Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 317
________________ विद्यापति की कीर्तिलता व पिंगलाचार्य की प्राकृत पिंगल इसी भाषा ७. आनन्दघन चौबीसी-परम अवधूत योगिराज में रचित है। श्री नाहटाजी इस काल के विद्यापति या पिंगलाचार्य थे। आनन्दघनजी रचित चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन एवं पदों का न यह महाकाव्य २४४ श्लोकों में हिन्दी अनुवाद सहित रचित है। केवल जैन अपितु भारतीय समाज में आज तक एक विशिष्ट स्थान पूर्वकालीन कवियों की रचनाओं की तुलना में श्री नाहटाजी का रहा है। ये स्तवन मुमुक्षु एवं साधकों के हृदय को झंकृत करनेवाले सहजाणंदघन चरियं काव्य का मान किसी अंश में कम नहीं है। और आत्मानुभूति को और बढ़ाने वाले होने से मानस को भक्ति रस कवित्व की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अतुलनीय है। से आप्लावित कर देते हैं। काव्य ग्रन्थ के शब्द अत्यन्त सहज व सरल हैं। जिससे भाषा आनन्दघनजी के स्तवनों और पदों की भाषा को देखते हुए यह का सामान्य ज्ञान रखने वाले भी इसका रसास्वादन कर सकेंगे। उपमादि स्पष्टत: सिद्ध है कि ये राजस्थान प्रदेश के ही थे। अलंकारों का भी कोई अभाव नहीं है। छन्द सरल व त्रुटिहीन है। ८. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि-यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ श्री ४. अलंकार दप्पन-यह प्राकृत भाषा में रचित एक अभय जैन ग्रन्थालय के सप्तम पुष्प के रूप में प्रस्फुटित हुआ है। अलंकार ग्रन्थ है। जिसका हिन्दी अनुवाद संस्कृतच्छाया सहित श्री । इसका प्रकाशन वर्ष सं० १९९२ है। यह ग्रन्थ श्री भंवरलालजी नाहटाजी ने किया है। नाहटा ने अपने काका श्री अगरचन्दजी नाहटा के साथ लिखा है। इस ग्रन्थ में अलंकार सम्बन्धी जो विवरण दिया गया है इससे । लेखकद्वय ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में बहुमूल्य शोधसामग्री इसका निर्माणकाल ८वी, ११वीं शताब्दी का माना जा सकता है। प्रस्तुत की है। उन्होंने प्रश्न उठाये हैं और उनका विद्वतापूर्ण रचना से कर्ता का पता नहीं चलता। प्राकृत भाषा की अलंकार । समाधान-उत्तर भी दिया है। इसकी प्रस्तावना श्री मोहनलाल दलीचंद संबंधी यह एक ही रचना जैसलमेर के बड़े ज्ञान भण्डार में ताड़पत्रीय देसाई ने लिखी है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ संस्कृत, प्रति में प्राप्त हुई है। प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, बंगला, अंग्रेजी, प्राचीन भाषाओं और ५. विविध तीर्थ कल्प-प्राकृत व संस्कृत भाषा में जिन- सैकड़ों हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियों, प्रशस्तियों, पट्टावलियों, प्रभसूरि विरचित कल्प प्रदीप के इस ग्रन्थ का अनुवाद श्री नाहटाजी । विकीर्ण पत्रों, रिपोर्टों आदि के गहन अध्ययन, चिन्तन और मनन के ने सन् १९७८ में कर श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ आधार पर लिखा गया है। अत: इसकी प्रामाणिकता निस्सन्देह है। मेवानगर राजस्थान से प्रकाशित करवाया। ९. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह- श्री भंवरलालजी नाहटा कल्पप्रदीप अथवा विशेषतया प्रसिद्ध विविध तीर्थ कल्प नामक एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा के सहसम्पादन में सं० १९९४ में श्री यह ग्रन्थ जैन साहित्य की एक विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक और अभय जैन ग्रन्थालय के अष्टमपुष्प के रूप में इस ग्रन्थ रत्न का भौगोलिक दोनों प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं प्रगटन हुआ है। पुस्तक का समर्पण श्री दानमलजी नाहटा की हुआ। यह ग्रन्थ विक्रम १४वीं शताब्दी में जैन धर्म के जितने स्वर्गस्थ आत्मा को उनके अनुज और उक्त ग्रन्थ के प्रकाशक श्री पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध-२ तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्ध की शंकरदानजी नाहटा ने किया है। प्राय: एक प्रकार की गाईड बुक है। यह ग्रन्थ तीन दृष्टियों से अत्यन्त उपयोगी है। पहला दृष्टिकोण ६. बानगी-नाहटाजी की बानगी-राजस्थानी भाषा में रचित ऐतिहासिकता का है, द्वितीय भाषिकता का और तृतीय साहित्यिकता संस्मरणों, रेखाचित्रों एवं लघुकथाओं का सरलतम संकलन है का। इसके कतिपय साधारण कार्यों के अतिरिक्त प्राय: सभी काव्य जिसमें इन्होंने अपनी मातृभाषा की विविध विधाओं में कलात्मकता ऐतिहासिक दृष्टि से संग्रह किये गये हैं। अद्यावधि प्रकाशित संग्रहों को उकेरा है। राजस्थान साहित्य के श्रेष्ठ साहित्य प्रकाशन भण्डार से भाषा साहित्य की दृष्टि से यह संग्रह सर्वाधिक उपयोगी है। श्री में यह एक महत्वपूर्ण अभिवृद्धि है। हीरालाल जैन ने इसकी विद्वतापूर्ण प्रस्तावना लिखी है। ग्रन्थ में उन यह संकलन वस्तुतः लोक जीवन एवं लोक साहित्य से पाण्डुलिपियों का परिचय दिया गया है जिनका उपयोग इस ग्रंथ में सशक्त अनेक जीवन्त, सरस और सहज चित्रों की बानगी प्रस्तुत किया गया है। प्रकाशक, पाण्डुलिपि, ताड़पत्र, हस्तलिपि आदि से करती है और इस प्रकार मरुधरा की धरती के स्वर को अधिक सम्बद्ध एकादश चित्रों से यह ग्रन्थ सुसज्जित है। प्राणवान बनाती है। १०. समय सुन्दर कृत कुसुमांजलि-श्री भंवरलालजी प्रस्तुत कृति शांतिलाल भारद्वाज राकेश द्वारा (राजस्थान साहित्य नाहटा एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा के संग्रहत्व एवं सम्पादकत्व में अकादमी संगम) उदयपुर से १९६५ में प्रकाशित करवाई गई। श्री अभय जैन ग्रन्थालय के पंचदशम पुष्प के रूप में प्रस्फुटित यह विद्वत खण्ड/१३६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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