Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 316
________________ प्रेरक व्यक्तित्व आपके व श्री अगरचंदजी नाहटा के जीवनभर के श्रम से ६०००० हस्तलिखित ग्रन्थों, लाखों मुद्रित पुस्तकों व अद्वितीय प्राचीन कलाकृतियों आदि से सुसज्जित व सुशोभित है। ८५ वर्ष तक की उम्र तक आपने निरन्तर भ्रमण किया। भ्रमण का मुख्य उद्देश्य शोध ही रहा, चाहे वो पुरातत्व शिलालेखों का हो, साहित्य का हो, मूर्तियों का हो, खुदाई में प्राप्त पुरावशेषों का हो, तीर्थों का हो या इतिहास का हो। श्री नाहटा द्वारा लिखित, संपादित एवं अनूदित कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का परिचय निम्नलिखित है। जो समय की शिला पर लिखे गये अमिट लेख हैं एवं उनके कालजयी व्यक्तित्व का प्रामाणिक दस्तावेज भी। १. द्रव्यपरीक्षा और धातूत्पति-इसके मूल लेखक ठक्कुर फेरु धांधिया हैं (रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह का दूसरा व तीसरा भाग) श्री भंवरलाल नाहटा ने लगभग ५५वर्ष पूर्व अपनी शोधपिपाषा की तृप्ति हेतु कलकत्ता के एक ज्ञानभण्डार को खंगालते हुए छ: सौ वर्ष पुरानी पाण्डुलिपि खोज निकाली और उसकी प्रेसकापियाँ कालजयी श्री भंवरलाल नाहटा कर पुरातत्वाचार्य मुनि जिनविजयजी के पास प्रकाशनार्थ भेजी। वे मूल ग्रंथ सन् १९६१ में रत्नपरीक्षादि सप्रग्रन्थ संग्रह नाम से जैन संघ के वयोवृद्ध अग्रणी, लब्धि प्रतिष्ठित इतिहासकार, जैन । राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, द्वारा प्रकाशित हुए। धर्म दर्शन एवं साहित्य के मर्मज्ञ, साहित्य तपस्वी, साधक, निष्काम २. मातृकापद शृंगार रसकलित गाथा कोश-यशोभद्र के कर्मयोगी, पुरातत्ववेत्ता, बहुभाषाविद, आशुकवि, साहित्यवाचस्पति शिष्य वीरभद्र कृत यह कृति विशुद्ध रूप से एक शृंगारपरक रचना श्रावक श्रेष्ठ श्री भंवरलालजी नाहटा का दिव्य शान्तिपूर्ण देहावसान। है। इस गाथाकोश की विशेषता यह है कि इसमें मातृका पदों अर्थात् सोमवार, माघ कृष्णा चतुर्दशी सं० २०५८ दिनांक ११ फरवरी स्वर और व्यंजनों में से क्रमश: एक-एक को गाथा का आद्यअक्षर २००२ को कोलकाता में हो गया। बनाकर श्रृंगारपरक गाथाओं की रचना की गयी है। इसमें कुल ४० __आपने अपने जीवनकाल में हजारों शोधपूर्ण लेखों, सैकड़ों गाथाएँ हैं। गाथाएँ शृंगारिक हैं, फिर भी वे मर्यादाओं का अतिक्रमण ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन किया। आपने अनेक नहीं करती। जहाँ मर्यादा से बाहर कोई संकेत करना होता है कवि शोधार्थियों को मार्गदर्शन देकर विभिन्न विषयों पर शोध करवाकर । उसे अपने मौन से ही इंगित कर देता है जैसे इस गाथाकोश के अन्त पी-एच.डी आदि उपाधियों से गौरवान्वित करवाया। में कवि कहता हैब्राह्मी, खरोष्टी, देवनागरी आदि प्राचीन लिपियाँ, संस्कृत, पच्छा जं तं उ वित्तं अकहकहा कहिज्जन्ति अर्थात् उसके प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्टी, राजस्थानी, गुजराती, बंगाली आदि पश्चात् जो कुछ घटित हुआ वह अकथनीय है कैसे कहा जाय? भाषाओं में लेखन व उपरोक्त भाषाओं के साथ मराठी आदि भाषा इस प्रकार मूक भाव से भी कथ्य को अभिव्यक्ति दे देना. यह कवि का आपने अनुवाद किया। पूर्ण सतर्कता हेतु लेखन, सम्पादन आदि की सम्प्रेषणशीलता का स्पष्ट प्रमाण है। के कार्यों की प्रूफरीडिंग भी स्वयं ही करते थे। आप द्वारा लिखित ३. सिरी सहजाणंदघन चरियं-कलकत्ता विश्व विद्यालय के शोधपूर्ण लेख व ग्रन्थ अनेक न्यायालयों में साक्षी के रूप में स्वीकार भाषा विभाग के प्रोफेसर एस.एन. बनर्जी ने इस ग्रन्थ की भूमिका किये गये। भारत के अलावा विश्व के कई विश्वविद्यालयों के में पाठ्यक्रम में आपके शोधपूर्ण लेखों को सम्मिलित किया व संदर्भ श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा रचित श्री सहजाणंदघनं चरियं के रूप में उल्लेखित किया। आपके चाचा श्री अभयराजजी नाहटा । वर्तमानकाल में रचित एक अपभ्रंश काव्य है। मूलत: यह काव्य की स्मृति में संस्थापित बीकानेर का विश्वप्रसिद्ध अभय जैन ग्रन्थालय । अपभ्रंश की अंतिम स्तर की भाषा अवहट्ट (अपभ्रंश) में रचित है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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