Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 201
________________ परीषह वगैरह से योग और प्रमाद आश्रव रुकता है। इस प्रकार संवर ७. अरति-प्रतिकूलता आने पर भी विचलित न होना। किन्तु से आश्रव का निरोध होता है। भावी कर्म-विपाक का विचार कर, 'प्रतिकूलता को सहन कर लेने में ५ समिति महान् लाभ है' यह सोचकर प्रतिकूलता को समभाव पूर्वक सहन प्रभु महावीर ने 'जयं चरे, जयं चिढे' (यतनापूर्वक चलो...यतना। कहना। पूर्वक बैठो...) के माध्यम से साधु को प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक ८.स्त्रीपरिषह-स्त्री को देखकर मन को विचलित न होने देना। करने का उपदेश दिया है। अत: विवेक एवं ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति करना ९. चर्यापरिषह-गाँव-गाँव विचरण करते हुए रास्ते में काँटेही 'समिति' है। कांकरे, खड्डे आदि से होने वाले कष्ट को सम्यक् सहन करना। १. इर्यासमिति-जीवदया का ध्यान रखते हुए उपयोग पूर्वक १०. निषद्या परिषह-श्मशानादि में कायोत्सर्ग आदि करते हुए चलना। यदि देव मानव सम्बन्धी उपद्रव हों तो उसे समतापूर्वक सहन करना। २. भाषासमिति-हित, मित, सत्य एवं प्रिय वाणी ११. शय्या परिषह-ऊँचे-नीचे आँगनवाला, धूलवाला, सर्दीउपयोगपूर्वक बोलना। गर्मी के लिये प्रतिकूल उपाश्रय मिले फिर भी आकुल-व्याकुल न ३. एषणा समिति-विवेक-पूर्वक निरीक्षण कर, निर्दोष होना। आहार-पानी, वस्त्रादि ग्रहण करना। १२-१३ आक्रोश-वध-तिरस्कार करने, कटु शब्द बोलने ४. आदान-निक्षेपणा समिति-जीवदया का उपयोग रखते हुए अथवा प्रहार करने पर भी शान्त रहना। वस्त्र पात्रादि को विवेकपूर्वक रखना एवं उठाना। १४. याचना-संयम के लिये उपयोगी वस्तु की याचना करते ५. परिष्ठापनिका समिति-मल-मूत्र आदि को निर्जीव स्थान हुए शर्म या दीनता न होना। पर विवेकपूर्वक विसर्जन करना। १५. अलाभ-उपयोगी वस्तु माँगने पर भी यदि गृहस्थ न दे तो ३ गुप्ति भी मन में रोष या शोक नहीं करना। किन्तु अपने अन्तराय कर्म का गुप्ति का अर्थ है गोपन करना...संयमन करना..नियमन करना। उदय है, ऐसा सोचकर शान्त रहना। १. मनोगुप्ति-अशुभ विचारों से मन को रोकना अर्थात् १६-१७-१८. रोग-तृणस्पर्श-मल-परीषह-रोग तृणादि के आर्तध्यान, रौद्रध्यान न करना। धर्मध्यान, शुक्लध्यान में मन को कठिन स्पर्श एवं मैल आने पर खेद न करना। जोड़ना। १९. सत्कार-सत्कार-सम्मान मिले तो खुश न होना, न मिले २. वचनगुप्ति-दुषित वचन न बोलना। निर्दोषवचन भी बिना तो नाराज न होना। कारण नहीं बोलना। २०-२१. प्रज्ञा-अज्ञान-अच्छी प्रज्ञा हो तो गर्व न करना। ज्ञान ३. कायगुप्ति-शारीरिक अशुभ प्रवृत्ति से बचना। निष्कारण न आवे तो दीनता नहीं लाना। शारीरिक क्रिया को रोकना। २२. सम्यक्त्वपरीषह-अन्य धर्मों के मन्त्र-तन्त्र चमत्कार १०. यतिधर्म :- (१) क्षमा (सहिष्णुता) (२) नम्रता (लघुता) आदि को देखकर वीतराग-प्ररूपित धर्म से विचलित न होना किन्तु (३) सरलता (४) निर्लोभता (५) तप (बाह्यअभ्यन्तर) (६) संयम जैनधर्म में स्थिर रहना। (प्राणिदया व इन्द्रियनिग्रह) (७) सत्य (निरवद्य भाषा) (८) शोच (मानसिक पवित्रता) (९) अपरिग्रह किसी पर भी ममत्त्व न रखना (१०) ब्रह्मचर्य पूर्णरूप से पालन करना। २२. परीषह- भूख-प्यास आदि से जन्य कष्ट को कर्म निर्जरा एवं संयम की दृढ़ता के लिये समतापूर्वक सहन करना परीषह है। १-५ = भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी एवं मच्छर आदि से जन्य कष्ट को कर्मक्षय में सहायक व सत्ववर्धक मानकर समतापूर्वक सहन करना। ६. अचेलक = जीर्ण-शीर्ण, मल मलिन वस्त्र हो तो भी मन में खेद न करना। अच्छे वस्त्र की चाह न करना। विद्वत खण्ड/२२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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