Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 308
________________ 0 श्रीमद् राजचन्द्र पर उस ब्राह्मण के देखने में आये। इससे उसका मन किसी स्थान में नहीं माना; जहाँ देखे वहाँ दु:ख तो था ही। किसी भी स्थान में संपूर्ण सुख उसके देखने में नहीं आया। अब फिर क्या माँगें? यों विचार करते-करते एक महाधनाढ्य की प्रशंसा सुनकर वह द्वारिका में आया। द्वारिका महाऋद्धिसंपन्न, वैभवयुक्त, बागबगीचों से सुशोभित और बस्ती से भरपूर शहर उसे लगा। सुन्दर एवं भव्य आवासों को देखता हुआ और पूछता-पूछता वह उस महाधनाढ्य के घर गया। श्रीमान दीवानखाने में बैठा हुआ था। उसने अतिथि जान कर ब्राह्मण का सन्मान किया; कुशलता पूछी और उसके लिए भोजन की व्यवस्था करवाई। थोड़ी देर के बाद सेठ ने धीरज से ब्राह्मण से पूछा, "आपके आगमन का कारण यदि मुझे कहने योग्य हो तो कहिये।" ब्राह्मण ने कहा, "अभी आप क्षमा कीजिये। पहले आपको अपने सभी प्रकार के वैभव, धाम, बाग-बगीचे इत्यादि मुझे दिखाने पड़ेंगे; उन्हें देखने के बाद मैं अपने आगमन का कारण कहूँगा।" सेठ ने इसका कुछ मर्मरूप कारण जानकर कहा, "भले, आनंदपूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार करिये।' भोजन के बाद ब्राह्मण ने सेठ को स्वयं साथ चलकर धामादिक बताने के लिए विनती की। धनाढ्य ने उसे मान्य रखा; और स्वयं साथ जाकर बाग-बगीचा, धाम, वैभव यह सब दिखाया। सेठ की स्त्री, पुत्र भी वहाँ ब्राह्मण के देखने में आये। उन्होंने योग्यतापूर्वक उस ब्राह्मण का सत्कार किया। उनके रूप, विनय, स्वच्छता तथा मधुरवाणी से ब्राह्मण प्रसन्न हुआ। फिर उसकी दुकान का कारोबार देखा। सौ एक कारिंदे वहाँ बैठे हुए देखे। वे भी मायालु, विनयी और नम्र उस ब्राह्मण के देखने में आये। इससे वह बहुत संतुष्ट हुआ। उसके मन को यहाँ कछ संतोष हआ। सुखी तो जगत में यही मालूम होता है ऐसा उसे लगा। सुखसंबंधी विचार एक ब्राह्मण दरिद्रावस्था से बहुत पीड़ित था। उसने तंग आकर आखिर देव की उपासना करके लक्ष्मी प्राप्त करने का निश्चय किया। स्वयं विद्वान होने से उसने उपासना करने से पहले विचार किया कि कदाचित् कोई देव तो संतुष्ट होगा, परन्तु फिर उससे कौन-सा सुख माँगना? तप करने के बाद माँगने में कुछ सूझे नहीं, अथवा न्यूनाधिक सूझे तो किया हुआ तप भी निरर्थक हो जाये; इसलिए एक बार सारे देश में प्रवास करूँ। संसार के महापुरुषों के धाम, वैभव और सुख देखें। ऐसा निश्चय करके वह प्रवास में निकल पड़ा। भारत के जो जो रमणीय और ऋद्धिमान शहर थे, वे देखे। युक्तिप्रयुक्ति से राजाधिराजों के अन्तःपुर, सुख और वैभव देखे। श्रीमानों के आवास, कारोबार, बाग-बगीचे और कुटुम्ब परिवार देखे, परन्तु इससे उसका मन किसी तरह माना नहीं। किसी को स्त्री का दुःख, किसी को पति का दुःख, किसी को अज्ञान से दुःख, किसी को प्रियजनों के वियोग का दु:ख, किसी को निर्धनता का दुःख, किसी को लक्ष्मी की उपाधि का दुःख, किसी को शरीरसंबंधी दु:ख, किसी को पुत्र का दु:ख, किसी को शत्रु का दु:ख, किसी को जड़ता का दु:ख, किसी को माँ-बाप का दु:ख, किसी को वैधव्यदुःख, किसी को कुटुम्ब का दु:ख, किसी को अपने नीच कुल का दु:ख, किसी को प्रीति का दुःख, किसी को ईर्ष्या का दुःख, किसी को हानि का दु:ख, इस प्रकार एक, दो, अधिक अथवा सभी दु:ख स्थान-स्थान शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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