Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

Previous | Next

Page 231
________________ हस्तलिखित जैन ग्रन्थों एवं तत्कालीन प्रस्तर शिलालेखों से हमें ज्ञात होता है कि जयसिंह ने अपने साम्राज्य पर ज्यो-ज्यों पकड़ मजबूत की उसे क्रमश: उन्नत उपाधियाँ प्रदत्त की गई। जयसिंह के राज्यारोहण के सात वर्षों पश्चात् वि०सं० ११५७ (११००ई०) में रचित 'निशिथ चूर्णि' में जयसिंह को केवल मात्र 'श्री जयसिंह देवराज्ये' अर्थात् 'जयसिंह के राज्य काल में' से सम्बोधित किया गया है । ३२ राजा को विरुद रहित सम्बोधन से उद्धृत किया जाना उसके अप्रभाव का परिचायक है। ऐसा आभासित होता है कि जयसिंह उस काल में केवल मात्र सिंहासन का ही अधिकारी बन सका होगा। इसके तीन वर्षोपरान्त रचयित वि०सं० ११६० (११०४ ई०) की जैन हस्तलिखित कृति 'आदिनाथ चरित' से प्रकाश पड़ता है कि जयसिंह का राज्य विस्तार 'केमबे' तक हो गया था। ३३ चार वर्षों पश्चात् हमें सं० ११६४ (११०८ ई० ) में रचित एक हस्तलिखित जैन ग्रंथ प्राप्य है। इसमें जयसिंह को 'समस्त राजाबलि-विराजिता-महाराजाधिराज - परमेश्वर श्री जयसिंह देव कल्याणे - विजयराज्ये' से सम्बोधित किया गया है। ३४ ऐसा लगता है कि उस समय तक जयसिंह ने सर्वत्र अपने पराक्रम का लोहा मनवा लिया होगा। इसके पश्चात् वि० सं० ११६६ (ई० १११०) में रचित 'आवश्यक सूत्र ग्रंथ' से जयसिंह के एक और विरूद का - ‘त्रिभुवन गंड' भान होता है । ३५ ' त्रिभुवन गंड' अर्थात् तीनों लोकों का अभिभावक ऐसा प्रतीत होता है कि जयसिंह का सैन्य अभियान उस समय में अपनी पराकाष्ठा पर था। और उसका वर्चस्व चहुँ दिशाओं में पैठ गया होगा फाल्गुन वि०सं० १९७९ में विरचित 'पंचवास्तुका ग्रंथ' में उसी विरुदावली को उद्धृत किया गया है किन्तु साथ में ‘श्रीमत्' और जोड़ दिया गया । ३६ उस समय तक 'सांतुका' जयसिंह का 'महाकाव्य' अर्थात् मुख्यमंत्री था। भाद्रपद मास वि०सं० ११७९ में रचित जैनग्रंथ 'उत्तराध्ययन सूत्र' से विदित होता है कि उस समयम में मुख्यमंत्री 'आशुका' हो चुका था तथा राजा को अतिरिक्त विरुदावली 'सिद्ध चक्रवर्ती' भी प्रदत्त की गई । ३७ वि० सं० १९९२ में लिखित 'नवपदलघुवृत्ति' एवं 'गाला शिलालेख' में जयसिंह को 'अवन्तिनाथ' के विरूद से भी नवाजा गया है। किन्तु बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि जयसिंह की ज्ञात मुद्राओं में उपर्युक्त एक भी विरूद का प्रयोग नहीं किया गया। संलग्न निखात में मैंने प्राप्य १७ सिक्कों के लेख को दर्शाया है। इन सिक्कों के उर्ध्व भाग में एक दक्षिणाभिमुख हस्ति का अंकन हुआ है और वाम भाग में तीन पंक्तियों में निम्न आलेख उकेरित किया गया है : विद्वत खण्ड / ५२ Jain Education International " श्रीमज् जयसिंह प्रिय" स्वर्गीय मुद्राशास्त्री डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार सिक्कों पर प्रयुक्त 'प्रिय' शब्द बड़ा ही अटपटा-सा लगता है। डॉ० गुप्त के अनुसार इस शब्द का प्रयोग 'बीसलदेव प्रिय द्रम्म' के रूप में प्राय: अभिलेखों में देखा जाता है। कदाचित् इसका अभिप्राय आत्मीयता प्रकट करना है । ३९ डॉ० गुप्त ने इन सिक्कों का तारतम्य प्रतिहार राजा वत्सराज जिसने रणहस्ति विरुद धारण किया था। उनके भी चित भाग पर दक्षिणाभिमुख हाथी और पट भाग पर 'रण- हस्ति' आलेख है। परन्तु मेरी धारणा है कि जयसिंह के सिक्कों की तुलना वत्सराज से करना समीचीन नहीं होगा। कारण चालुक्य वंशीय जयसिंह 'प्रतिहार वत्सराज' के आठवीं शताब्दी (ई० ७७८-७८८) के सिक्कों की भाँति सिक्के ५०० वर्षों उपरान्त क्यों प्रचलित करता ? द्वितीयत: प्रतिहार वत्सराज के सिक्के ६-७ ग्रेन के नन्हें आकार के सिक्के हैं जबकि जयसिंह द्वारा मुद्रित सिक्कों का वजन २० ग्रेन है। डॉ० गुप्त के अतिरिक्त न तो किसी मुद्राविज्ञ ने जयसिंह सिद्धराज के सिक्कों को उद्धृत हो किया, नहीं प्रदर्शित किया। परन्तु जैन वाङ्गमय में हमें इस तथ्य की कुछ व्याख्या मिलती है कि क्यों जयसिंह ने एक ओर हस्ति तथा दूसरी ओर 'जयसिंह प्रिय' का उपयोग किया है। हमें विदित है कि राजा भोज की मृत्यु के उपरान्त 'परमार' और चालुक्य राजघरानों के मध्य स्ष्टता बढ़ती ही गई। 'भोज' के अनुवर्ती राजाओं नरवर्मन तथा उसके पुत्र यशोवर्म्मन कभी भी उज्जैनी की भव्यता एवं कीर्ति को प्रतिष्ठापित नहीं कर सके । किन्तु उन्होंने चालुक्य राजा जयसिंह के साथ अपनी लड़ाई जारी रखी। यशोवर्म्मन एक बेहद ही कमजोर शासक था । वह सन् १९३३ ई० से पूर्व मालवा के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ उसके शासन काल में भी जयसिंह के साथ कोई समझौता नहीं हो सका । फलस्वरूप जयसिंह ने बड़ी तैयारी के साथ मालवा पर हमला कर दिया। हेमचन्द्र के अनुसार यह युद्ध बारह वर्षो तक लम्बा चला। वे लिखते हैं- "जयसिंह मालवा की ओर बड़ी ही धीमी गति से चला। रास्ते में जितने भी छोटे-बड़े राज्य मिले उन्हें धराशायी करता गया । 'भीलों' ने भी उसे अपनी सेवायें प्रस्तुत की। अन्त में उसने अपनी सेना को क्षिप्रा नदी के तट पर तैनात करते हुए धार नगरी पर हमला किया। भयभीत यशोवर्म्मन मुँह छुपाए भार के किले में पड़ा रहा। उसने किले के समस्त दरवाजों को बंद करवाते हुए उन्हें तीखे तुणिरों से आच्छादित कर दिया। जयसिंह ने शिक्षा एक यशस्वी दशक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326