Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

Previous | Next

Page 298
________________ - आनन्द का उक्त कथन सुनकर गौतम असमंजस में पड़ गये। के पास पहुँचे। ज्योहि शाल महाशाल और पांचों मुनिगण केवलिये स्वयं के ज्ञान का उपयोग किये बिना ही त्वरा से प्रभु के पास आये की परिषद में जाने लगे तो गौतम ने उन सबको रोकते/सम्बोंधित और सारा घटनाक्रम उसके सन्मुख प्रस्तुत कर पूछा - करते हुए कहा – “पहले त्रिलोकीनाथ भगवान की वन्दना करें।" भगवन्! उक्त आचरण के लिये श्रमणोपासक आनन्द को उसी क्षण भगवान ने कहा - गौतम! ये सब केवली हो चुके आलोचना करनी चाहिए या मुझे? हैं, अत: इनकी आशातना मत करो। महावीर ने कहा – गौतम! गाथापति आनन्द ने सत्य कहा है, शंकाकुल मानस - अत: तुम ही आलोचना करो और श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा गौतम ने उनसे क्षमायाचना की; किन्तु उनका मन अधीरता याचना भी। वश आकुल-व्याकुल हो उठा और सन्देहों से भर गया वे सोचने गौतम 'तथास्तु' कह कर, लाई हुई गोचरी किये बिना ही उलटे लगे- "मेरे द्वारा दीक्षित अधिकांशत: शिष्य केवलज्ञानी हो चुके हैं, पैरों से लौटे और आनन्द श्रावक से अपने कथन पर खेद प्रकट करते परन्तु मुझे अभी तक केवलज्ञान नहीं हुआ। क्या मैं सिद्ध पद प्राप्त हुए क्षमा याचना की। -- उपासकदशा अ० १सू. ८० से ८७ नही कर पाऊँगा?" "मोक्षे भवे च सर्वत्र नि:स्पृहो मुनिसत्तमः" इस घटना से एक तथ्य उभरता है कि गुरू गौतम कितने मोक्ष और संसार दोनों के प्रति पूर्ण रूपेण नि:स्पृह/अनासक्त रहने निश्छल, निर्मल, निर्मद, निरभिमानी थे। उन्हें तनिक भी संकोच का वाले गौतम भी मैं चरम शरीरी (इसी देह से मोक्ष जाने वाला) हूँ अनुभव नहीं हुआ कि मैं प्रभु का प्रथम गणधर होकर एक उपासक या नहीं", सन्देह-दोला में झूलने लगे। के समक्ष अपनी भूल कैसे स्वीकार करूँ एवं श्रावक से कैसे क्षमा एकदिन गौतम स्वामी कहीं बाहर/अन्यत्र गये हुए थे, उस मांगू। यह उनके साधना की, निरभिमानता की कसौटी/अग्नि परीक्षा समय भगवान महावीर ने अपनी धर्मदेशना में अष्टापद तीर्थ की थी, जिसमें वे खरे उतरे। महिमा का वर्णन करते हुए कहा- 'जो साधक स्वयं की अष्टापद तीर्थ यात्रा की पृष्ठ-भूमि आत्मलब्धि के बल पर अष्टापद पर्वत पर जाकर चैत्यस्थ जिनशाल, महाशाल, गागलि - बिम्बों की वन्दना कर, एक रात्रि वहीं निवास करे, तो वह उत्तराध्ययन सूत्र के द्रुमपत्रक नामक दशवें अध्ययन की टीका निश्चयत: मोक्ष का अधिकारी बनता है और इसी भव में मोक्ष को करते हुए टीकाकारों ने लिखा है : प्राप्त करता है।' पृष्ठचम्पा नगरी के राजा थे शाल और युवराज थे महाशाल। बाहर से लौटने पर देवों के मुख से जब उन्होंने उक्त महावीर दोनों भाई थे। इनकी बहन का यशस्वती, बहनोई का पिठर और वाणी को सुना तो उनके चित्त को किंचित सन्तुष्टि का अनुभव हुआ। भानजे का नाम गागलि था। 'चरम शरीरी हूँ या नही" परीक्षण का मार्ग तो मिला, क्यों न भगवान महावीर की देशना सुनकर दोनों भाइयों - शाल परीक्षण करूँ? सर्वज्ञ की वाणी शत-प्रतिशत विशुद्ध स्वर्ण होती है, महाशाल ने दीक्षा ग्रहण करली थी और कांपिल्यपुर से अपने भानजे इसमें शंका को स्थान ही कहाँ ?" गागलि को बुलवाकर राजपाट सौंप दिया था। राजा गागली ने अपने अष्टापद तीर्थ की यात्रा - माता-पिता को भी पृष्ठचम्पा बुलवा लिया था। __ तत्पश्चात् गौतम भगवान के पास आये और अष्टापद तीर्थ यात्रा एकदा भगवान चम्पानगरी जा रहे थे। तभी शाल और महाशाल करने की अनुमति चाही। भगवान ने भी गौतम के मन में स्थित ने स्वजनों को प्रतिबोधित करने के लिये पृष्ठचम्पा जाने की इच्छा मोक्ष-कामना जानकर और विशेष लाभ का कारण जानकर यात्रा की व्यक्त की। प्रभु की आज्ञा प्राप्त कर गौतम स्वामी के नेतृत्व में अनुमति प्रदान की। गौतम हर्षोत्फल होकर अष्टापद की यात्रा के अनुमात प्रदान श्रमण शाल और महाशाल पृष्ठचम्पा गये। वहाँ के राजा गागलि और लय चला उसके माता-पिता (यशस्वती, पिठर) को प्रतिबोधित कर दीक्षा शीलांकाचार्य (१०वीं शताब्दी) ने चउप्पन्नमहापुरुष चरियं (पृष्ठ प्रदान की। पश्चात वे सब प्रभु की सेवा में चल पड़े। मार्ग में ___३२३) के अनुसार भगवान महावीर ने १५०० तापसों को प्रतिबोध चलते-चलते शाल और महाशाल गौतम स्वामी के गुणों का चिन्तन देने के लिये गौतम को अष्टापद तीर्थ की यात्रा करने का निर्देश दिया और गागलि तथा उसके माता-पिता शाल एवं महाशाल मुनियों की । और गौतम जिन-बिम्बों के दर्शनों की उमंग लेकर चल पड़े। परोपकारिता का चिन्तन करने लगे। अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ने गुरु गौतम आत्मा-साधना से प्राप्त चारण लब्धि आदि अनेक लगी और पांचों निर्ग्रन्थों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। सभी भगवान लब्धियों के धारक थे, आकस्मिक बल एवं चारणलब्धि (आकाश शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326