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कषायों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जिस मनुष्य परिस्थितिवश उसके सामान को नुकसान पहुँचने लगता है तो ने करोड़ पूर्व वर्ष से कुछ कम वर्ष तक चारित्र का पालन पहले तो वह अपने सारे सामान को बचाने का प्रयास करता किया हो, ऐसे दीर्घ संयमी व्यक्ति के चारित्र को भी कषाय है किन्तु जब ऐसा कर पाना उसके लिए सहज नहीं रहता क्षण भर में नष्ट कर देते है (१४३-१४४)।
है तो वह बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट होने से बचाता है और साधुचर्या का वर्णन करते हुए कहा है कि वे साधु धन्य अल्प-मूल्य वाली वस्तुओं को नष्ट होने देता है। हैं, जो सदैव राग रहित, जिन-वचनों में लीन तथा निवृत समाधिमरण का व्रत लेने वाला साधक ही ठीक उसी कषाय वाले हैं एवं आसक्ति और ममता रहित होकर व्यापारी की तरह शरीर एवं उसमें उपस्थित सद्गुणों की रक्षा अप्रतिबद्ध विहार करने वाले, निरन्तर सदगुणों में रमण करने __ करता है। शरीर भी एक प्रकार से सांसारिक वस्तु ही है वाले तथा मोक्षमार्ग में लीन रहने वाले है (१४७-१४८)। और सामान्यतया प्रत्येक प्राणी को सबसे अधिक आसक्ति
बुद्धिमान पुरुष के लिए कहा गया है कि वह गुरू के अपने शरीर से ही होती है। बीमारी हो जाने की अवस्था में समक्ष सर्वप्रथम अपनी आलोचना और आत्मनिंदा करे, भी वह शरीर की रक्षा का भरसक प्रयास करता है किन्तु तत्पश्चात् गुरू जो प्रायश्चित् दे, उसकी स्वीकृति रूप जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि वह अपने शरीर की रक्षा "इच्छामि खमासमणो" के पाठ से गुरू को वन्दना करे। नहीं कर पाएगा तो वह शरीर के प्रति अपनी आसक्ति का
और गुरू को कहे कि - आपने मुझे निस्तारित किया त्याग करके उसमें रहने वाले सद्गुणों की ही रक्षा करता है। (१५१-१५२)।
यहाँ यह कथन करने का हमारा अभिप्राय मात्र यह है कि आगे की गाथाओं में समाधिमरण का उल्लेख करते हुए समाधिमरण के इच्छुक व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति-त्याग पर बल दिया गया है। वस्तुत: आसक्ति ही मोह का भी त्याग कर देते हैं। उनके लिए संसार के समस्त वह कारण है जो व्यक्ति को बन्धन में डालती है। जिसके वैभव, सुख-दु:ख, भोग-विलास, सोना-चाँदी, दास-दासी, कारण व्यक्ति सांसारिक मोह-माया में फँसता जाता है बन्धु-बान्धव आदि सभी कुछ आत्म-समाधि की अपेक्षा तुच्छ परिणामस्वरूप उसके कर्म बन्धन दृढ़ होते जाते हैं। यह मानव हैं। स्वभाव है कि व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं यथा- सोना-चाँदी, ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि विनय .. दास-दासी आदि भौतिक सम्पदाओं तथा स्वजन-परजन आदि गुण, आचार्य गुण, शिष्य गुण, विनय निग्रह गुण, ज्ञान गुण, के प्रति अपना ममत्व भाव रखता है और इन हेय पदार्थों को चारित्र गुण और मरण गुण विधि को सुनकर उन्हें उसी प्रकार उपादेय मान लेता है, परिणामस्वरूप वह जन्म-मरण के भव- धारण करें, जिस प्रकार वे शास्त्र में प्रतिपादित हैं। इस प्रकार चक्र में पड़ जाता है किन्तु मनुष्य की मृत्यु के समय में न तो की साधना से गर्भवास में निवास करने वाले जीवों के परिजन सहायक होते हैं और न ही नाना प्रकार की भौतिक जन्ममरण, पुनर्भव, दुर्गति और संसार में गमनागमन समाप्त सम्पदा ही उसकी सहायता कर पाती है। सम्भवत: यही कारण हो जाते हैं (१७४-१७५)। है कि प्रत्येक मतावलम्बी अपने जीवन के अन्तिम क्षण में विषय-वस्तु की दृष्टि से चन्द्रवैध्यक प्रकीर्णक एक समस्त प्रकार के क्लेषों से मुक्त होकर तथा राग-द्वेष को अध्यात्म-साधना परक प्रकीर्णक है। इसमें मुख्य रूप से छोड़कर भगवान् जिनदेव से प्रार्थना करता है कि हे भगवन्। गुरू-शिष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का एवं शिष्यों को मैं समाधिमरण के पथ पर चलना चाहता हूँ, इस दिशा में मेरा वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने वाले शिक्षा-सूत्रों का मार्गदर्शन करो तथा मुझे इतनी शक्ति प्रदान करो कि मैं संकलन है, जो इस ग्रन्थ की आध्यात्मिक महत्ता को ही स्पष्ट आसक्ति के सारे बन्धनों को काटकर बोधि प्राप्त कर सकूँ करता है। सुधिजन इन शिक्षा-सूत्रों का अध्ययन कर अपने और मानव जीवन पाने का यथार्थ लाभ प्राप्त कर सकूँ। जीवन को उन्नत-समुन्नत बनाये, यही अपेक्षा है।
समाधिमरण लेने वाले की तुलना एक कुशल व्यापारी से की जा सकती है। सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाले व्यापारी को यह कभी इष्ट नहीं होगा कि उसके सामान को किसी प्रकार से नुकसान पहुँचे। कदाचित
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत् खण्ड/६७
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