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न हो, जिसकी दृष्टि संकीर्ण न हो, जिसकी दृष्टि के सामने सारा प्रवचन करना। सभी ऋषियों ने अपनी सहमति ज्ञापित करते हुए विश्व हो। विश्व मानवता को स्वीकार करते हुए अपने देश की कहा, हाँ वही तप है, वही तप है। यही अच्छे शिक्षक का धर्म है। राष्ट्रीयता, अपने देश का सर्वतोमुखी विकास करने के लिए अपने स्वाध्याय जितना उत्तम होगा प्रवचन उतना उत्कृष्ट होगा। इसलिए को समर्पित करने की दृष्टि हममें कैसे विकसित हो यही हमारे तैत्तिरीय उपनिषद ने आदेश दिया 'स्वाध्यायन्मा प्रमदः', स्वाध्याय से अध्यापकों के, हमारे विद्यार्थियों के, हमारे शोधार्थियों के चिन्तन का यानी अच्छे ग्रन्थों के निरन्तर अनुशीलन से कभी प्रमाद मत करना। विषय होना चाहिए और इस दिशा में हमको अग्रसर होना चाहिए। जो भी अध्यापक होगा वह अगर तपस्या करना चाहता है तो उसको
मैं यह जानता हूँ कि अपने कार्य के प्रति गौरव-बोध हमें किसी निरन्तर स्वाध्याय करना होगा और जितना अधिक स्वाध्याय वह कर काम को भली-भाँति सम्पन्न करने की प्रेरणा देता है। जब हम सकेगा उसका प्रवचन उतना प्रामाणिक होगा। कालिदास ने शिक्षकों जगद्गुरु थे तो हमने अध्ययन-अध्यापन के कार्य को किस रूप में की एक अद्भुत श्रृंखला बताई है कि बड़ा शिक्षक कौन है, धुरि- . देखा था। उस समय की स्थिति यह थी कि हमने इस कार्य को प्रतिष्ठा का अधिकारी शिक्षक कौन है। उन्होंने कहा : तपस्या के रूप में देखा था। हमारी मान्यता थी : 'छात्राणां अध्ययन
श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था, तपः', यह कथन इस बात को साबित करता है कि अध्ययन
संक्रान्तिरन्यस्य विशेष युक्ता । अध्यापन को हमने उच्चतर भूमिका पर प्रतिष्ठापित करने की चेष्टा
यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, की थी। हमारी दृष्टि केवल अर्थकारी विद्या प्राप्त करने की नहीं थी।
धुरिप्रतिष्ठापयितव्य एव ।। हमारा तत्कालीन अध्यापक सगौरव कहता था :
__ अर्थात् कुछ विद्वान होते हैं जो ज्ञान तो बहुत अर्जित कर लेते नाहं विद्या-विक्रयं शासनशतेनापि करोमि ।
हैं लेकिन ज्ञान का संक्रमण करने में, अपने विद्यार्थियों को ज्ञान दे सैकड़ों शासन का अधिकार प्राप्त होने पर भी मैं विद्या-विक्रय पाने में वे कुशल नहीं होते। संक्रान्ति की विद्या से वे रहित होते हैं। नहीं करूंगा। यह दृष्टि हमारे अध्यापकों की दृष्टि थी। अच्छा कुछ विद्वान होते हैं जो संक्रमण में जो बहुत कुशल होते हैं, जितना अध्यापक कौन होता है? अच्छा अध्यापक वही होता है जो जानते हैं उतना दूसरों को सिखा देते हैं लेकिन वे जानते ही कम आजीवन छात्र रहे। जब तक साँस चलती रहे तब तक सीखने की हैं। . प्रवृत्ति अगर बनी रहेगी तब तक अच्छे अध्यापक हो सकेंगे। ये दोनों प्रकार के विद्वान धुरिप्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं है। आधुनिक युग के महान् उपदेशक, महान् गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस
यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, देव ने कहा था, 'जतो दिन बाँची ततो दिन शीखी' (जितने दिन
धुरिप्रतिष्ठापयित्य एव ।। जीऊँगा उतने दिन सीखूगा)। यह लगातार जो सीखते रहने की जिसमें ये दोनों गुण हों अर्थात् वह स्वयं ज्ञानी भी हो, और ज्ञान परम्परा है, यह परम्परा विद्या के क्षेत्र को उन्नत मान देती है। कैसे के संक्रमण की कला में भी कुशल हो वही विद्वान धुरिप्रतिष्ठा का, हम विद्या को प्राप्त करें? शिक्षा का मतलब क्या होता है? 'शिक्षा वास्तविक प्रतिष्ठा का अधिकारी होता है। हमारे देश में धुरिप्रतिष्ठा विद्योपादाने', शिक्षा का मतलब होता है विद्या देने की प्रक्रिया। के अधिकारी विद्वान थे, वे जब भिक्षा देते थे, तब हमारे विद्यार्थी 'शिक्षते उपदीयते विद्या यया सा शिक्षा', शिक्षा वह जिससे विद्या आगे बढ़ते थे। आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे धुरिप्रतिष्ठा के प्रदान की जाती है। हमारे देश में विद्या के दो भाग किए गए हैं एक अधिकारी विद्वान हैं लेकिन मेरी अपेक्षा है कि हममें से प्रत्येक पराविद्या, एक अपराविद्या। पराविद्या का मतलब है परमात्म विद्या, शिक्षक इस धुरिप्रतिष्ठा को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो। अध्यात्म विद्या और अपराविद्या माने लौकिक विषयों की विद्या। इन। शिक्षक का यही आदर्श था। आज यह बात आश्चर्यजनक लग दोनों प्रकार की विद्यायों के अर्जन को तपस्या की संज्ञा दी गई है। सकती है, लेकिन हमारे देश का आदर्श शिक्षक डंके की चोट पर एक बार ऋषियों से एक प्रश्न पूछा गया कि सबसे बड़ा तप कौन- अपने विद्यार्थियों से कहता था : सा है? ऋषियों में एक नाकोमौद्गल्य ऋषि थे, उन्होंने कहा :
यान्यस्माकं सुचरितानि स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाकोमौद्गल्य:
तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि । तद्धितपस् तद्धितप: तद्धितपस् तद्धितपः ।।
हमारे देश का शिक्षक कहता था कि 'जो हमारा सुचरित है, विभिन्न ऋषियों ने अलग-अलग तप बताए, लेकिन विद्यार्थियों! केवल उस सुचरित का तुम अनुगमन करना। जो नाकोमौद्गल्य ने कहा कि सबसे बड़ा तप है स्वाध्याय करना और सुचरित से भिन्न है उसका अनुगमन मत करना।' हमारे देश के
विद्वत खण्ड/२४
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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