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1 डॉ० शिवनाथ पाण्डेय
यह कहना गलत नहीं होगा कि आज समाज में वही व्यक्ति सम्मान का अधिकारी है, जो भौतिक सुख-सुविधा के साधनों से संपन्न है। इस आधार पर समाज में अपने को प्रतिष्ठित करने की दौड़ में यदि आज का शिक्षक भी शामिल है, तो व्यावहारिक दृष्टि से उसे गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग है, जो इस भावना से वंचित है। किंतु साथ ही इस तथ्य से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि इस दिशा में हमारी एक मर्यादित सीमा होनी चाहिए। युग-युग से सम्मानित शिक्षक-समुदाय की मर्यादा को अर्थ-संग्रह की अंध-दौड़ ने आज किन कारणों से इस स्थिति में पहुँचा दिया, यह एक विचारणीय विषय है, जिसे सामयिक संदर्भो से जोड़कर ही देखना उचित है।
भारतीय समाज व्यवस्था के नीव-निर्माण में दो क्षेत्रों को व्यावसायिकता से बिल्कुल दूर सेवा-पक्ष के अंतर्गत रखा गयाएक शिक्षा एवं दूसरी निकित्सा। किंतु बाजारवाद के दबाव में आज व्यवसाय-जगत का सबसे फायदेमंद एवं सहज साधन है, इन क्षेत्रों से जुड़े क्रमशः प्राइवेट स्कूल एवं नर्सिंग होम खोलना। प्राय: हर
क्षेत्र में आज निजीकरण की प्रक्रिया भी इसी दबाव का प्रतिफलन बदलते परिवेश में शिक्षा और शिक्षक
है। भविष्य में सरकारी विद्यालयों का भी उद्योगपतियों की संपत्ति के . मनुष्य का चरित्र-निर्माण करनेवाली शिक्षा का आज प्रमुख
___ रूप में बदल जाना बिल्कुल असंभव नहीं कहा जा सकता। उद्देश्य है. अर्थोपार्जन। वर्तमान अर्थ-प्रधान-परिवेश में इसे बिल्कुल सरकारी शिक्षण-संस्थानों में भी ठीका के आधार पर नियक्तियों का गलत भी नहीं कहा जा सकता। किंतु यदि अर्थोपार्जन ही शिक्षा का मन बना चुकी सरकारों की नियत आज साफ हो चुकी है। इस क्रम एकमात्र उद्देश्य हो जाय तो निश्चित रूप से यह एक चिंता का विषय में शिक्षा के राजनीतिकरण ने और भी कई समस्याएँ पैदा की हैं। बन जाता है। कदाचित् यही वजह है कि राष्ट्र-निर्माता माने जाने आज शिक्षकों के लिए विकास का माध्यम पढ़ने-पढ़ाने से अधिक वाले शिक्षक समाज के प्रति भी 'आचार संहिता' की बात आज राजनीति प्रेरित शिक्षक-संघों की गतिविधियों में हिस्सेदारी है। ऐसे चर्चा का विषय बन गयी है। कहना न होगा कि भारतीय समाज में परिवेश में शिक्षक-शिक्षार्थियों का आदर्श की कसौटी पर मूल्यांकन कभी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कतार में स्थान पाने वाले गुरुओं के क्या परिणाम होंगे, यह स्वत: स्पष्ट है। के प्रति आज प्रशासनिक अनुशासन की बात एक युगांतकारी सिद्धांत और व्यवहार के टकराव में सिद्धांत की हार वर्तमान बदलाव है, जिसके प्रति मात्र संकेत करना हो यहाँ हमारी सीमा है।
सामाजिक परिवेश का स्वाभाविक सत्य है। इस सत्य से जुड़कर ईश्वर से भी गुरु को श्रेष्ठ माननेवाले कबीर ने कभी कहा था कि- ही आरंभिक शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को मानते हुए भी आज
'गुरु तो ऐसा चाहिए सिक्ख सो कछु न लेय। बहुत कम ऐसे समर्थवान व्यक्ति हैं, जो मातृभाषा-माध्यम के
सिक्ख तो ऐसा चाहिए गुरु को सरबस देय ।।' विद्यालयों में शौक से अपने बच्चों का नामांकन कराना चाहते हैं। यह पूज्य-भाव आज सिर्फ वायवीय आदर्श बनकर रह गया है। भारतीय शिक्षा-संस्कृति में अंग्रेजी एवं अंग्रेजियत का बीज-वपन यथार्थ इसके बहुत कुछ विपरीत है। वर्तमान जीवन-संदर्भो से करनेवाले मैकाले की शिक्षा-नीति की भर्त्सना करते हुए भी हम उसे जुड़कर यही स्वाभाविक भी है क्योंकि आज का शिक्षक प्राचीन अपनाने से परहेज नहीं कर पाते। राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित गुरुओं की भाँति जंगल में झोंपड़ी बनाकर फल-फूल पर जीवन होकर खोले गये हिंदी-माध्यम विद्यालयों को भी अंग्रेजी-माध्यम में व्यतीत करनेवाला त्यागी महापुरुष नहीं, बल्कि आधुनिक ग्राम या बदलने से रोक नहीं पाते। कोलकाता में आज भी कई ऐसे नगर में निवास करने वाला एक सुविधापरस्त आम आदमी है। यदि
विद्यालय हैं, जो अपने नाम के बिल्कुल विपरीत अंग्रेजी एवं यथार्थ से जड़कर आधुनिक सामाजिक संबंधों का मूल्यांकन करें तो अंग्रेजियत के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। स्पष्टत: इसकी वजह से
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/४३
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