Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 321
________________ राधेश्याम मिश्र वाराणसी में संत कबीर साधना में लगे थे। वह बाहर से वस्त्रों का ताना-ताना बुन रहे थे। किन्तु, अन्दर में साधना का ताना-बाना बुनने में 1. संलग्न थे। एक ब्राह्मण का पुत्र अनेक विद्याओं का अध्ययन करके पच्चीस वर्ष की अवस्था में जब जीवन के नये मोड़ पर आया, तो उसने विचार किया कि वह कौन से जीवन में प्रवेश करे, साधु बने या गृहस्थाश्रम में जाए? अपनी इस उलझन को उसने कबीर के समक्ष रखा। कबीर उस समय ताना पूर रहे थे। प्रश्न सुनकर भी उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। युवक ने कुछ देर तक चुप रहकर प्रतीक्षा की, किन्तु कोई उत्तर नहीं मिला। उसने फिर अपना प्रश्न दुहराया, लेकिन कबीर ने फिर भी जवाब नहीं दिया। तभी कबीर ने पत्नी को पुकारा-"जरा देखो तो ताना साफ करने का झब्बा कहाँ है ?" इतना कहना था कि कबीर की पत्नी उसे खोजने लगी। दिन के सफेद उजाले में भी कबीर ने बिगड़ते हुए कहा- "देखती नहीं हो, कितना अंधकार है? चिराग लाकर देखो', पत्नी दौड़ती हुई चिराग लेकर आई, और लगी खोजने । झब्बा तो कबीर के कन्धे पर रखा था किन्तु फिर भी कबीर की पत्नी पति की इतनी आज्ञाकारिणी थी कि जैसा उसने कहा वैसा ही करने लग गई। युवक को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोच ही रहा था कि आखिर यह क्या माजरा है? इतने में कबीर ने अपने लड़के और लड़की को आवाज दी। जब वे आए, तो उन्हें भी वही झब्बा खोजने का आदेश दिया। और वे भी चुपचाप खोजने लग गए। कुछ देर तक खोजने के बाद कबीर ने कहा- "अरे! यह तो मेरे कंधे पर रहा। अच्छा विद्वत खण्ड / १४० Jain Education International जाओ, अपना-अपना काम करो।" सभी लौट गए युवक बड़ा परेशान था कि "यह कैसा मूर्ख है? कैसी विचित्र बातें करता है? मेरे प्रश्न का क्या खाक उत्तर देगा ? " तभी कबीर ने उसकी ओर देखा, युवक ने फिर अपना प्रश्न दुहराया। कबीर ने कहा, मैं तो उत्तर दे चुका हूँ, तुम अभी समझे नहीं । अभी जो दृश्य तुमने देखा था, उससे सबक लेना चाहिए। यदि गृहस्थ बनना चाहते हो तो, ऐसे बनो कि तुम्हारे प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित घर वाले दिन को रात और रात को दिन मानने को भी तैयार हो जाएँ। तुम्हारे विवेकपूर्ण कोमल व्यवहार में इतना आकर्षण हो कि परिवार का प्रत्येक सदस्य तुम्हारे प्रति अपने आप खिंचा रहे, तब तो गृहस्थ जीवन ठीक है। अन्यथा यदि घर कुरुक्षेत्र का मैदान बना रहे, आये दिन टकराहट होती रहे, तो इस गृहस्थ जीवन से कोई लाभ नहीं और, यदि साधु बनना हो, तो चलो एक साधु के पास तुम्हारा मार्ग-दर्शन करा दूँ । कबीर युवक को लेकर एक साधु के पास पहुँचे, जो गंगा तट पर एक बहुत ऊँचे टीले पर रहता था कबीर ने उन्हें पुकारा तो वह वृद्ध साधु लड़खड़ाता हुआ धीरे-धीरे नीचे उतरा। कबीर ने कहा- "बस, आपके दर्शनों के लिए आया था, दर्शन हो गए।" दो आदर्श साधु फिर धीरे-धीरे ऊपर चढ़ा, तो कबीर ने फिर पुकारा और साधु फिर नीचे आया और पूछा - "क्या कहना है ?" कबीर ने कहा अभी समय नहीं है, फिर कभी आऊंगा, तब कहूँगा।" साधु फिर टीले पर चढ़ गया कबीर ने तीसरी बार फिर पुकारा और साधु फिर नीचे आया। कबीर ने कहा- "ऐसे ही पुकार लिया, कोई खास बात नहीं है।" साधु उसी भाव से, उसी प्रसन्न मुद्रा से फिर वापिस लौट गया। उसके चेहरे पर कोई शिकन तक न आई। कबीर ने युवक की ओर प्रश्न भरी दृष्टि डाली और बोले"कुछ देखा ? साधु बनना हो तो ऐसा बनो इतना अशक्त वृद्ध शरीर, आँखों की रोशनी कमजोर, ठीक तरह चला भी नहीं जाता। इतना सब कुछ होने पर भी तुमने देखा, मैंने तीन बार पुकारा और तीनों बार उसी शान्त मुद्रा से नीचे आए और वैसे ही लौट गए। मुझ पर जरा भी क्रोध की झलक नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं। साधु बनना चाहते हो, तो ऐसे बनो कि तुममें इतनी सहिष्णुता रहे. इतनी क्षमा रहे। जीवन में प्रसन्नता के साथ कष्टों का सामना करने की क्षमता हो, तो साधु की ऊँची भूमिका पर जा सकते हो।" इसी घटना के प्रकाश में हम भगवान् महावीर की वाणी का रहस्य समझ सकते हैं कि साधु जीवन हो या गृहस्थ जीवन, जब तक जीवन में आन्तरिक तेज नहीं जग पाए, प्रामाणिकता और सच्ची निष्ठा का भाव न हो, तो दोनों ही जीवन बदतर हैं और यदि इन सद्गुणों का समावेश जीवन में हो गया है, तो दोनों ही जीवन अच्छे हैं, श्रेष्ठ हैं, और उनसे आत्म-कल्याण का मार्ग सुगमता से प्रशस्त हो सकता है। श्री जैन विद्यालय, कोलकाता शिक्षा एक यशस्वी दशक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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