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बदलती चली जा रही थी। बहुत सारे मामले उनकी सम्मति के बिना तय करती जा रही थी। जब कि ऐसा भी नहीं था कि अगर वह उनसे मशविरा करती तो हमेशा विपरीत ही पाती। बेटे ने जब गाँव की जमीन बेचकर शहर में फ्लैट बनवाया तब उन्हें विरोध कहाँ हुआ था? हाँ बासिक भूमि, बापदादों की निशानी को भले ही उन्होंने बिकने न दिया था। बासिक भूमि बेची नहीं जाती उसे किसी को बसने के लिए जरूर दान दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त पुराने पलंग, आलमारी, बर्तन सब तो बेचे गए थे, तब उन्होंने कोई रुकावट कहाँ डाली? कितना कुछ तो स्वीकारते ही चले आ रहे थे, जमाने और अगली पीढ़ी के लिए। लेकिन स्वीकारने के पीछे कोई विचार तो हो। मूल्यहीनता में मूल्य तोड़ने की बात समझ में नहीं आती थी उन्हें। खुद उन्होंने भी तो कितने पुराने मूल्य, कितने खंडहर ध्वस्त किये थे। क्या उन्होंने अपने यहाँ बलिपूजा नहीं रोकी? क्या उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली नहीं जलायी? क्या उन्होंने अपने माता-पिता को गाँधी और खद्दर का मतलब नहीं समझाया? तब पंद्रह-सोलह वर्ष के तो थे वे? सत्य, अहिंसा, चरखा और सत्याग्रह के लिए गाँधी बाबा कैसे लकुटिया लिए मानो हमेशा उनके किशोर मन के आगे-आगे चलते रहते थे। गाँधी उन्हें आधुनिकता के भी प्रतीक लगते थे और क्रांति के भी। उनकी बदौलत ही तो गाँव में जैनी बाबा के दालान में चरखा सेन्टर खुला था और गाँव की महिलाएँ दोपहर से शाम का समय सात्विक सृजन में बिताने लगी थीं। उस सेंटर से पहले तो घर की देहरी लक्ष्मण रेखा थी उनके लिए। कितना अच्छा लगता था प्रताप बाबू को वहाँ अपनी माँ का जाना।
आजादी के आंदोलन की वह लहर, वह ज्वार अपनी आँखों से देखना और उसमें तन-मन से नहाना जीवन का लोमहर्षक अनुभव था उनके लिए। अविस्मरणीय अनुभव। उसका स्मरण आज भी उन्हें आपूर्ण स्वच्छ कर देता है, आलोड़ित और आर्द्र। आर्द्र इसलिए भी कि उपलब्ध आजादी के बाद क्रमश: फैलता हुआ अंग्रेजवाद उन्हें सन्न और हतप्रभ कर देने के लिए काफी था। पूरा देश पूरा युग न उनके हाथ था न उसके लिए वे अपना दोष ढूँढ़ सकते थे, पर अपनी संतानों के लिए अपनी चूक की तलाश में अक्सर पड़ जाते थे। अपने जानते तो उन्होंने अंग्रेजियत को कभी प्रश्रय नहीं दिया था, अपने घर। इंगलिश मीडियम में पढ़ाया नहीं उन्हें। रेडियो हो कि टी०वी०, फ्रिज, गाड़ी ऐसी किसी सुविधावाद को प्रवेश का अवसर न दिया था उन्होंने। बच्चे बिगड़े नहीं थे न बरबाद हुए थे, फिर भी कहीं न कहीं से पिता
और संतानों की रुचि का फासला बड़ा हो गया था। किसने सिरजा था उसे? अपनी हिस्सेदारी कहाँ ? सवाल उठते थे पर जवाब कहाँ मिलता? वक्त-वक्त पर बच्चों के आरोप पहुँचते थे उनके पास। पिता ने घूस नहीं लिया, तो क्या? सरकारी सुविधाओं का घरेलू
उपयोग न किया तो क्या सरकार ने कोई तमगा दे दिया? क्या रिटायरमेन्ट की उम्र बढ़ा दी? ऐसे कितने सारे दोष ढूँढ़ कर रक्खे थे उनके सामने बच्चों ने। इसलिए ऐसा कोई हक ही न बनता था उनका इन पोतों पर। उनके मम्मी-डैडी अपने ढंग से संस्कारित करेंगे उन्हें। फास्ट और मार्डन बनाएँगे उन्हें।
बच्चों की किताबें उलट-पलट कर देखने लगे प्रताप बाबू कि बड़े ने इस नये टीचर की परीक्षा प्रारंभ कर दी।
दादाजी! कैन यू मल्टीप्लाइ द एलेवन इंट्र एलेवन?
दादाजी मुस्कराए - जवाब दिया वन हंड्रेड ट्वेन्टी वन। __एंड एलेवन इंटू ट्वेल्व? वन थर्टी टू।
एंड ट्वेल्व इंटू ट्वेल्व? - वन फोर्टी फोर। अच्छा फाइव इंटू वन एण्ड हाफ - सेवन हाफ। बच्चा चिल्लाया। वेरी गुड, हाउ फास्ट। नाइस यू आर? बट वेयर इज योर कैलकुलेटर? 'इन आवर माइंड।'
उन्होंने याद किया अपने रसिकलाल गुरुजी और उनके बेंतों को। कैसे लाइन लगवाते थे और कैसे लय में एक साथ सबसे पहाड़े रटवाते थे। कभी उनकी बेंत नहीं खानी पड़ी थी उन्हें, यह सोच आज भी गर्व अनुभव करते थे वे। सवय्या, डेढ़ा, ग्यारहा सब याद करवाया था उन्होंने। बीस तक के पहाड़े का प्रचलन तो बहुत बाद में हुआ। फिर केलकुलेटर और कंप्यूटर तो अब यह सब भी खत्म कर रहा है। तन-मन की इतनी बचत किसलिए, यह उनकी समझ के बाहर था। बच्चों के साथ रमते हुए उन्होंने कहा - अच्छा बेटे, चलिए अब एक कविता सुनाइये।
- कविता? ह्वाट इज कविता? 'कविता नहीं जानते? पोएम जानते हो?' - यस, शुरू हो गया वह - 'ट्विन्कल ट्विंकल लिटल स्टार.....' ‘हिन्दी में कोई?' - नो इन हिन्दी। केवल, अ, आ, इ, ई बछ।
'हिन्दी में भी आनी चाहिये बेटे। यह अपनी भाषा है न। मातृभाषा।'
- मातृभाषा? 'हाँ मातृभाषा है हिन्दी तुम्हारी। मदरटंग कहते हैं इंगलिश में।' । आओ एक गीत सीखो - एक कविता - पूर्व दिशा मेंबच्चों ने अनुकरण किया – पूल्व दिछा में.....
विद्वत खण्ड/९२
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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