Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

Previous | Next

Page 239
________________ अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी विजय का अधिकार है क्योंकि कषाय-लोक पर विजय प्राप्त करने या नहीं? मैं पूर्व जनम में कौन था? और मृत्यु के उपरान्त किस रूप वाला साधक काम-निवृत्त हो जाता है।२१ और काम निवृत्त साधक, में होऊँगा?१४ यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्वप्रथम उठाया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि- संसार का मल-आसक्ति है। अर्थात मनुष्य के लिए मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। जो गुण (इन्द्रिय-विषय है) वह (कषायरूप संसार का) मूल स्थान धार्मिक और नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्व बोध या है और जो मूलस्थान है, वह गुण है। २२ मेरेपन (ममत्व) में आसक्त स्वरूप बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन दृष्टि क्या और कैसी हुआ मनुष्य प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है। वह रात-दिन होगी? यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने परितप्त एवं तृष्णा से व्याकुल रहता है। २३ सूत्रकार कहते हैं कि अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्व-स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या हे पुरुष! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है। २४ यहाँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई है। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है सूत्रकार ने प्रमाद परिमार्जन की बात कही है। लोभ पर विजय प्राप्त कि- जो इस 'अस्तित्व' या 'स्व-सत्ता' को जान लेता है वही करने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि जो विषयों के दलदल से आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है।१५ जब पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं।२५ आचारांग की समता तक व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं पहचानता, स्व-स्वरूप का मान नहीं समस्त प्राणियों को सुख से जीने का संदेश देती है। सूत्रकार कहते करता, तब तक समता की ओर नहीं बढ़ पाता। जब व्यक्ति को स्व- हैं कि सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते स्वरूप व इसकी सत्ता का भान हो जाता है, तभी वह समता की ओर हैं। दुःख से घबराते हैं। उनको वध (मृत्यु) अप्रिय है, जीवन प्रिय बढ़ता है। व्यक्ति को जब इस 'स्व' और 'पर' भाव की स्वाभाविक है। वे जीवित रहना चाहते हैं। सबको जीवन प्रिय है।२६ और वैभाविक दशा का यथार्थ श्रद्धान हो जाता है, तो वह सम्यक्त्व समता का लक्ष्य दृष्टाभाव को जागृत करना है। सूत्रकार कहते सामायिक (समता) करता है। जब 'स्व' और 'पर' का वास्तविक हैं कि जो द्रष्टा है (सत्यदर्शी), उसके लिए उपदेश की आवश्यकता ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो श्रुत सामायिक (समता) करता है और जब नहीं होती।२७ समताभाव के लिए आसक्ति को दूर करने का प्रयत्न 'पर' भाव से 'स्व-भाव' की ओर लौटता है तो चारित्र सामायिक किया जाता है। आचारांग में आसक्ति को शल्य कहा है। हे धीर (समता) करता है।१६ पुरुष! तू आशा और स्वच्छन्दता करने का त्याग कर दे।२८ समता आचारांग सूत्र में स्थान-स्थान पर स्व-स्वरूप का भान करवाया का लक्ष्य एकीभाव है, आत्मा में लीन हो जाना है। सूत्रकार कहते गया है तथा समत्ववृत्ति का उपदेश किया गया है। आचारांग की हैं कि जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य (आत्मा) में अहिंसा समतामय है। आश्रव-संवर का बोध कराते हुए सूत्रकार रमण करता है। जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है, वह अनन्य कहता है कि आत्मवादी मनुष्य यह जानता है कि मैने क्रिया की थी। (आत्मा) को देखता है। २८ आगे कहा है कि जो आत्मा को जान मैं क्रिया करता हूँ। मैं क्रिया करने वाले का भी अनुमोदन करूँगा। लेता है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। अर्थात् संसार में ये सब क्रियाएँ (कर्म-समारंभ) जानने तथा त्यागने योग्य द्रष्टा के लिए (सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वालों के लिए) कोई हैं।१७ इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि तू देख। आत्मसाधक उद्देश (उपदेश) नहीं है।२९। (समतादर्शी) लज्जमान है। इन षट् जीव निकायों की हिंसा नहीं आचारांग में भ० महावीर कहते हैं कि इस संसार में व्याप्त करता।१८ अणगार का लक्षण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि आतंक और महाभय जिस व्यक्ति ने देख और समझ लिया है वही अहिंसा में आस्था रखने वाला अर्थात् समता में स्थित साधक यह हिंसा से निवृत्त होने में सफल हो सकता है।३० आतुर लोग स्थानसंकल्प करे कि प्रत्येक जीव अभय चाहता है, यह जानकर जो - स्थान पर परिताप पहुंचाते हैं वहीं दूसरी ओर देखो तो साधुजन हिंसा नहीं करता, वही व्रती है। इस अर्हत् शासन में जो व्रती है, समता का जीवन जीते हैं।३१ ऐसे शांत और धीर व्यक्ति देहासक्ति वही अणगार कहलाता है।१९ आचारांग की साधना समता की से मुक्त हो जाते हैं। ३२ इसलिए महावीर कहते हैं कि हे पंडित! साधना है। भावलोक में विचरण करने की साधना है। सूत्रकार तू क्षण को जान। ३३ सूत्रकार कहते हैं कि धैर्यवान पुरुषों को भावलोक के सम्बन्ध में कहते हैं कि भावलोक का अर्थ क्रोध, अवसर की समीक्षा करनी चाहिए और क्षण भर भी प्रमाद नहीं मान, माया और लोभ रूपी समूह है। २०. यहाँ उस भावलोक की करना चाहिए।३४ वास्तव में जिस व्यक्ति ने क्षण को पहचान लिया विद्वत खण्ड/६० शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326