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पर्यावरण शुद्धि हेतु यह आवश्क है कि मानवीय जैन धर्म की बुनियाद है-अहिंसा। इसीलिए अहिंसा को मानसिक प्रदूषण को नियंत्रित, संयमित एवं संतुलित कर परम धर्म कहा गया है। केवल जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म उसे जनोपयोगी बनाया जावे, इस कार्य में सत्तासीन एवं है जिसने अहिंसा की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्चा की है। जैन धर्म प्रशासन में बैठे व्यक्तियों की मनोवृत्ति ही एकमात्र जैसा मानता है कि प्रत्येक जीव में आत्मा रहती है और सभी घटक है जो व्यक्तिगत एवं सामाजिक प्रदूषण को प्रभाव- आत्माएं समान हैं। पंचेन्द्रियधारक बड़े जीव हों या एकेन्द्रिय पूर्वक नियन्त्रित एवं संतुलित कर पर्यावरण शुद्ध कर सकता धारक जीव-सब जीना चाहते हैं। इसीलिए जैन धर्म के है। व्यक्ति एवं समाज सत्तासीनों तथा राज-प्रभुओं के मतानुसार किसी भी जीव का दमन करना, उसे दु:ख आचरण का प्रतिबिम्ब होने के कारण सुधार की प्रक्रिया पहुँचाना, उसे गुलाम बनाना, उस पर सितम ढाना या उसका उच्च सत्तासीनों से आरम्भ होना वांछनीय है।
प्राण-हरण करना महापाप है, हिंसा है। सभी जीवों को जीने व्यक्ति एवं समाज की अशुभ प्रवृत्तियों, असदाचार, का अधिकार है। उन पर प्रेम, करुणा और दया रखनी असंयम को रोकने में रामकृष्ण, महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, चाहिए। जैन धर्म सर्वजीवों को जीने का प्रकृतिदत्त अधिकार ईसा, जरस्थु एवं उनके अनुयायी महर्षियों का महत्वपूर्ण स्वीकार करता है। उसमें प्रकृति के किसी भी पदार्थ के प्रति योगदान रहा, जिन्होंने वैचारिक शुद्धता-शुभता से व्यक्ति- शत्रुता, नफरत या विरोध के भाव को जरा भी स्थान नहीं सुधार द्वारा समाज-सुधार के वैज्ञनिक प्रयोग किये हैं। है। जैन धर्म जीव-सृष्टि एवं प्रकृति-सृष्टि के प्रति प्रेम, दुर्भाग्य का विषय है कि वर्तमान में भौतिकता की चकाचौंध सम्मान, करुणा, आदर, सहिष्णुता, दया, मैत्री, स्नेह, क्षमा में हमने इन महापुरुषों द्वारा बताये गये सुख के शाश्वत मार्ग और समता से व्यवहार करने का बोध देता है। को विस्मृत कर दिया है और अपने को अपटूडेट घोषित कर हम तो अनगिनत जीवों में से एक जीव हैं, अनंत दिया है। हमारी इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति एवं समाज आकाश तथा अनंत काल के चक्र में इस असीम विश्व का सहज मानवीय उदात्त भावनाओं से भटक गया है और हम अस्तित्व है और ऐसी अनंतता के एक बिन्दु के समान यह एक कृत्रिम जीवन जीने को विवश हो गये हैं जो शारीरिक- पृथ्वी है जिसके असंख्य जीवों में से हम एक क्षुद्र जीव हैं। ब्याधि, मानसिक-विक्षिप्तता एवं प्राकृतिक-प्रदूषण के रूप में कास्मोलॉजी या वैश्विक विज्ञान का यह जैन सिद्धांत समझ हमारे सामने अपनी विकरालता सहित अनुभूत हो रहा है। में आ जाय-तो हम जीवन के सभी क्षेत्रों में अहंकार या
पर्यावरण का अर्थ होता है: जीव-सृष्टि एवं वातावरण का अहम् को छोड़कर विनम्र बन सकते हैं। हमें प्रकृति के पारस्परिक आकलन, जिसमें सजीव प्राणी, आबहवा, भूगर्भ नियमों और उनके अर्थों को वैज्ञनिक ढंग से सिद्ध करना
और आसपास की परिस्थिति विषयक विज्ञान का समावेश चाहिए। वही हम सबकी नीति और हमारा परम धर्म बन होता है। यदि पर्यावरण को व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो सकेगा। "युनाइटेड नेशन्स वर्ल्ड चार्टर ऑन नेचर'' का भी उसमें केवल मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वनस्पति और यही संदेश है कि हमें समग्र मानव जाति के अस्तित्व तथा आकाश, अनंत सूक्ष्म जीव-सृष्टि का ही नहीं, अपितु समग्र विकास के लिए यही पद्धति अपनानी पड़ेगी। ब्रह्माण्ड, तारकवृंद, सूर्य-मंडल तथा पृथ्वी के आसपास के प्राचीन साधकों की इस यत्नपूर्वक (प्रमाद-रहित) जीवन सूर्य, चन्द्र, ग्रह और गिरि-कन्दरा, पर्वत, सरिता, सागर, पद्धति को आधुनिक मनीषियों ने भी वाणी दी है एवं लोकझरने, वन-उपवन, वृक्ष, वनस्पति, पुष्प तथा भूपृष्ठ, जलपृष्ठ जीवन ने उसे आत्मसात् कर अपने उद्गार व्यक्त किये हैं। सहित जीव-सृष्टि के सभी प्राकृतिक पदार्थ एवं पृथ्वी, हवा, बंगला कहावत में कहा गया है - पचे सोई खाइबो, रुचे अग्नि, जल, गगन जैसे पंचमहाभूत तत्वों का भी समावेश सोई बोलिबो। होता है। जैन धर्म के मूलाधार सिद्धांतों पर यदि सुचारु एवं आत्मालोचन से शुद्धि सुयोग्य तरीके से अमल किया जाय तो प्रकृति की सुरक्षा प्रदूषण का अर्थ है किसी स्वाभाविक वस्तु में विकार आ करने में उनका सहयोग प्राप्त होता है, पर हमें इस बात की जाना। असली में नकली वस्तु का, तत्व का मिल जाना शुद्ध जानकारी सर्वप्रथम प्राप्त करनी चाहिए कि जैन धर्म के वस्तु का अशुद्ध हो जाना है। मिलावट की यह प्रक्रिया शरीर मूलभूत सिद्धांत कौन-कौन से हैं? उनकी विस्तार से ऊपर में, प्रकृति में एवं आत्मा के स्वभाव में कर्मों के रजकणों चर्चा की जा चुकी है।
के द्वारा, दूषित वृत्तियों (कषायों) के द्वारा निरन्तर होती
विद्वत् खण्ड/७२
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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