Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 309
________________ " श्रीमद् राजचन्द्र सलाई मात्र भी अदत्त न लेते हों, सर्वप्रकार के रात्रिभोजन के त्यागी हों, समभावी हों और नीरागता से सत्योपदेशक हों। संक्षेप में उन्हें काष्ठस्वरूप सद्गुरु जानना। पुत्र! गुरु के आचार एवं ज्ञान के संबंध में आगम में बहुत विवेकपूर्वक वर्णन किया है। ज्यों-ज्यों तू आगे विचार करना सीखता जायेगा, त्यों-त्यों फिर मैं तुझे उन विशेष तत्त्वों का उपदेश करता जाऊँगा। पुत्र-पिताजी! आपने मुझे संक्षेप में भी बहुत उपयोगी और कल्याणमय पथ बताया है। मैं निरन्तर इसका मनन करता रहूँगा। उत्तम गृहस्थ संसार में रहते हुए भी उत्तम श्रावक गृहाश्रम से आत्मसाधन को . साध्य करते हैं; उनका गृहाश्रम भी सराहा जाता है। ये उत्तम पुरुष सामायिक, क्षमापना, चौविहार-प्रत्याख्यान इत्यादि यम-नियमों का सेवन करते हैं। परपत्नी की ओर माँ-बहन की दृष्टि रखते हैं। यथाशक्ति सत्पात्र दान देते हैं। शांत, मधुर और कोमल भाषा बोलते हैं। सत्शास्त्र का मनन करते हैं। यथासंभव उपजीविका में भी माया, कपट इत्यादि नहीं करते। स्त्री, पुत्र, माता, पिता, मुनि और गुरु इन सबका यथायोग्य सन्मान करते हैं। माँ-बाप को धर्म का बोध देते हैं। यत्ना से घर की स्वच्छता, रांधना, शयन इत्यादि को कराते हैं। स्वयं विचक्षणता से आचरण करके स्त्री-पुत्र को विनयी और धर्मी बनाते हैं। सारे कुटुंब में ऐक्य की वृद्धि करते हैं। आये हुए अतिथि का यथायोग्य सन्मान करते हैं। याचक को क्षुधातुर नहीं रखते। सत्पुरुषों का समागम और उनका बोध धारण करते हैं। निरंतर मर्यादासहित और संतोषयुक्त रहते हैं। यथाशक्ति घर में शास्त्रसंचय रखते हैं। अल्प आरंभ से व्यवहार चलाते हैं। ऐसा गृहस्थाश्रम उत्तम गति का कारण होता है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। । हा सद्गुरुतत्त्व पिता, पुत्र और गुरु तीन प्रकार के कहे जाते हैं-१. काष्ठस्वरूप, २. कागजस्वरूप, ३. पत्थरस्वरूप। १. काष्ठस्वरूप गुरु सर्वोत्तम है; क्योंकि संसाररूपी समुद्र को काष्ठस्वरूप गुरु ही तरते हैं; और तार सकते हैं। २. कागजस्वरूप गुरु मध्यम हैं। ये संसारसमुद्र को स्वयं तर नहीं सकते, परंतु कुछ पुण्य उपार्जन कर सकते हैं। ये दूसरे को तार नहीं सकते। ३. पत्थरस्वरूप गुरु स्वयं डूबते हैं और पर को भी डुबाते हैं। काष्ठस्वरूप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवान के शासन में है। बाकी दो प्रकार के जो गुरु हैं वे कर्मावरण की वृद्धि करनेवाले हैं। हम सब उत्तम वस्तु को चाहते हैं; और उत्तम से उत्तम वस्तु मिल सकती है। गुरु यदि उत्तम हों तो वे भवसमुद्र में नाविकरूप होकर सद्धर्मनाव में बैठाकर पार पहुँचा देते हैं। तत्त्वज्ञान के भेद, स्व-स्वरूपभेद, लोकालोक विचार, संसार स्वरूप यह राब उत्तम गुरु के बिना मिल नहीं सकते। अब तुझे प्रश्न करने की इच्छा होगी कि ऐसे गुरु के लक्षण कौन-कौन से हैं? उन्हें मैं कहता हूँ। जो जिनेश्वर भगवान की कही हुई आज्ञा को जानते हों, जानते ही, उसे यथातथ्य पालते हों और दूसरे को उसका उपदेश करते हों, कंचनकामिनी के सर्वभाव से त्यागी हों, विशुद्ध आहार-जल लेते हों, बाईस प्रकार के परिषह सहन करते हों, क्षांत, दाँत, निरारंभी और जितेन्द्रिय हों, सैद्धान्तिक ज्ञान में निमग्न रहते हों, मात्र धर्म के लिए शरीरं का निर्वाह करते हों, निग्रंथ पंथ पालते हुए कायर न हों, विद्वत खण्ड/१३० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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