Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 294
________________ क्या यही सर्वज्ञ हैं? ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न सर्वज्ञ की तो मैं स्वप्न में प्राण के निकल जाने पर पाँच भूत तो ज्यों के त्यों बने रहते हैं। तुम भी कल्पना नहीं कर सकता था। वस्तुत: यदि यही सर्वज्ञ हैं तो मैंने ही विचार करो कि वह कौन सी सत्ता है जिसके निकल जाने से पंच यहाँ त्वरा में आकर बहुत बड़ी गलती की है। मैं तो इनके समक्ष भूतात्मक काया निश्चेष्ट हो जाती है तथा इन्द्रियाँ सामर्थ्यहीन हो जाती तेजोहीन हो गया हूँ। मैं इसके साथ शास्त्रार्थ कैसे कर पाऊँगा। मैं हैं। इन्द्रभूति! चेतना शक्ति चित्त रूप है। वह मरणधर्मा नहीं है। शरीर वापस भी नहीं लौट सकता। लौट जाता हूँ तो आज तक की के नष्ट होने से चेतना नष्ट नहीं होती है। पुन:, विचारक के आधार पर समुपार्जित अप्रतिम निर्मल यशोकीर्ति मिट्टी में मिल जाएगी। तो मैं ही विचार की सत्ता है। यदि विचार है तो विचारक होगा ही। अपने क्या करूँ?' इन्द्रभूति इस प्रकार की उधेड़बुन में संलग्न थे। अस्तित्व के प्रति सन्देहशील होना यह भी एक विचार है और यह उसी समय अन्तर्यामी सर्वज्ञ महावीर ने अपनी योजनगामिनी वाणी विचार कोई विचारशील सत्ता ही कर सकती है, अत: आत्मा की सत्ता से सम्बोधित करते हुए कहा-“भो इन्द्रभूति गौतम! तुम आ गये?" तो स्वयं सिद्ध है। घट यह नहीं सोचता की मेरी सत्ता है या नहीं? अत: अपना नाम सुनते ही इन्द्रभूति चौंक पड़े। अरे! इन्होंने मेरा नाम कैसे तुम्हारी शंका ही आत्मा क अस्तित्व को सिद्ध करती है। फिर तुम्हारे जान लिया? मेरी तो इनके साथ कोई जान-पहचान भी नहीं है, कोई वेद-श्रुतियों के प्रमाणों से भी यह स्पष्टत: सिद्ध होता है कि जीव का पूर्व परिचय भी नहीं है। अहँ प्रताड़ित होने से पुन: संकल्प-विकल्प स्वतन्त्र अस्तित्व है। की दोला में डोलने लगे। चाहे मैं किसी को न जानूं, पर मुझे कौन नहीं दीक्षा-सर्वज्ञ महावीर के मुख से इस तर्क प्रधान और जानता? सूर्य की पहचान किसे नहीं होती? मेरे अगाध वैदुष्य की प्रामाणिक विवेचना को सुनकर इन्द्रभूति के मनः स्थित संशय शल्य धाक सारे देश में अमिट रूप से छाई हुई है, खैर। पूर्णत: नष्ट हो गया। अन्तर मानस स्फटिकवत् विशुद्ध हो गया और सन्देह-निवारण-मेरे मन में प्रारम्भ से ही यह संशय शल्य प्रभु को वास्तविक सर्वज्ञ मानकर, नतमस्तक एवं करबद्ध होकर की तरह रहा है कि 'पाँच भूतों का समूह ही जीव है अथवा चेतना कहा - 'स्वामिन् ! मैं इसी क्षण से आपका हो गया हूँ। अब आप शक्ति सम्पन्न जीव तत्व कोई अन्य है।' मैं अनेक शास्त्रों का मुझे पांच सौ शिष्यों के परिवार के साथ अपना शिष्य बनाकर हमारे अध्येता हूँ, फिर भी इस विषय में प्रामाणिक निर्णय पर नहीं पहुँच जीवन को सफल बनावें।' प्रभु ने उसी समय ईस्वी पूर्व ५५७ में पाया हूँ। यदि मेरे इस संशय का ये निवारण कर दें तो मैं इन्हें सर्वज्ञ वैशाख सुदि ११के दिन पचास वर्षीय इन्द्रभूति को अपने छात्रमान लूँगा और सर्वदा के लिए इनको अपना लूँगा। परिवार के साथ प्रव्रज्या प्रदान कर अपना प्रथम शिष्य घोषित किया। अतिशय ज्ञानी महावीर ने इन्द्रभूति के मनोगत भावों को अन्य १० यज्ञाचार्यों की दीक्षासमझकर तत्काल ही कहा "इन्द्रभूति छात्र-परिवार सहित सर्वज्ञ महावीर का शिष्यत्व हे गौतम! तुम्हें यह संदेह है कि जीव है या नहीं? यह तुम्हारा अंगीकार कर निर्ग्रन्थ/श्रमण बन गये हैं।" संवाद बिजली की तरह संशय वेद/बृहदारण्य उपनिषद् की श्रुति-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो यज्ञ मण्डप में पहुँचे तो शेष दसों याज्ञिक आचार्य किंकर्तव्य-विमूढ़ भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न च प्रेत्य संज्ञास्ति-" पर से हो गये। सहसा उनको इस संवाद पर विश्वास ही नहीं हुआ। वे आधारित है। अर्थात् इन भूतों से विज्ञानघन समुत्थित होता है और कल्पना भी नहीं कर पाते थे कि देश का इन्द्रभूति जैसा अप्रतिम भूतों के नष्ट हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है। परलोक जैसी दुर्धर्ष दिग्गज विद्वान जो सर्वदा अपराजेय रहा वह किसी निर्ग्रन्थ से कोई चीज नहीं है। पराजित ोकर उसका शिष्य बन सकता है। सब हतप्रभ से हो गये। महावीर ने पुन: स्पष्ट करते हुए कहा-इस श्रुतिपद का वास्तविक किन्तु, अग्निभूति चुप न रह सका और वह आग-बबूला होकर, अर्थ न समझने के कारण ही तुम्हें यह भ्रान्ति हुई है। इसका वस्तुतः अपने अग्रज को बन्धन से छुड़ाने के लिए अपने छात्र-समुदाय के अर्थ यह है कि आत्मा में प्रति समय नई-नई ज्ञान-पर्यायों की उत्पत्ति साथ महावीर से शास्त्रार्थ करने के लिये गर्व के साथ समवसरण की होती है और पूर्व की पर्यायें विलीन हो जाती हैं। जैसे घट का चिन्तन ओर चल पड़ा। महावीर के समक्ष पहुँचते ही उसने भी अपनी शंका करने पर चेतना में घट रूप पर्याय का आविर्भाव होता है और दूसरे का समाधान हृदयंगम कर छात्र परिवार सहित उनका शिष्यत्व क्षण पट का ध्यान करने पर घट रूप पर्याय नष्ट हो जाती है और पट स्वीकार कर लिया। इस प्रकार क्रमश: वायुभूति आदि नवों रूप पर्याय उत्पन्न हो जाती है। आखिर ये ज्ञान रूप चेतन पर्यायें किसी कर्मकाण्डी उद्भट विद्वान् महावीर के पास पहुँचे और उनसे अपनीसत्ता की ही होंगी? यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी, अप, तेजस् आदि अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर अपने छात्र-परिवार सहित पाँच भूतों से न होकर जड़-चेतन रूप समस्त ज्ञेय पदार्थों से है। जैसे प्रभु के शिष्य बन गये। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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