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के कारण हमारे मन में आत्मविश्वास और अभिमान की सम्पूर्ण पर्यावरण एक जीवंत इकाई है। जैन धर्म का एक ऐसी मनोदशा उत्पन्न हो गई है, जिसके कारण हमने दार्शनिक आधार यह है कि सम्पूर्ण लोकरचना में जीव तत्व प्रकृति के ज्ञान का संचय और मानवीकरण करने की बजाय की प्रमुख भूमिका है। उसी के उपग्रह से संसार का सामूहिक उसका शोषण करना प्रारंभ कर दिया है। हमारे सामाजिक जीवन स्थिर है। उसी के निमित्त से लोकरचना का सम्पूर्ण जीवन ने हमें साधन तो दिए है, पर लक्ष्य प्रदान नहीं किए। पर्यावरण जीवंत है। हमारी पीढ़ी के लोगों पर एक भयानक अंधता छा गई है। जैन धर्म का नारा है “जिओ और जीने दो"। इस इस अंधता का उपाय कौन खोजेगा? कहीं से कोई प्रकाश “जिओ और जीने दो" में पर्यावरण के जीव तत्व के प्रति किरण फूट सकती है, तो वह मनुष्य ही है। जो स्वरूप आज आदर का भाव निहित है। और पर्यावरण की जैन अवधारणा हमारे सामने है, उसी में से एक ऐसे संसार की रचना करनी में शामिल है - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, उर्जा, पेड़-पौधे, होगी, ऐसा समाज ‘गढ़ना' होगा, जो सत्य, करुणा और वनस्पतियां, हर प्रकार के कीट-पतंग, जीव-जंतु, स्वयं सृजनशीलता पर अवलंबित हो।
मनुष्य, और यहां तक कि न दिखाई देने वाली देव नारक जैन धर्म संसार का वह पहला और अब तक आखिरी धर्म योनियां भी। इस समग्र पर्यावरण का आदर, तात्पर्य, इसे है जिस ने धर्म का मूलाधार पर्यावरण-सुरक्षा को मान्य किया अपनी तरह जीने और मरने का मौलिक अधिकार की है। भगवान महावीर का सब से पहला उपदेश आचारांग में स्वीकृति, दूसरे शब्दों में, पर्यावरण-सुरक्षा, स्वयं पर्यावरण संकलित किया गया। आचारांग का पहला अध्ययन षटकाय के जीव तत्व के द्वारा, पर्यावरणीय सुख के लिए उसमें जीवों की रक्षार्थ रचा गया। महावीर ने स्पष्टतः जोर दे कर किसी प्रकार की दखलदाजी दिए बिना जैन धर्माचार की निर्देशा कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रसकाय मूल अवधारणा है। जैन पर्यावरण को मनुष्य के सुख का जीव जीव हैं, साक्षात प्राणधारी जीव। इन्हें अपने ढंग से जीने उपकरण मात्र नहीं मानते। पर्यावरण की अक्षमता का लाभ देना धर्म है, इन्हें कष्ट पहुंचाना या नष्ट करना हिंसा है, पाप है। उठाते हुए उसे अपना गुलाम बनाना, अपनी लिप्सा के लिए अहिंसा परम धर्म है और हिंसा महापाप। इन्हीं षट्काय जीवों उन का विनाश या तोड़-फोड़ करना जैनों की निगाह में घोर की संतति पुरानी शब्दावली में संसार और आधुनिक मानवीय अपराध है, जिस कारण हिंसक मनुष्य घोर नारकीय शब्दावली में पर्यावरण से अभिहित है। अपने संयत और दु:खों का बंध करता है और अपनी दु:ख-श्रृंखला को कभी सम्यक् आचरण से इस षटकायिक पर्यावरणीय संहति की न समाप्त होने वाली आयु प्रदान करता है। पर्यावरण को रक्षा करना जैन धर्म का मूलाधार है।
अपने ढंग से जीने देना, उस में कम से कम दखलंदाजी जैन धर्म ने ही सब से पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि करना पर्यावरण-सुरक्षा की स्वाभाविक गारंटी है। और वनस्पतियों को जीव कहा। त्रसकाय जीवों को तो और मितव्ययता जैन धर्म-दर्शन के व्यावहारिक पहलू की भी विचारक जीव या प्राणी मानते रहे। इधर आ कर विज्ञान रीढ़ है। मितव्ययता की परिभाषा है- विवेकसम्मत ने सर जगदीश चन्द्र बसु की खोज के आधार पर आवश्यकता की पूर्ति के लिए कम से कम वस्तुओं का वनस्पतियों को जीव मानना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु अब उपभोग। मितव्ययता की पूर्व शर्त है, वैराग्य और त्याग षट्कायों के पहले चार काय, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि को भाव, जिस से फलित होती है पर वस्तुओं की लिप्सा की जीव श्रेणी में केवल जैन ही रखते हैं और उन्हें अन्य जीवों कमी। कम हो चुकी या होती हुई लिप्साओं से परवस्तुओं की भांति अपने धर्माचार में स्थान दिए हुए हैं। इस आस्थागत की कम से कम आवश्यकताओं की अनुभूति पैदा होती है। अवधारणा के आधार पर न केवल यह पृथ्वी प्रत्युत् ब्रह्माण्ड कम होती हुई आवश्यकताओं का मापदण्ड है- वस्तुओं का की सारी पृथ्वियाँ, यथा-ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र, सम्पूर्ण कम से कम मितव्ययीय उपयोग। जीने के हर कदम पर जैन वायु मण्डल, जलाशय तथा अग्निस्रोत सब के सब एकेन्द्रिय मितव्ययता सूत्र को लागू करते हैं। जितनी कम से कम जीव है जिनके अधीन असंख्यात त्रसकाय जीवों की द्विन्द्रिय जरूरत हो उसी के मुताबिक खनिज, हवा, पानी, उर्जा, से लेकर पंचेन्द्रिय योनियाँ आश्रय लिए हुए हैं। इस प्रकार वनस्पतियां, त्रस जीवों के शरीर और उन की सेवाएं उपभोग जैन मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अथवा लोक-रचना में ली जाएं। जिस आचरण से किसी जीव के सर्वथा जीवतत्व से ओत-प्रोत है। सम्पूर्ण लोक जीवंत है। अत: प्राणहरण हो जाएं उससे बचा जाए।
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत् खण्ड/६९
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