Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

Previous | Next

Page 287
________________ पखा शिक्षा और संस्कार केशरीचन्द सेठिया पड़ता है। कभी-कभी तो वह विद्रोही हो जाता है। कथनी, करनी में विरूपता की स्थिति भी उसकी भावना को ठेस पहुंचाती है। सहपाठियों के परस्पर सहयोग का असर भी कम नहीं पड़ता। बुरी लत वाले छात्रों की संगत उसके लिये अभिशाप बन जाती है। वह मादक द्रव्यों, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, गुटका, चोरी, असत्य भाषण आदि का अनुकरण शीघ्र कर लेता है। बालक में देखा-देखी की भावना अधिक होती है। एक बार लगी हुई लत को बदलना, सुधारना कठिन हो जाता है। घर के वातावरण, आस-पास के लोगों की आदतों की नकल भी करने की इच्छा तत्काल उत्पन्न हो जाती है। देखादेखी, चोरी-छिपे वह सब कुछ करने लगता है जो उसके लिए अहितकर है। प्राचीनकाल में उसे ऋषि मुनियों के आश्रम में, गुरुकुल में शिक्षा के लिए भेजा जाता था। स्वच्छ, शान्तिपूर्ण वातावरण में उसका सर्वांगीण विकास होता था। प्रतिदिन का कार्यक्रम नियमित रूप से पठन-पाठन आवश्यक होता था। सेवा, विनय, सदाचार, सादगी, श्रम पर विशेष ध्यान दिया जाता था। किन्तु इस का लाभ बहुत कम लोगों को प्राप्त होता था। मध्य काल में गांव, शहरों में बड़ी-बड़ी स्कूलें, उच्चशिक्षा के लिये कॉलेज खुल गये। आम लोगों को शिक्षा भवन चाहे कितने ही मंजिल का हो, भव्य हो, विशाल मिलने लगी। सरकार ने भी शिक्षा को अनिवार्य कर दिया। हो अगर उस की नींव कमजोर है तो किसी भी समय ढ़ह इसका लाभ सबसे अधिक क्रिश्चियन समाज ने लिया। हर सकता है। वृक्ष चाहे कितना भी विशाल हो, सघन हो अगर स्थान पर सेवा और शिक्षा के लिये अस्पताल, स्कूल और उसकी जड़ें मजबूत न हो तो हवा एक झोंका उसे गिरा देता कॉलेज प्रारम्भ कर दिये। स्वाभाविक ही पाश्चात्य शिक्षा है। बालक को भी अगर प्रारम्भिक शिक्षा - उच्च संस्कार अंग्रेजी के माध्यम से पनपने लगी। प्राकृत, संस्कृत आदि न मिले तो उसका भावी जीवन लड़खड़ा जायेगा। मृतभाषा की श्रेणी में आ गई। अपने ही देश में राष्ट्र भाषा बालक का मन कच्ची मिट्टी के सदृश्य कोमल होता । हिन्दी को संघर्ष करना पड़ रहा है, यही हाल अन्य प्रादेशिक है। जबतक मिट्टी गीली होती है, कुम्हार उसको जिस रूप, भाषाओं का है। आकार में ढालना चाहे ढाल सकता है। चाहे तो गोल, छोटा, बच्चों पर किताबों का इतना बोझ पड़ता है कि वे स्कूल बड़ा घड़ा बना सकता है, गमला बना सकता है। मूर्ति का बेग के भार से दब से जाते हैं। पहाड़ी कुली की तरह किसी आकार दे सकता है किन्तु मिट्टी के सूख जाने पर वह प्रकार पीठ पर लादकर स्कूल जाते हैं। होमवर्क घर के लिए लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ नहीं बना सकता। इतना दे देते हैं कि खेल कूद का उसे समय नहीं मिल पाता। नवजात शिशु की शिक्षा मां की गोद में मीठी-मीठी शारीरिक विकास की ओर बहत कम ध्यान जाता है। यही थपकी से, पालने में मधुर लोरी के साथ प्रारम्भ हो जाती है। कारण है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। पांच वर्ष का हो जाने पर उसे पाठशाला में प्रवेश करवा दिया। अत: शिक्षा की पद्धति में बदलाव/परिवर्तन आवश्यक हैजाता है। वर्तमान में तो ढाई तीन वर्ष की उम्र में ही स्कूल महावीर ने कहा – पढमं नाणं तओ दया। में भर्ती करा दिया जाता है। खेल-खेल में खिलौनों और चित्रों उसी शिक्षा का महत्व है जिसके द्वारा आत्मनिर्भरता, के द्वारा अक्षर ज्ञान करा दिया जाता है। नैतिक, धार्मिक, सुसंस्कार, विनय, सेवाभाव, परोपकार आदि गुणों की व्यावहारिक के साथ-साथ संस्कार की नींव पड़ती है। उसका अभिवृद्धि हो। विवेक के द्वारा ही, विनय के द्वारा ही वह दया, भावी जीवन बहुत कुछ इन्हीं संस्कारों पर निर्भर है। अनुकम्पा, अहिंसा का पालन सही तरह से कर सकता है। अकसर देखा गया है कि अभिभावक, गुरू के भेदभाव पूर्ण व्यवहार, आचरण का प्रभाव उसके हृदय पर विशेष रूप से चेन्नई विद्वत् खण्ड/१०८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326