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प्रतियोगितात्मक वातावरण
परम्परा के नाम पर घूमर, गवरी, हमेलो, पणिहारी, चिरमी, आज हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। गणगौर जैसे सांस्कृतिक नामों से आयोजन रखे जाते हैं पर व्यापार, व्यवसाय, उद्यम, चिकित्सा और संस्कारों तक में उनमें आधुनिकता अथवा भोंडापन ही देखने को मिलता है। नवीनता के साथ-साथ प्रतियोगितात्मक भावनाएं देखने को इसे भी एक फैशन परस्ती का रूप कहा जा सकता है कि मिल रही हैं। हर व्यक्ति पड़ोसी के मुकाबले अपने को लोकगीतों के साथ आधुनिक मानसिकता की मांग को अत्याधुनिक और अति यांत्रिकता से युक्त बताने के उपक्रम आवश्यक करार देते हुए बड़े स्तर पर छेड़छाड़ की जा रही में लगा है। ऐसे में पारम्परिक माध्यमों और उनके कलाकारों है। एक और जहां इसमें कलाकार की असीमित यशलिप्सा या संचालकों में प्रतिस्पर्धी मानसिकता का विकास नहीं हुआ का भाव है वहीं ओडियो-वीडियो निर्माताओं का विपणन है, फलतः वे एक भयंकर चुनौती से जूझ रहे हैं। और अर्थार्जन का दृष्टिकोण भी देखने को मिलता है। आज यजमानी प्रथा की समाप्ति
हर चीज एक उत्पाद के रूप में देखी जाने लगी है। पारम्परिक लोक माध्यमों का विकास बहुत हद तक पारम्परिक कल्पनाएं और पारम्परिक माध्यम इस मानसिकता यजमानी प्रथा की देन रहा। लोक कलाकार अपने यजमानों से बुरी तरह चोट खाये हुए हैं। अथवा आश्रयदाताओं के गांव और घर तक जाते तथा अर्थपूक आयोजन एवं सरकारीकरण उनका अनुरजंन करते हुए लोक शिक्षण का प्रयास करते थे। वर्तमान दौर में हर आयोजन अर्थसाध्य हो गया है। बड़े आज उपभोक्ता संस्कृति का दौर है जिसने यजमानी प्रथा को आयोजनों का सरकारीकरण भी होता चला जा रहा है। सदियों पीछे छोड़ दिया है। इस बात को इस दोहे से भी सार्वजनिक हित के नाम पर लोक कलाकारों को तरजीह नहीं समझा जा सकता है -
दी जाती और तथाकथित अभिजनों के संगठन, क्लब किसी वैश्या काते कातणो, भाट करे व्यौपार। फिल्म, एलबम के कलाकार के नाम पर सांस्कृतिक संध्या वांका मर गया रातिया अन वांका मरया दातार ।। एवं नाइट आयोजित करने की मानसिकता लिए बैठे हैं।
इसी कारण लोक कलाकारों में भी अपनी कला के प्रति आज छोटे से लेकर बड़े शहर तक उन कलाकारों के विरक्ति जागी है। यह एक तरह से न केवल कलाकारों की आयोजन रखे जाने लगे हैं जो स्क्रीन पर नजर आते हैं। दो अपितु निखिल समुदाय की भी पलायनता को दर्शाता है। चार ठुमकों और मनलुभावने अर्धनग्न नृत्यों की प्रस्तुतियों साक्षरता का दौर
के साथ-साथ भारी भरकम आर्केस्ट्रा के बीच लोक का समाज में कल तक जो निरक्षरता थी वह लोकोन्मुखी अपना साजोसामान बौना जान पड़ता है। एक प्रकार से लोक भाव से लोक माध्यमों को संरक्षण दे रही थी अथवा यह कहा की और लोकजीवन से जुड़े माध्यमों की आज भारी उपेक्षा जा सकता है कि अपने सहज भाव में वह कलाओं को होने लगी है। लोक कलाकारों को यदि किसी बड़े आयोजन आश्रय दे रही थी किन्तु साक्षरता ने जमाने की हवा का काम में बुलाया जाता है तो वे दया के पात्र से ज्यादा कुछ नजर किया है और उसने सहजता को असहजता का जामा पहना नहीं आते। शादी, जन्मदिन, नामकरण या विवाह-वर्षगांठ के दिया है। समाज में बेनकाबी बढ़ी और छोटी कलाओं को साथ ही सेवानिवृत्ति पर दी जाने वाली पार्टियों में लोक क्षुद्र करार देते हुए आधुनिकता की डगर पर अपने कदम कलाकारों को बुलाना भी एक फैशन हो गया है और वहां बढ़ाये हैं।
भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों, सीडी आदि माध्यमों के आगे वे फैशन परस्ती
वामनाकार नजर आते हैं। पारम्परिक माध्यम फैशन परस्ती की मानसिकता से सरकार ने अपने स्तर पर जहां सांस्कृतिक केन्द्रों की जूझ रहे हैं। आज परम्परा को फैशन के रूप में देखा जाने स्थापना की वहीं संगीत नाटक अकादमियां, कलाकेन्द्र, लगा है। घरों की सजावट पारम्परिक उत्पादों से की जाने लोककला वीथियां भी स्थापित की। लोककला मेलों के लगी हैं।विद्यालयों, महाविद्यालयों और अन्य संस्कारों के आयोजन भी शुरू किये किन्तु इनमें भी लोकनृत्य माध्यमों की आयोजनों को पारम्परिक प्रवृत्तियों के नाम तो दिये जाते हैं उपेक्षा ही हुई क्योंकि कलाकार अपना समग्र जौहर नहीं दिखा लेकिन वहां बैठा कुछ देखने को नहीं मिलता जैसे कि आज सकते। वे संचालक अथवा संयोजक के सूत्र में लिपटे संकोची
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत् खण्ड/४१
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