Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 250
________________ सकते हैं। इसी स्वभाव रूपी चादर के सम्बन्ध में संत कबीर चलने, ठहरने, बैठने और सोने की क्रियाओं का धरती ने कहा है के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन क्रियाओं को यदि या चादर को सुर-नर मुनि ओढ़ी विवेकपूर्वक और आवश्यकता के अनुसार सीमित नहीं ओढ़ के मैली कीनी । किया जाता तो सारे संसार की हिंसा इनमें समा जाती है। दास कबीर जतन कर ओढ़ी। दो गज जमीन की आवश्यकता के लिए पूरा विश्व ही छोटा ज्यों की त्यों धर दीनी ।। पड़ने लगता है। ये क्रियाएं फिर हमारी आंखों के दायरे से जतन की चादर बाहर होती हैं। अतः उनके लिए की गयी हिंसा, बेईमानी विश्व के चेतन, अचेतन सभी पदार्थों के आवरण से और शोषण हमें दीखता नहीं हैं, या हम उसे नजर-अंदाज देवता, मनुष्य, ज्ञानीजन सभी व्याप्त रहते हैं। पर्यावरण की कर देते हैं। अपना पाप दूसरे पर लाद देते हैं। इससे चादर उन्हें ढके रहती है, किन्तु अज्ञानी जन अपने स्वभाव पर्यावरण के सभी घटक दूषित हो जाते हैं। धरती की सारी को न जानने वाले अधार्मिक उस प्रकृति की चादर को मैली खनिज-सम्पदा हमारे ठहरने और सोने के सुख के लिए बलि कर देते हैं। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पर्यावरण को चढ़ जाती है। दूसरी महत्वपूर्ण क्रिया भोजन की है। आचार्य दूषित कर देते हैं। किन्तु कबीर जैसे स्वभाव को जानने वाले कहते हैं, यत्नपूर्वक भोजन करो। इस सूत्र में अल्प भोजन, धार्मिक संसार के सभी पदार्थों के साथ जतन (यत्नपूर्वक) शुद्ध भोजन, शाकाहार आदि सभी के गुण समाये हुए हैं। का व्यवहार करते हैं। न अपने स्वभाव को बदलने देते हैं भोजन प्राप्ति में जब तक अपना स्वयं का श्रम एवं साधन औन न ही पर्यावरण और प्रकृति के स्वभाव में हस्तक्षेप करते की शुद्धता सम्मिलित न हो तब तक वह यत्नपूर्वक भोजन हैं। प्रकृति के सन्तुलन को ज्यों का त्यों बनाये रखना ही करना नहीं कहलाता है। व्यक्ति यदि इतनी सावधानी अपने परमात्मा की प्राप्ति है। तभी साधक कह सकता है- "ज्यों भोजन में कर ले तो अतिभोजन और कुभोजन की समस्या की त्यों धर दीनी चदरिया।" अपने स्वभाव में लीन होना समाप्त हो सकती है। पौष्टिक, शाकाहारी भोजन का व्यापक ही स्वस्थ होना है। जब पर्यावरण स्वस्थ होगा तब प्राणियों का प्रचार यत्नपूर्वक भोजन दृष्टि से ही किया जा सकता है। जीवन स्वस्थ होगा। स्वस्थ जीवन ही धर्म साधना का आधार इससे कई प्रकार के स्वास्थ्य प्रदूषणों को रोका जा सकता है। अत: स्वभावरूपी धर्म पर्यावरणशोधन का मूलभूत उपाय है। यत्नपूर्वक वचन-प्रयोग करने की नीति जहाँ व्यक्ति को है। साधक है तो आत्म-साक्षात्कार रूपी धर्म विशुद्ध हित-मित और प्रिय बोलने के लिए प्रेरित करती है, वहीं पर्यावरण का साध्य है, उद्देश्य है। कबीर ने जिसे "जतन" इससे ध्वनि-प्रदूषण को रोकने में भी मदद मिल सकती है। कहा है, जैनदर्शन के चिन्तकों ने हजारों वर्ष पूर्व उसे मनोभाव एवं मानसिक प्रदूषण से वर्तमान मानव सभ्यता यत्नाचार धर्म के रूप में प्रतिपादित कर दिया था। उनका एवं प्रकृति व्यापक एवं गहन रूप से प्रभावित हुई है। मानव उद्घोष था कि संसार में चारों ओर इतने प्राणी, जीवन्त जीवन की सरलता, सज्जनता, निष्कपटता, निश्छलता, प्रकृति भरी हुई है कि मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं की परदुःखकातरता, स्वावलंबन, कर्तव्यनिष्ठा, श्रमनिष्ठा, परस्परपूर्ति करते समय उनके घात-प्रतिघात से बच नहीं सकता। सहयोग, प्राणि-मात्र के प्रति दया एवं करुणा आदि ऐसे सहज किन्तु यह प्रयत्न (जतन) तो कर सकता है कि उसके मानवीय गुण हैं जो मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठता जीवनयापन के कार्यों से कम से कम प्राणियों का घात हो। प्रदान करते हैं और जिसके संतुलन से प्रकृति-व्यवस्था संतुलित उसकी इस अहिंसक भावना से ही करोड़ों प्राणियों को एवं मर्यादित चलती रहती है। किन्तु जब इन मानवीय गुणों का जीवनदान मिल जाता है। प्रकृति का अधिकांश भाग जीवन्त ह्रास होता है या इन गुणों का प्रतिपक्षी मनोभाव मानव जीवन को बना रह सकता है। आचार्य ने कहा है आक्रान्त करते हैं तब उससे न केवल व्यक्ति किन्तु समाज भी जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सये। दुःखी होता है। इससे प्राकृतिक संतुलन भी अस्त-व्यस्त हो जय भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण वज्झई।। जाता है जैसा कि वर्तमान में मनोविकृत सामाजिक अव्यवस्था "व्यक्ति यत्न-पूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, एवं प्राकृतिक असंतुलन के दुष्परिणामों को हम अनुभूत कर रहे यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो हैं। वस्तुतः इन सब विकृतियों के लिये मानव जगत का इस प्रकार के जीवन से यह पाप-कर्म को नहीं बाँधता है।" मानसिक प्रदूषण ही उत्तरदायी है। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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