Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 229
________________ जयसिंह सिद्धराज और उसकी मुद्राएँ 7 इन्द्रकुमार कठोतिया जयसिंह के नाना जयकेशी कोंकण के राजा थे जिसकी राजधानी आधुनिक गोवा थी। जयसिंह की माँ एक महान स्त्री थी। जयसिंह के आरम्भिक जीवन को सँवारने का पूर्ण श्रेय उन्हीं को जाता है। राजा कर्ण की मृत्यु के उपरान्त मायानल्ला देवी ने मंत्री शांतु की निगरानी में जयसिंह को शस्त्र विद्या की शिक्षा दिलवायी।३ मायानल्ला देवी ने एक दीर्घ जीवन जीया और अपने पुत्र की उदीयमान जीवन-यात्रा को निकटता से देखा। हेमचन्द्राचार्य अपने 'देव्याश्रय काव्य' में लिखते हैं कि जयसिंह बढ़ती उम्र के साथ युद्ध-कला एवं शासन-व्यवस्था में निपुण होता गया। हाथियों तक को वश में कर लेने की कला भी वो जानने लगा था। तरुण अवस्था को प्राप्त करते ही उसका राज्याभिषेक कर दिया गया। यह औपचारिकता वि० सं० ११५० पौष मास में सम्पन्न की गई। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार उसका राज्यकाल उनचास वर्ष (वि० सं० ११५० से ११९९ तद्नुसार १०९४ से ११४३ ई०) था।' 'विचार श्रेणी' भी इसी तथ्य का प्रतिपादन करती है परन्तु 'आइने अकबरी' के अनुसार जयसिंह ने पचास वर्षों तक जैन धर्म से अनुप्रेरित शासक : राज्य किया। इस उल्लेख का अनुमोदन वि० सं० १२०० (११४४ ई०) के बाली पाषाण शिलालेख से भी होता है। ___ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार 'कर्ण' जयसिंह का महान जैन धर्म से प्रभावित होकर न जाने कितने ही भारतीय राज्याभिषेक करके 'आशापल्लि' के विजय-अभियान के निमित्त नरेशों ने या तो जैन धर्म को अंगीकार किया अथवा उसके प्रचार चला गया और विजयोपरान्त वहीं पर कर्णावटी नामक नगरी बसा प्रसार और उत्थान में अपना महनीय योगदान दिया। अनहिलपाटण । कर स्वयं राज्य करने लगा। अथवा अनहिलवाद या अनहिलपुरा (गुजरात) के चालूक्यवंशीय जयसिंह जब राज्यारूढ़ हुआ तब अनहिलपाटण की राजनैतिक (सोलंकी) जयसिंह सिद्धराज (विक्रम संवत् ११५०-११९९ और भौगोलिक स्थिति उतनी सुदृढ़ नहीं थी। उसके पूर्वज मूलराज तदनुसार ई० सन् १०९४-११४४) उन्हीं राजाओं में से एक था। से लेकर भीम तक - शाकंभरी, सिंध, नाडूला, मालवा, सौराष्ट्र, ___ गुजरात के चालूक्यवंशीय राजाओं के लगभग साढ़े तीन सौ लाट, कच्छ और अबूंद मंडल के नरेशों से युद्ध करते रहे थे परन्तु वर्षों के इतिहास में (९६१-१३४० ई०) जैनधर्म एवं तत्सम्बन्धी ___ अन्तिम तीन क्षेत्र ही उनके अधिपत्य में आ पाए। साहित्य का अविच्छिन्न एवं द्रुत गति से विकास हुआ। जैन लेखक जयसिंह बड़ा ही जीवट का योद्धा था। उसने जो कुछ भी अपने राजघरानों एवं प्रशासन से जुड़े रहे जिसमें उनके द्वारा रचित साहित्य पूर्वजों से प्राप्त किया उसको विस्तृत करते हुए एक विशाल से हमें तत्कालीन परिस्थितियों, घटनाओं एवं राजनैतिक वातावरण साम्राज्य की स्थापना की और गुजरात की कीर्ति को चहुँ ओर का अविकल एवं अक्षरस: ज्ञान प्राप्त होता है। मूलराजा से लेकर फैलाया। कई जैन सूत्रों से हमें विदीत होता है कि जयसिंह गुजरात अन्तिम राजा तक इस राजघराने की राजधानी अनहिलपताका साम्राज्य का 'सांभर' से कोंकण सीमा रेखा तक निर्विवाद राजा बन अथवा अनहिलपुरा या अनहिलपाटण ही बनी रही। गया था। उसके साम्राज्य में आधुनिक गुजरात - लाट, सौराष्ट्र, जयसिंह कर्ण एवं मायानल्लादेवी का पुत्र था। मायानल्ला कच्छ सहित राजस्थान के कुछ भूभाग, मालवा एवं मध्य भारत चंद्रपुर के कदंब राजा जयकेशी की पुत्री थी।२ "प्रबंध चिंतामणि' निहित थे। के अनुसार यह जयकेशी 'शुभकेशी' का पुत्र था जो कर्णाटक का जयसिंह का सर्वप्रथम महत्वपूर्ण कार्य 'मालवा विजय' के साथ राजा था। हमें यह ज्ञात है कि शुभकेशी गोवा के कदंब राजघराने आरम्भ हुआ। कहते हैं जयसिंह के आरम्भिक राज्यत्वकाल में का तीसरा अधिष्ठाता शष्ठदेव था। ऐसा समझा जाता है कि परमार नरेश नरवर्मन ने अनहिल पाटण पर चढ़ाई कर दी थी। यह पर विद्वत खण्ड/५० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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