुखी द्वारों/विचारों को बन्द कर लब्धियों के धारक थे। महान् तेजस्वी थे। वे भगवान् महावीर से न अन्तर में चिन्तनशील हो जाते थे, उस समय धर्मध्यान और अतिदूर और न अति समीप ऊर्ध्वजानु और अधो सिर होकर बैठते शुक्लध्यान की स्थिति में उनके मानस में जो भी प्रश्न उत्पन्न होते थे। ध्यान कोष्टक अर्थात सब और से मानसिक क्रियाओं का अवरोध । थे, जो कुछ भी जिज्ञासाएं उभरती थीं, कौतुहल जागृत होता था, तो कर अपने ध्यान को एक मात्र प्रभु के चरणारविन्द में केन्द्रित कर वे अपने स्थान से उठकर भगवान के निकट जाते. वन्दन-नमस्कार बैठते थे। बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए संयमाराधना करते और विनयावनत होकर शान्त स्वर में पूछते - भगवन्! तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित/ इनका रहस्य क्या है? इस प्रसंग का सुन्दरतम वर्णन भगवती सूत्र संस्कारित करते हुए विचरण करते थे। में प्राप्त होता हैं। देखिये - ___ प्रथण प्रहर में स्वाध्याय करते थे। दूसरे प्रहर में देशना देते थे; "तत्पश्चात् जातश्राद्ध (प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले), जात संशय, ध्यान करते थे। तीसरे प्रहर में पारणे के दिन अत्वरित, स्थिरता पूर्वक, जात कौतूहल, समुत्पन्न श्रद्धा वाले, समुत्पन्न संशय वाले, समुत्पन्न अनाकुल भाव से मुखवस्त्रिका, वस्त्रपात्र का प्रतिलेखन/प्रमार्जन कर, कुतूहल वाले गौतम अपने स्थान से उठकर खड़े होते हैं। उत्थित प्रभु की अनुमति प्राप्त कर, नगर या ग्राम में धनवान, निर्धन और होकर जिस ओर श्रमण भगवान महावीर हैं उस ओर आते हैं। उनके मध्यम कुलों में क्रमागत - किसी भी घर को छोड़े बिना भिक्षाचर्या निकट आकर प्रभु की उनकी दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके तीन के लिए जाते थे। अपेक्षित भिक्षा लेकर, स्वस्थान पर आकर, प्रभु को बार प्रदक्षिणा करते हैं। फिर वन्दन-नमस्कार करते हैं। नमन कर प्राप्त भिक्षा दिखाकर और अनुमति प्राप्त कर गोचरी/भोजन करते थे। वे न तो बहुत पास और न बहुत दूर भगवान् के समक्ष विनय से इस प्रकार हम देखते हैं कि इन्द्रभूति अतिशय ज्ञानी होकर भी ललाट पर हाथ जोड़े हुए. भगवान् के वचन श्रमण करने की इच्छा परम गुरु-भक्त और आदर्श शिष्य थे। से उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले।" __ज्ञाताधर्मकथा में आर्य सुधर्म के नामोल्लेख के साथ जो गणधरों __ और, महावीर "हे गौतम!" कह कर उनकी जिज्ञासाओं - के विशिष्ट गुणों का वर्णन किया गया है उनमें गणधर इन्द्रभूति का संशयों, शंकाओं का समाधान करते हैं। गौतम भी अपनी जिज्ञासा भी समावेश हो जाता है। वर्णन इस प्रकार है :"वे जाति सम्पन्न (उत्तम मातृपक्ष वाले) थे। कुल सम्पन्न (उत्तम का समाधान प्राप्त कर, कृत-कत्य होकर भगवान के चरणों में पुन: विनयपूर्वक कह उठते हैं - "सेवं भंते! सेवं भंते! तहमेयं भंते!'' पितृपक्ष वाले) थे। बलवान, रूपवान, विनयवान, ज्ञानवान, क्षायिक, . सम्यक्त्व, सम्पन्न, साधन सम्पन्न थे। ओजस्वी थे। तेजस्वी थे। अर्थात् प्रभो! आपने जैसा कहा है वह ठीक है, वह सत्य है। मैं उस वर्चस्वी थे। यशस्वी थे। क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त कर पर श्रद्धा एवं विश्वास करता हूँ। प्रभु के उत्तर पर श्रद्धा की यह चुके थे। इन्द्रियों का दमन कर चुके थे। निद्रा और परीषहों को जीतने अनुगूज वस्तुत: प्रश्नात्तर का एक आदश पद्धात है। वाले थे। जीवित रहने की कामना और भृत्यु के भय से रहित थे। स्वयं चार ज्ञान के धारक और अनेक विद्याओं के पारंगत होने उत्कट तप करने वाले थे। उत्कृष्ट संयम के धारक थे। करण सत्तरी । पर भी गौतम अपनी जिज्ञासा को शान्त करने, नई-नई बातें जानने और और चरण सत्तरी का पालन करने में और इन्द्रियों का निग्रह करने.. अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिये स्वयं के पाण्डित्य/ज्ञान का वालों में प्रधान थे। आर्जव, मार्दव, लाघव/कौशल, क्षमा, गुप्ति और में उपयोग करने के स्थान पर प्रभु महावीर से ही प्रश्न पूछते थे। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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