Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

Previous | Next

Page 247
________________ डॉ० प्रेमसुमन जैन स्पष्ट करते हुए कहा है कि धर्म उन्नति और उत्कर्ष को प्रदान करने वाला है "यतोअभ्युदय नि:श्रेयससिद्धिः स धर्म:'। उन्नति और उत्कर्ष का मार्ग स्पष्ट करते हुए धर्म के अन्तर्गत श्रद्धा, मैत्री, दया, सन्तोष, सत्य, क्षमा आदि सद्गुणों के विकास को भी सम्मिलित किया गया है। समग्र दृष्टि से देखें तो पर्यावरण का तात्पर्य यही है। पर्यावरण या समग्र प्रकृति एक-दूसरे का पर्याय है। केवल नदी, जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी और हवा ही पर्यावरण नहीं है। हमारे सामाजिक-आर्थिक सरोकार और हमारी सांस्कृतिक-राजनीतिक, सम-सामयिक परिस्थितियाँ भी पर्यावरण के ही फलक हैं। बेशक प्राकृतिक पर्यावरण इन सभी फलकों को सर्वाधिक प्रभावित करता है, क्योंकि विकास की धुरी में प्राकृतिक संसाधनों का ही प्रमुख स्थान है। संतुलित पर्यावरण का अर्थ जीवन और जगत् को पोषण देना है। इस धरती पर जो कुछ दृश्यमान या विद्यमान है, वह पोषित हो, पुष्ट हो-यही पर्यावरण का अभीष्ट है। और यह दायित्व चेतनाशील मनुष्य का है। पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे मनुष्य से कम पर्यावरण के साथ धर्म के सम्बन्ध को स्थापित करने के चेतनाशील हैं? यदि मनुष्य अपने क्षद्र स्वार्थ के लिए उनका लिए धर्म के उस वास्तविक स्वरूप को जानना होगा जो विनाश करता है, तो हम न तो उसे चेतनाशील कह सकते प्राणी-मात्र के लिए कल्याणकारी है। वैदिक युग के साहित्य हैं. न विवेकशील। से ज्ञात होता है कि धर्म का जन्म प्रकृति से ही हुआ है। इस असंगति ने हमारे सम्पूर्ण जीवन-क्रम को काली प्राकृतिक शक्तियों को अपने से श्रेष्ठ मानकर मानव ने उन्हें छाया से ग्रस लिया है। हमारे जीवन-क्रम में सदा एक श्रद्धा, उपहार एवं पूजा देना प्रारम्भ किया। वहीं से वह सुसंगति, समात्मता और समादर रहा है, जो आज विकास आत्म-शक्ति को पहिचानने के प्रयत्न में लगा। प्रकृति, के नाम पर पैरों तेल रौंदा जा रहा है, जिससे विद्वेष-घणा शरीर, आत्मा एवं परमात्मा इस क्रमिक ज्ञान से धर्म का पनपने लगी है। हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण पर स्वरूप विकसित हुआ। भारतीय परम्परा में धर्म आसुरी-वृत्तियों का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह दशा यंत्र जीवन-यापन की एक प्रणाली है, केवल बौद्धिक विलास और विज्ञान के उपजे लोभ के फल-स्वरूप है। सही अर्थों नहीं है। अत: जीवन का धारक होना धर्म की पहली कसौटी से सोचा जाए तो यंत्र और विज्ञान लोभ के साधन नहीं होने है। चूँकि जीवन एवं प्राण सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी में भी चाहिए, पर ऐसा है कहाँ ? विद्यमान है। अत: उन सबकी रक्षा करने वाली जो प्रवृत्ति है, डॉ० राधाकृष्णन कहते हैं - यदि हम एक-दूसरे के प्रति वही धर्म है। महाभारत के कर्णपर्व में कहा गया है कि दयालु नहीं हैं और यदि पृथ्वी पर शान्ति स्थापित करने के समस्त प्रजा का जिससे संरक्षण हो, वह धर्म है। यह प्रजा पूरे हमारे सब प्रयत्न असफल रहे हैं. तो उसका कारण यह है विश्व में प्याप्त है। अत: विश्व को जो धारणा करता है, कि मनुष्यों के मनों और हृदयों में दुष्टता, स्वार्थ और द्वेष से उसके अस्तित्व को सुरक्षित करने में सहायक है, वह धर्म भरी अनेक रुकावटें हैं. जिनका हमारी जीवन प्रणाली कोई रोकथाम नहीं कर पाती। यदि हम आज जीवन द्वारा "धरति विश्वं इति धर्म:'' महाभारत की यह उक्ति तिरस्कत हैं. तो इसका कारण कोई दृष्ट भाग्य नहीं है। जीवन बडी सार्थक है। महर्षि कणाद ने धर्म के विधायक स्वरूप को के भौतिक उपकरणों को पर्ण कर लेने में हमारी सफलता विद्वत् खण्ड/६८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326