Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 300
________________ गौतम बोले - तुम्हारे और हमारे सब के गुरू तो तीर्थंकर गौतम को आश्वासनमहावीर हैं। भगवान अन्तर्यामी थे। वे गौतम के विषाद को एवं अधैर्य युक्त - यह सुनकर वे सभी आश्चर्य से बोले- क्या आप जैसे मन को जान गए। उनकी खिन्नता को दूर करने के लिये भगवान सामर्थ्यवान के भी गुरू हैं? ने उनको सम्बोधित करते हुए कहा - __ गौतम ने कहा – हाँ, सुरासुरों एवं मानवों के पूजनीय, राग- हे गौतम! चिरकाल के परिचय के कारण तुम्हारा मेरे प्रति द्वेषरहित सर्वज्ञ महावीर स्वामी जगद्गुरू हैं, वे ही मेरे गुरू हैं। ऊर्णाकट (धान के छिलके के समान) जैसा स्नेह है। इसीलिए तुम्हें तापसगण - भगवन्! हमें तो इसी स्थान पर और अभी ही केवलज्ञान नहीं होता। देव, गुरू, धर्म के प्रति प्रशस्त राग होने पर सर्वज्ञ-शासन की प्रर्वज्या प्रदान करने की कृपा करावें। भी वह यथाख्यात चारित्र का प्रतिबन्धक है। जैसे सूर्य के अभाव गौतम स्वामी ने अनुग्रह पूर्वक कौडिन्य, दिन और शैवाल को में दिन नहीं होता, वैसे ही यथाख्यात चारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं पन्द्रह सौ तापसों के साथ दीक्षा दी और यूथाधिपति के समान सब होता। अत: स्पष्ट है कि जब मेरे प्रति तुम्हारा उत्कट राग/स्नेह नष्ट को साथ लेकर भगवान की सेवा में पहुँचने के लिये चल पड़े। मार्ग होगा, तब तुम्हें अवश्यमेव केवलज्ञान प्राप्त होगा। में भोजन का समय देखकर गौतम स्वामी ने सभी तापसों से पुन: भगवान ने कहा - "गौतम! तुम खेद-खिन मत बनो, पूछा-तपस्वीजनों! आज आप सब लोग किस आहार से तप का अवसाद मत करो। इस भव में मृत्यु के पश्चात, इस शरीर से छूट पारणा करना चाहते हैं? बतलाओ। जाने पर; इस मनुष्य भव से चित्त होकर, हम दोनों तुल्य (एक तापसगण - भगवन्! आप जैसे गुरु को प्राप्त कर हम सभी समान) और एकार्थ (एक ही प्रयोजन वाले अथवा एक ही लक्ष्य का अन्त:करण परमानन्द को प्राप्त हुआ है अत: परमान/खीर से - सिद्धि क्षेत्र में रहने वाले) तथा विशेषता रहित एवं किसी भी ही पारणा करावें। प्रकार के भेदभाव से रहित हो जायेंगे।" उसी क्षण गौतम भिक्षा के लिये गये और भिक्षा पात्र में खीर अतः तुम अधीर मत बनो, चिन्ता मत करो। और, "जिस लेकर आये। सभी को पंक्ति में बिठाकर,पात्र में दाहिना अंगूठा प्रकार शरत्कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू रखकर अक्षीणमहानसी लब्धि के प्रभाव से सभी तपस्वीजनों को पेट भी अपने स्नेह को विच्छिन्न (दूर) कर। तू सभी प्रकार के स्नेह का भर कर खीर से पारणा करवाया। त्याग कर। हे गौतम! समय-मात्र का भी प्रमाद मत कर।" शैवाल आदि ५०० मुनि जन तो गौतम स्वामी के अतिशय एवं प्रभु की उक्त अमृतरस से परिपूर्ण वाणी से गौतम पूर्णत: लब्धियों पर विचार करते हुए ऐसे शुभध्यानारूढ़ हुए कि खीर आश्वस्त हो गए। "मैं चरम शरीरी हूँ" इस परम सन्तुष्टि से गौतम खाते-खाते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। का रोम-रोम आनन्द सरोवर में निमग्न हो गया। भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् गौतम सभी श्रमणों के साथ पुनः भगवान् का मोक्षगमन आगे बढ़े। प्रभु के समवसरण की शोभा और अष्ट महाप्रातिहार्य ईस्वी पूर्व ५२७ का वर्ष था। श्रमण भगवान् महावीर का देखकर दिन आदि ५०० अनगारों को तथा दूर से ही प्रभु के दर्शन, ___अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में था। चातुर्मास के साढ़े तीन माह पूर्ण प्रभु की वीतराग मुद्रा देखकर कौडिन्य आदि साधुओं को शुक्लध्यान होने वाले थे। भगवान् जीवन के अन्तिम समय के चिह्नों को पहचान के निमित्त से केवलज्ञान प्राप्त हो गया। गये। उन्हें गौतम के सिद्धि-मार्ग में बाधक अबरोध को भी दूर करना समवसरण में पहुँच कर, तीर्थंकर भगवान की प्रदक्षिणा कर था, अत: उन्होंने गौतम को निर्देश दिया - गौतम! निकटस्थ ग्राम सभी नवदीक्षित केवलियों की ओर बढ़ने लगे। गौतम ने उन्हें रोकते में जाकर देवशर्मा को प्रतिबोधित करो। हुए कहा - भगवान को वन्दन करो। उसी समय भगवान ने कहा- गौतम निश्छल बालक के समान प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य गौतम! केवलज्ञानियों की आशातना मत करो! कर देवशर्मा को प्रतिबोध देने के लिये चल पड़े। । भगवान का वाक्य सुनते ही गौतम स्तब्ध से हो गये। भगवद् आज्ञा इधर, लोकहितकारी श्रमण भगवान् महावीर ने छठ्ठ तप/दो स्वीकार कर, गौतम ने मिथ्यादुष्कृत पूर्वक उन सब से क्षमा याचना दिन का उपवास तप कर, भाषा-वर्गणा के शेष पुद्गलों को पूर्ण की। तत्पश्चात् वे चिन्तन-दोला में हिचकोले खाने लगे। "क्या मेरी करने के लिये अखण्ड धारा से देशना देनी प्रारम्भ की। इस देशना अष्टापद यात्रा निष्फल जाएगी? क्या मैं गुरु-कर्मा हूँ? क्या मैं इस भव में प्रभु ने पुण्य के फल, पाप के फल और अन्य अनेक उपकारी में मुक्ति में नहीं जा पाऊँगा?'' यही चिन्ता उन्हें पुन: सताने लगी। प्रश्नों का प्रतिपादन किया। बारह पर्षदा भगवान् की इस वाणी को शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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