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धान की रोपाई कब होती है, कब कटनी होती है, कब रब्बी की फसल पर वे बहू के व्यवहार से हतप्रभ हो गए। प्रताप बाबू हिन्दी और लगायी जाती है, कब दलहन और तेलहन रोपे काटे जाते हैं। बारहों अंग्रेजी में गोल्डमेडलिस्ट थे, बहू को पता था। यह लड़की बहुत पढ़ीनक्षत्रों और महीनों के नाम कंठस्थ थे उन्हें। उन्हें आश्चर्य होता कि लिखी तो न थी पर अंग्रेजी माध्यम से इंटरमीडियट कर लिया था। यह कैसा जीवन है जहाँ लोग उन चीजों के बारे में न जानते, न जानने उनके मित्र की लड़की थी। प्रताप बाबू के लड़के का उससे प्रेम विवाह की उत्सुकता रखते कि जिन चीजों का संबंध उनके प्राणों से है, उन्हें था, जिसमें दोनों परिवारों को एक दूसरे का संबंध सहर्ष स्वीकार था। लगाने वाली जगह कहाँ है, लोग कहाँ हैं? प्रताप बाबू को बड़ा दुखद । बच्चों को बुलाने पर छूटते ही उसने कहा – बड़ा टफ है इन लोगों
और हास्यास्पद लगता कि पेड़ों को किताबों में पढ़ाया जाता है, का कोसे, आप से होगा नहीं, स्वर धीमा था पर दृढ़। इधर बच्चों का टी०वी० में दिखाया जाता है, कापियों में आंका जाता है। खेलों को मूड बन गया, अपने इस नए टीचर से पढ़ने का। इन कुछ दिनों में खेला कम, टी०वी० में देखा अधिक जाता है।
दादाजी उनके लिए एक मजेदार जीव सिद्ध हो चुके थे - एक दो महीने हुए थे उन्हें आये हुए। इंजीनियर बेटे ने बहुत आग्रह
एडवेंचर, याकि नए-नए रहस्यों के खदान। इससे भी बड़ी बात थी कि कर बुलाया था। प्रताप बाबू स्वयं तो एस०डी०ओ० के पद से हाल
वहाँ किलकने-फुदकने की छूट भी अधिक थी। टीचर के रूप में में ही रिटायर हुए थे। बाकी जीवन के लिए कोई संतोषप्रद शैली
उनकी परीक्षा भी करनी थी। वे दौड़े चले गए दादाजी के पास। प्रताप ढूँढ़ने की दिशा में सोच रहे थे। कलकत्ता आते हुए सोचा था कि
बाबू का बहू से आहत मन बच्चों के उत्साह में भुला गया। उन्होंने कुछ लंबी अवधि तक रहेंगे, बच्चों को पढ़ाने में मदद करेंगे। असल ।
बच्चों का भारी बस्ता उल्टा-पल्टा। इतनी किताब-कापियाँ तो उन्होंने
मैट्रिक तक में भी न देखी थी। बड़ा पाँच साल का था. के०जी० में में सरकारी नौकरी की वजह से अपने बच्चों की पढ़ाई में खुद अपना योगदान नहीं दे पाये थे वे। इसकी कसक उनके भीतर भी
पढ़ रहा था। छोटा ढाई का, दो-चार दिनों से नर्सरी जा रहा था। थी और बच्चों के मन में भी पिता के लिए एक शिकायत थी।
इसलिए प्राय: रोज ही स्कूल जाते समय वह एक तमाशा खड़ा
कर देता था। नहीं स्कूल नहीं जाएगा। तब तरह-तरह से मिठाइयाँ, बुढ़ापे में अपनी इस सोच और योजना के पीछे इंगेजमेंट की तलाश
चाकलेट तथा अलग-अलग लोभ देकर उसे भेजा जाता था। प्रताप भी थी और शायद इस कसक से छुटकारे की भी। पर कलकत्ता
बाबू के वश में होता तो वे उसे स्कूल जाने से बचा लेते। ढाई साल आकर तो कहीं इसका द्वार दरवाजा दिखायी न दिया उन्हें। वे आए।
के बच्चे को स्कूल भेजकर क्या पढ़ाना है भला? उनकी सोच में काफी खातिर हुई। बेटे ने ड्राइवर और बच्चों के संग चिडियाखाना,
तो माँ ही अभी पाठशाला है उसकी। अभी उसे स्कूल भेजने का म्यूजियम, विक्टोरिया मेमोरियल, प्लेनेटेरियम, बेलूरमठ और
मतलब तो सिर्फ उससे निजात पाना है। बस। वात्सल्य के ऐसे दक्षिणेश्वर तमाम दर्शनीय स्थलों पर भेजा उन्हें, घुमाया कहना
आधुनिकीकरण पर वे ऐसा ही सोचते हैं। पर ऐसा उनके सोचने से चाहिए। दो-चार दिनों तक उनके आने की गहमागहमी रही घर में।
क्या हो सकता था। अपनी हैसियत के विलोपन का अहसास पूरी फिर घर के नियमित रूटीन में वे भी एक रूटीन हो गए।
तरह से था उन्हें। उन्हें तो बहुत कुछ अच्छा नहीं लगता था और ड्राइवर सुबह बच्चों को लेकर स्कूल जाता था। बहू बच्चों को
तो और इन पोतों का नाम तक लेने में परेशानी होती थी उन्हें। जैकी झटपट तैयार कर देती थी। बेटा बेड-टी लेकर भी साढ़े आठ बजे
और डॉन। ये भी कोई नाम है भला? नाम एक महत्वपूर्ण संज्ञा है तक सोया रहता था या बिस्तर पर पड़े-पड़े टी०वी० न्यूज और।
उनकी नजर में। वह तत्काल व्यक्तित्व का परिचायक हो न हो पर कीप-फिट देखता रहता था। टी०वी० से न्यूज सुनने की बात प्रताप
उसका अपने आप में एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या सामाजिक बाबू की समझ में आती थी पर कसरत को टी०वी० में देखने की।
अर्थ गांभीर्य तो प्रकट होना ही चाहिए। वह भी न सही उसके पीछे बात बिल्कुल समझ में नहीं आती थी। और तो और कसरत को
कम से कम माता-पिता की महत्वाकांक्षा या कल्पना तो झांकती हो कीप-फीट क्यों कहेंगे? योग को योगा क्यों कहेंगे? देसी नामों से
कहीं। उन्होंने अपने इन दोनों पोतों का नाम रक्खा था, यशवन्त क्या इनकी एनर्जी कम हो जाती है? ऐसी आधुनिकता पर कई प्रताप और दिग्विजय प्रताप। स्कूल में बच्चों के ये ही नाम सवाल थे उनके पास पर जवाब हँसकर टाला जाता था। नामांकित थे पर पुकार में ये बदल कर जैकी और डॉन हो गये थे।
दोपहर में बच्चे आते - खा-पीकर थोड़ा आराम करते, फिर । इस तरह अच्छा न लगना तो कितनी-कितनी बार कितनी-कितनी शाम जुट जाते पढ़ाई में। प्रताप बाबू ने जैसा कि सोचा था, चाहा घटनाओं में घटता चला जा रहा था घर में। कि बहू का यह दायित्व अपने हाथों में ले लें। यही सोच उन्होंने आप को अच्छा नहीं लगता तो न लगे, घर की हवा प्राय: यह कल बच्चों को बुलाया अपने पास।
कह कर चल देती उन्हें। मानों वह बहुत दिनों से उन्हें बिना पूछे बहती
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/९१
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