Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 260
________________ ओंकार श्री दृष्टि नहीं तो सृष्टि का साक्षात् नहीं। रूढ़ अर्थों से मुक्त, शिक्षा तो सार्वभौम सीख का नाम है। सीख सत्य की। अहिंसा की। अपरिग्रह की। सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की। सीख यही तो है हमारे धर्मअर्थ-काम-मोक्ष के साधक संसार की। सतत शिक्षा की ढोल पिटाई में हम गर्व से स्मरण रखें सदैव कि संसार में जैन समाज ही एकमात्र ऐसा सामाजिक संघटक है जिसके अनुयायियों के घर-घर में सतत शिक्षा स्वरूप स्वाध्याय-यज्ञ चेतता आया है मनवन्तरों से। ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा स्वरूप सामायिक की साधना ने विश्व को दी है हमारे मनीषियों की आगम दृष्टि। आगम दृष्टि साफ-सुथरी। एकदम स्वच्छ नितरी हुई हमें भीतर से झकझोरती हुई सदा सावचेत रखती है- स्थानांग सूत्र के अष्टम स्थान उत्थान पद पीठिका से “अभी तक नहीं सुने हुए श्रेष्ठ धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहो. सुने हुए धर्म पर आचरण करने को तत्पर रहो, अशिक्षितों को शिक्षित करने में तत्पर रहो। यदि अपने सहधर्मी, साथियों में किसी कारण मतभेद, कलह, विग्रह आदि खड़ा हो तो उसे शान्त कर परस्पर सद्भाव बढ़ाने में तत्पर रहो।" यह उपदेश भर नहीं। कोई आदेश नहीं। यह तो मानवता की सीख है - सीख स्व के अध्ययन की। मात्र साक्षरता की नहीं। यह सीख है शिक्षा की। पढ़ो और पढ़ाओ की सीख। शिक्षा की इस सृष्टि से पृथक क्या होगा। राष्ट्र जागरण लोक शिक्षा अभियान का यह आगम। शुभागम। आह्वान ! सुनो उत्तराध्ययन के शाश्वत स्वर सन् १९९३ : अक्षय तृतीया दिवस। जवाहर भवन बीकानेर गंगाशहर। आचार्य नानेश प्रणीत सिद्धान्त शाला का नवार्पण। आचार्य श्री की आज्ञा से मैंने विनम्रत: संभाला शाला-प्रबोधक का दायित्व। गुरूवाणी गूंजी - अंत:कक्ष में मुझे प्रबोधित करती हुई नीयावत्ती अचवले, अम्माई अकुतूहले, मित्तिज्जमाणो भयइ सुयं, लहंन मज्जई। न य पाव परिक्ख खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई, अप्पियस्सवि मितस्स रहे, कल्लाण भासई। कलह उभर वज्जिए, बुद्धेय अभिजाइए, हिरिमं पडिसंह लीणे, सविणी एत्ति वच्चई। ___ उत्तराध्ययन-११वाँ सूत्र-बहुश्रुत पूजा अर्थात् जो नम्र है। अचपल है। अस्थिर नहीं। दम्भी नहीं। तमासबीन नहीं। अनिदंक है जो। दीर्घ काल-क्रोधी नहीं। मित्र-कृतज्ञ है जो। अनहंकारी ज्ञानी है। मित्रों पर क्रोध नहीं करता है जो। वाक् कलही नहीं। मार-वार नहीं करता। ..... जो कुलीन है, लज्जाशील है, व्यर्थ चेष्टा नहीं करता। वह बुद्धिमान मान-ध्यान लीन रहता है। गुरूदेव ने इस प्रबोधन की कड़ी में सिद्धान्तशाला के साधु-साध्वी वृन्द को दी शाश्वत शिक्षा की जैन दृष्टि की दुर्लभ सीख आठ गुणों वाले शिक्षाशील की - गूंजी गुरूवाणी - अह अट्ठहिं ठाणेहि सिक्खा सीलेते वुच्चई। अहस्सिरे सयादन्ते न य मम्मुक्षाहरे ।। णा सीले ण वसीले, ण सिया अइलोलुए। अक्का हणे सच्चरए सिक्खा सीलेत्ति वुच्चई ।। । अर्थात्- जो हंसी ठठ्ठा नहीं करता। दान्त शान्त रहता है। जो किसी के पोत नहीं उघाड़ता। जो आचरणहीन नहीं होता। अदोषीअकलंकी जो होता है, वह अक्रोधी। वह सत्यानुरक्त अष्टगुणी शिक्षाशील होता है। यह गौरवागम सीख हर श्रावक को, शिक्षक को, शिष्य को, शाला शासक को, ज्ञानानुशासक को। गुणे सो गणे। समझ तो मेहनत देगी महात्मा गाँधी - संत विनोबा - आइन्स्टाइन सबके सब मनीषियों की युगवाणी गुंजा गए समवेत स्वरों में साधनाशील विज्ञानशिक्षक स्वाध्यायी जैन विभूति डॉ० डी०एस० कोठारी - "ज्ञान तो पाया शिष्यों ने गुरुवाणी से। समझ? पर समझ तो देगी मेहनत।" अब शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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