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7 एलेन गुडमैन
तभी उसका १३ वर्षीय बेटा बल्लेबाजी के लिए सामने आता है। हफ्तों, महीनों का वक्त लगा कर उसने इस खेल पर अधिकार भी पा लिया है और बढ़िया खिलाड़ी बन गया है वह...उसकी कलाइयाँ, उसके खड़े होने के ढंग और उसकी आँखें भी यही जताती हैं। लगता है उसके शरीर का अंग अंग आज किसी अंतिम परीक्षा की तैयारी में क्रियाशील रहा है। वह बल्ला घुमा कर शानदार प्रदर्शन भी करता है-पहले बेस से दूसरे बेस में पहुँच जाने का।।
पिता इस खेल को ठीक उसी तरह देख रहा है जैसे कि माँबाप देखा करते हैं। एक क्षण गौरव की अनुभूति होती है, तो दूसरे ही क्षण छिद्रान्वेषण शुरू हो जाता है। फिर अभिभावक होने का मतलब ही होता है अतिशय अपेक्षाएँ। परंतु आज उसकी अनुभूति एक भिन्न प्रकार की है-कहीं विस्मय व उत्कंठा का मिश्रण है तो कहीं स्नेह व विछोह के बीच का भी।
छोटी-छोटी बातें याद आ रही हैं। स्कूल से मिलने वाले गृहकार्य का स्वरूप भी अब बदलता जा रहा है। लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर छोटी मेज बना कर लाने की जगह अब लकड़ी के
शमादान का महीन काम मिलने लगा है। मोमी रंग के चित्रों का पिता की छाया में
स्थान अब नागरिक शास्त्र का लंबा चौड़ा परचा ले चुका है। [हर पिता को लगता है कि उसके बेटे उसी राह चलें जिस
उसका कहना है कि वह भी शायद एक प्रकार की पर वह चला है, हर बात को इस तरह सीखें जैसे आज तक किशोरावस्था के दौर से गुजर रहा है। अपने बच्चों को लेकर किसी ने नहीं सीखा है।]
संभवत: माँ-बाप को उस दौर से दोबारा गुजरना ही पड़ता है जबकि बच्चे बड़े होते जा रहे हैं उसके। जब यह अपने आप में कोई एक ओर तो बच्चों के फूलते-फलते रहने की सुखद अनुभूति होती खास खबर भी नहीं, फिर भी पास वाली बेंच पर बैठी महिला को है और दूसरी ओर अपनी छाँव से उनके निकल चलने की व्यथा यही बताता है वह। यही तो करते हैं बच्चे। उनके साथ यही तो भी सालती है। लगा रहता है।
ये दोनों स्त्री और पुरुष बातें कर ही रहे होते हैं कि टीमें अपनाइसके बावजूद बेसबाल के मैदान पर नजरें गड़ाए वह यही अपना स्थान बदल लेती हैं। बाप का तेरह वर्षीय बेटा लपक कर कहता है। उसका खयाल था कि बच्चे धीरे-धीरे बड़े होते जाएँगे। खेल का दस्ताना उठा लेता है और तीसरे बेस की ओर बढ़ जाता परंतु इसके विपरीत वे धचकते से एक से दूसरी उम्र की दूरी तय है, तभी कोई जोर की हिट लगाता है, बाल जमीन को छूती हुई किए जा रहे हैं। बड़े को ही लो, विचित्र ढंग से गाड़ी बदलता है उसके समानांतर उठती है और बेटे के हाथ में आकर भी उस से तो कैसी दहलाने वाली आवाज होती है।
छूट जाती है। उसे याद है, बड़ा कुल तीन बरस का था और नर्सरी स्कूल पिता क्षण भर को अपनी सीट से उचकता है, फिर बैठ जाता जाता था। एक बार वह डैडी की उंगली पकड़े स्कूल जा रहा था है। वह महिला को बताता है : दो साल पहले यही नौबत आई होती तो उसने किसी को राह चलते हुए हेलो कहा। आखिर यह कैसे तो इसके आँसू निकल जाते, पर अब यह जल्दी ही संयत हो जाता संभव है कि बेटा किसी से परिचित हो और बाप नहीं। तब भी उसे है। महिला कहती : दो साल पहले तो आप भी उसे बार-बार ऐसे स्वतंत्रता की उस बिजली का हलका झटका महसूस हुआ था। खेलो, वैसे खेलो कह रहे होते; पर आज देखिये तो कैसे चुपचाप
अब लड़कों की जीवनधारा बदल रही है। बड़े को कार चलाने बैठे उसका खेल देख रहे हैं। का लाइसेंस मिलने जा रहा है और सबसे छोटा भी माध्यमिक स्कूल हामी भरते हुए वह बोल उठता है, हम दोनों ही बड़े होते जा में दाखिले की ओर अग्रसर है।
रहे हैं। कभी यही पुरुष सोचता था कि पितृत्व के बारे में वह बहुत
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/७९
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