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एकाग्रचित होकर हृदय के कटोरे में भाव-भक्ति पूर्वक झेल/ग्रहण परन्तु, परन्तु, लाखों देवता पावापुरी की ओर भागे जा रहे हैं, कर रही थी। भगवान् की अन्तिम धर्मपर्षदा में अनेक विशिष्ट एवं शब्द लहरी अवरुद्ध कण्ठों से निकल रही है, पर क्यों?......?, सम्मान्य व्यक्ति, काशी-कौशल देश के नौ लिच्छवी और नौ प्रभु की वाणी थी-“देवगण असत्य नहीं बोलते" ध्यान में आते ही मल्लकी-अठारह राजा भी उपस्थित थे।
गौतम का रोम-रोम विचलित/कम्पित हो उठा। वे निस्तब्ध से हो इस प्रकार सोलह प्रहर पर्यन्त अखण्ड देशना देते-देते कार्तिक गये। “निर्वाण' जैसे प्रलयकारी शब्द पर विश्वास होते ही असीम वदी अमावस्या की मध्य रात्रि के बाद स्वाति नक्षत्र के समय वह अन्तर्वेदना के कारण मुख कान्तिहीन/श्यामल हो गया, आँखों से विषम क्षण आ पहुँचा। समय का परिपाक पूर्ण हुआ और त्रिभुवन अजस्र अश्रुधारा बहने लगी, आँखों के सामने अंधेरा छा गया, शरीर स्वामी श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष के आयुष्य का बन्धन पूर्ण और हाथ-पैर काँपने लगे, चेतना-शक्ति विलुप्त होने लगी और वे कर, महानिर्वाण को प्राप्त कर, सिद्ध, बुद्ध, पारंगत, निराकार, कटे वृक्ष की भाँति धड़ाम से पृथ्वी पर बैठ गये। बेसुध से, निश्चेष्ट निरंजन बन गये। भगवान् इस दिन सर्वदा के लिये मर्त्य न रहकर से बैठे रहे। कछ क्षणों के पश्चात् सोचने समझने की स्थिति में आने समस्त शुभ-शुद्ध भावना के पुंज रूप में अमर्त्य/अमर बन गए। पर समवसरण में विराजमान प्रभु महावीर और उनके श्रीमुख से ज्ञान सूर्य विलुप्त हो गया।
निःसृत हे गौतम! का दृश्य चलचित्र की भाँति उनकी आँखों के पर्षदा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त भगवान् को दीन/अनाथ भाव से सामने घुमने लगा और वे सहसा निराधार, निरीह, असहाय बालक अश्रुसिक्त अंजलि अर्पण कर अन्तिम नमन करती रही। पावापुरी की भाँति सिसकियाँ भरते हए विलाप करने लगेकी भूमि पवित्र हो गई। अमावस्या की रात्रि धर्मपर्व बन गई। उस "मैं कैसा भाग्यहीन हैं, भगवान् के ग्यारह गणधरों में से नव रात्रि में जन समूह ने दीपक जलाकर निर्वाण कल्याणक का बहुमान गणधर तो मोक्ष चले गये, अन्य भी अनेक आत्माएँ सिद्ध बन गईं, किया। यही दीपक पंक्ति दीपावली त्यौहार के रूप में प्रसिद्ध हो गई।
स्वयं भगवान् भी मुक्तिधाम में पधार गये, और मैं प्रभु का प्रथम गौतम का विलाप और केवलज्ञान-प्राप्ति
शिष्य होकर भी अभी तक संसार में ही रह रहा हूँ। प्रभु तो पधार गणधर गौतम देवशर्मा को प्रतिबोध देने के बाद वापस पावापुरी की गये अब मेरा कौन है?" ओर आ रहे थे। प्रभु की आज्ञा पालन करने से इनका रोम-रोम उल्लास अन्तर की गहरी वेदना उभरने लगी। दिशाएँ अन्धकारमय और से विकसित हो रहा था। जब भी परमात्मा की आज्ञा पालन करने का बहरी बन गई। चित्त में पनः शन्यता व्याप्त होने लगी। तनिक से एवं अबूझ जीव को प्रतिबोध देकर उद्धार करने का अवसर मिलता तो जागत होते ही पन. पाला के स्वरों में बोल उते. वह दिन उनके लिये आनन्दोल्लास से परिपूर्ण बन जाता था।
___"हे महावीर! मुझ रंक पर यह असहनीय वज्रपात आपने कैसे प्रभु के चरणों में वापस पहुँचने की प्रबल उत्कण्ठा के कारण
___ कर डाला? मुझे मझधार में छोड़कर कैसे चल दिये? अब मेरा हाथ गौतम तेजी से कदम बढ़ा रहे थे।
कौन पकड़ेगा? मेरा क्या होगा? मेरी नौका को कौन पार लगायेगा?" इधर प्रभु का निर्वाण महोत्सव मनाने एवं अन्तिम संस्कार के हे प्रभो। हे प्रभो।। आपने यह क्या गजब ढा दिया? मेरे साथ लिये विमानों में बैठकर देवगण ताबड़तोड़ पावापुरी की ओर भागे जा कैसा अन्याय कर डाला? विश्वास देकर विश्वास भंग क्यों किया? रहे थे। आकाश में कोलाहाल-सा मच गया था। भागते हुए देवताओं अब मेरे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा? मेरी शंकाओं का समाधान कौन के सहस्रों मुखों से, अवरुद्ध कण्ठों से एक ही शब्द निकल रहा करेगा? मैं किसे महावीर, महावीर कहूँगा? अब मुझे हे गौतम! था- "आज ज्ञान सूर्य अस्त हो गया है, प्रभु महावीर निर्वाण को कहकर प्रेम से कौन बुलाएगा? करुणासिन्धु भगवन् मेरे किस प्राप्त हो गए हैं। अन्तिम दर्शन करने शीघ्र चलो।"
अपराध के बदले आपने ऐसी नृशंस कठोरता बरत कर अन्त समय देव-मुखों से नि:सृत उक्त प्रलयकारी शब्द गौतम के कानों में में मुझे दूर कर दिया? अब मेरा कौन शरणदाता बनेगा? वास्तव पहुँचे। तुमुल कोलाहल के कारण अस्पष्ट ध्वनि को समझ नहीं में मैं तो आज विश्व में दीन-अनाथ बन गया? पाये। कान लगाकर ध्यानपूर्वक सुनने पर समझ में आया कि “प्रभु प्रभो! आप तो सर्वज्ञ थे न! लोक-व्यवहार के ज्ञाता भी थे न! का निर्वाण हो गया है।'' किन्तु, गौतम को इन शब्दों पर तनिक भी ऐसे समय में तो सामान्य लोग भी स्वजन सम्बन्धियों को दूर से विश्वास नहीं हुआ। वे सोचने लगे-“असम्भव है, कल ही तो प्रभु अपने पास बला लेते हैं. सीख देते हैं। प्रभो! आपने तो लोकने मुझे आज्ञा देकर यहाँ भेजा था। अत: ऐसा तो कभी हो ही नहीं व्यवहार को भी तिलांजलि दे दी और मुझे दूर भगा दिया। सकता। यह तो पागलों का प्रलाप-सा प्रतीत होता है।"
विद्वत खण्ड/१२२
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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