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गीतिका बोथरा
मजबूत नींव की आवश्यकता है, वैसे धार्मिक विकास क्रम के लिए मार्गानुसारी जीवन पूर्व-भूमिका है। अत: यहाँ देश विरति-धर्म की चर्चा करने से पहिले मार्गानुसारी जीवन के बारे में बताया जाता है।
शास्त्र में मार्गानुसारी जीवन के ३५ गुण बताये हैं। इन ३५ गुणों को चार भागों में विभक्त किया जाता है।
(१) ११ कर्त्तव्य (२) ८ दोष (३) ८ गुण
(४) ८ साधना ११ कर्त्तव्य :
(१)न्याय-सम्पन्न-विभव-गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने के लिये धन कमाना आवश्यक है। किन्तु न्याय-नीति से धन का उपार्जन करना यह मार्गानुसारी-जीवन का प्रथम कर्तव्य है।
(२) आयोचित-व्यय-आय के अनुसार ही खर्च करना। तथा धर्म को भूलकर अनुचित खर्च न करना यह 'उचित खर्च' नामक
दूसरा कर्तव्य है।
सम्यक् चारित्र (३) उचित-वेश-अपनीमानमर्यादा के अनुरूपउचितवेशभूषा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार यथार्थरूप से अहिंसा,
रखना। अत्यधिक तड़कीले-भड़कीले, अंगों का प्रदर्शन हो तथा सत्य आदि सदाचारों का पालन करना ही सम्यक्चारित्र है। इसके
देखनेवालों को मोहवक्षोभ पैदा हो ऐसे वस्त्रों को कभी भी नहीं पहिनना। दो भेद हैं। (१) देशविरति और (२) सर्वविरति।
(४) उचित-मकान-जोमकान बहुत द्वारवालान हो,ज्यादाऊँचा १. देशविरति-देश-अंश, विरति त्याग अर्थात् हिंसादि पापों
नहो तथा एकदमखुला भी न हो ऐसे मकान उचित मकान हैं। चोर डाकुओं का आंशिक त्याग करना तथा व्रतों का मर्यादित पालन करना
का भय न हो। पड़ोसी अच्छे हों, ऐसे मकान में रहना चाहिए। देशविरति चारित्र धर्म कहलाता है।
(५) उचित-विवाह-गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिये यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद जीव को संसार आरंभ शादी करना पड़े तो भिन्न गोत्रीय किन्तु कुछ और शील में समान परिग्रह, विषय-विचार इत्यादि जहर जैसे लगते हैं। वह जीव प्रतिदिन तथा समान आचारवाल क साथ कर। इसस जावन म सुख-शान्ति विचार करता है कि "कब वह इस पाप भरे संसार का त्याग कर, रहता है। पति-पत्ना क बाच मतभद नहा हाता। मुनि बनकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना करेगा? यद्यपि वह (६) अजीणे-भोजन त्याग-जबतक पहिले खाया हुआ एकदम संसार का परित्याग करदे, यह सम्भव नहीं होता तथापि भोजन न पचे तबतक भोजन करें। विचार ही चलता रहता है। और जबतक सर्वत: पापों का त्यागकर (७) उचित-भोजन—निश्चित समय पर भोजन करें। प्रकृति साधु-जीवन न अपना ले तबतक वह जीव शक्य पाप त्याग रूप के अनुकूल ही खायें। निश्चित समय पर भोजन करने से भोजन देशविरति-श्रावक धर्म का अवश्य पालन करता है। इसमें अच्ची तरह पचता है, प्रकृति से विपरीत भोजन करने से तबियत सम्यक्त्वव्रत पूर्वक स्थूलरूप से हिंसादि का त्याग तथा सामायिकादि बिगड़ जाती है। भोजन में भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक करें। धर्म-साधना करने की प्रतिज्ञा की जाती है।"
तामसी, विकारोत्पादक एवं उत्तेजक पदार्थों का सर्वथा त्याग करें। मार्गानुसारी जीवन-जैसे 'देशविरति' इत्यादि आचारधर्मों की (८) माता-पिता की पूजा-माता-पिता की सेवा-भक्ति करें। प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक है, वैसे सम्यग्दर्शन उनके खाने के बाद खायें, सोने के बाद सोयें। उनकी आज्ञा का से पूर्व 'मार्गानुसारी जीवन' आवश्यक है। सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र, प्रेमपूर्वक पालन करें। मोक्ष मार्ग है। उसके प्रति अनुसरण कराने वाला उसके लिए (९) पोष्य-पालक-पोषण करने योग्य स्वजन-परिजन, दासीयोग्य बनाने वाला जीवन मार्गानुसारी जीवन है। जैसे महल के लिए दास इत्यादि का यथाशक्ति पालन करें। शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/१२५
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