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लोकगीत
संचार लोक व्यवहार का आधार स्तम्भ है। किसी सोच, लोकगीत लोक की धरोहर हैं, किसी व्यक्ति की नहीं। किसी संकल्प और किसी सृजन को औरों तक पहुंचाने या ये केवल शब्दरचना ही नहीं लोक का पूरा शास्त्र लिए होते समष्टिगत करने के प्रयासों में संचार सेतु का कार्य करता हैं। उनमें सामूहिक मंगलेच्छा निहित मिलती है। वे अपने मूल है। प्राचीन काल में संचार को प्रथमतः 'नाद' नाम दिया गया में समूह की संरचना भी है। इनमें शब्द भी समूह का, स्वर और उसकी कल्पना श्रेष्ठ सत्ता या ईश्वरीय रूप में की गई। भी समूह का, ताल, लय, छंद भी समूह का होता है। ये इसके पीछे धार्मिक भाव चाहे जो रहा हो किन्तु मूलत: किसी भी समाज, सभ्यता, संस्कृति के दर्पण, रक्षक व विचारों की संप्रेषणीयता ही थी और उसे येन-केन-प्रकारेण पोषक होते हैं। लोक जीवन की सुखद भावनाओं ओर एक मन या एक हाथ से अनेक मना या अनेक हस्ता करने कमनीय कामनाओं के सहारे उन्हें वाणी का रूप मिलता है। का चिंतन मुख्य रहा। एक प्रकार से लोक की गुंजन में कुछ निश्चित शब्दों का इसी दृष्टिकोण का परिचायक है लोकमाध्यमों के पीछे जमाव और उनके गायन से लोक का हर्षाव इन गीतों का का सोच। शब्द, वाणी, लिपि और कला-उत्पाद से लेकर महत्त्व परिभाषित करते हैं।
अभिनय या प्रदर्शन भी इसी के अंग रहे हैं। इस रूप में लोकगीतों के कई रूप हैं। विभिन्न प्रान्तों में अनुष्ठान, आंगिक, वाचिक और कालिक तथा लिखित एवं वस्तुगत बनभट, उनके प्रयोग गायन समय, गायक कलाकार और सर्जित रूप संचार के मूल स्वरूप कहे जा सकते हैं। लोक अन्य विशेषताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्गीकरण हुए हैं माध्यमों में यही अवधारणा निहित मिलती है। लेकिन मूलत: लोकगीत चार श्रेणी के माने जा सकते हैं- लोक माध्यमों में चाहे लोक-कथा हो, लोकनाट्य हो, १) संस्कार सम्बन्धी लोकगीत
लोकनृत्य हो, लोकगीत हो अथवा और कोई लोकशिल्प, वे २) सामाजिक लोकगीत
कहीं न कहीं एक संकल्प और एक विचार को एक से ३) धार्मिक लोकगीत
अनेक तक प्रसारित करने का निहितार्थ लिए होते हैं। ४) मनोविनोद के लोकगीत
लोकमाध्यमों के लिए कहा जा सकता है कि वे सामाजिकता लोकगीतों की ही कोटि का एक भेद भजन, हरजस, के विस्तार का पूरा वाङ्मय लिए होते हैं। इन माध्यमों ने प्रभाती, साख-सबद आदि भी हैं। इन लोकगीतों की प्रभावना न केवल परिवार और परिवार के बीच ही बल्कि समाज
और अति व्याप्ति जीवन के प्रत्येक छोर पर देखी जा और समाज के बीच सम्बन्धों और संवादों का सिलसिला सकती है। इसीलिए यह मान्यता चली आई है कि बिना गीत शुरू किया तथा विभिन्न चीजों, शिल्पों, विचारों, मान्यताओं के कोई रीत नहीं होती है। भारत में जन्म से लेकर मृत्यु और आज के सोच से मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित तक लोकगीतों की परम्पराबद्ध श्रृंखला को देखा जा सकता संचालित किया। है। सरलता, समरसता, सरसता के साथ मधुरता और एक प्रकार से पारस्परिक लोक माध्यम सर्जन से लेकर लयबद्धता लोकगीतों के वे गुण हैं जिनके कारण वे शीघ्र ही आलोड़न-बिलोड़न और चिंतन तक की अवधारणा अपने मूल कंठस्थ हो जाते हैं। लोक जीवन में ये लोकशिक्षण के में लिए होते हैं। इसीलिए इन्हें संचयी कहा जाता है क्योंकि महत्त्वपूर्ण आधार बने हुए हैं। आधुनिक युग के चिंतकों और ये माध्यम हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित और प्रचारकों ने भी लोकगीतों की शक्ति का लोहा माना है। समाहित किये अपने स्वरूप को सुविधानुसार विकसित एवं आधुनिक माध्यमों की सर्वसाधारण की पहुंच के लिए भी वर्धित करते रहे हैं। आज के विचारों ने इन्हें सांस्कृतिक लोकगीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।
धरोहर कह दिया और यही विचार एक हद तक इन्हें स्थगित इस प्रकार भारत के पारम्परिक लोक माध्यम अपना और सीमित करने का हथकण्डा ही कहा जायेगा। स्वरूप और विस्तार बनाये हुए हैं। आधुनिकता की चमक यहां विचार यह भी है कि अति यांत्रिक युग में देहाती में यद्यपि चकाचौंध होकर अपने स्वरूप को खोते जा रहे हैं या लोक माध्यमों को भले ही जंगली, नामसझ या शताब्दियों तथापि इनकी अपनी समृद्ध परम्परा रही है और इसी परम्परा पूर्व के सोच वाले लोगों के अनुरंजन के अलावा कुछ नहीं ने इन माध्यमों को कालजयी भी बना रखा है।
माना जाता है अथवा दिन-ब-दिन परिवर्तित होते परिवेश में
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत् खण्ड/३९
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