Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 206
________________ सीखा हुआ ज्ञान, हमारे आचरण में, हमारे कर्म में उतरना चाहिए। निरूपित किया गया है। अभिनवगुप्त ने अपूर्व वस्तु का निर्माण करने हमको सही दिशा देने वाला ज्ञान हमसे ठीक-ठीक काम करवाए। में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिभा कहा है, 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा वेदान्त ने इसमें एक अपवाद बताया है, 'ऋते आत्मज्ञानात्' अर्थात् प्रतिभा' । हमारे शोधार्थी प्रतिभाशाली हों और नई-नई शोधों, नए-नए आत्मज्ञान को छोड़कर, आत्मज्ञान के बाद कर्म अनिवार्य नहीं आविष्कारों द्वारा ज्ञान की परिधि को बढ़ाते रहें। रहता। किन्तु अभी तो हम लौकिक ज्ञान की बात कर रहे हैं। तो हमारी परम्परा यह भी मानती है कि अपनी मान्यताओं की हमें अर्थ विज्ञानम् अर्थात् ज्ञान का उपयोग हो। जैसे कोई अनुसंधान हुआ बार-बार जाँच-पड़ताल करनी चाहिए इसके लिए सही रास्ता विद्वानों तो उस अनुसंधान के द्वारा, विविध तकनीकों के द्वारा हम कैसे यंत्र से विचार-विमर्श करते रहना। 'वादे वादे जायते तत्वबोध:', इस बना सकते हैं, कैसे उसका उपयोग समस्याओं का समाधान करने दिशा में हमारा मार्ग निर्देशक सूत्र है। कई बार ऊँचा पद प्राप्त कर में कर सकते हैं, यह अर्थ विज्ञान आना चाहिए। यह बुद्धि की छठी लेने के बाद प्राध्यापकगण विचार-विमर्श से कतराने लगते हैं। उन्हें भूमिका है। तत्वज्ञानं च धी गुणा; और तत्त्वत: किसी विषय को लगता है कि यदि उनकी बात गलत साबित हो जाएगी तो उन्हें समझ लेना, उस विषय को पूर्णत: समझ लेना है, जैसे मिट्टी को अपमानित होना पड़ेगा। अत: विवाद से...शास्त्रों या विचार-विमर्श तत्वत: समझ लिया तो मिट्टी से बनी हुई सभी चीजों को समझ से वे कन्नी काटते हैं। कालिदास ने इस प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए लिया, सोने को तत्वतः समझ लिया तो सोने से बनी हुई सब चीजों एक मार्मिक श्लोक लिखा है : को समझ लिया। किसी चीज का तात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेना उस लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरो: विषय की समझदारी की सातवीं भूमिका है। हमारे विद्यार्थियों को तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम् । सातवी भूमिका तक जाने की तैयारी करनी चाहिए। यस्यागमः केवल जीविकायै बड़ा काम कैसे होता है? बड़ा काम केवल इच्छा से नहीं तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति ।। होता। बड़ा काम उस बड़ी इच्छा को पूर्ण करने के लिए अपने अर्थात् सम्मानजनक पद प्राप्त हो जाने के बाद जो विवादभीरु, जीवन को होम देने से होता है। जीवन की सारी शक्तियों को एकाग्र आत्मविश्वासहीनता के कारण दूसरों के द्वारा की गई निन्दा को करके अपने विषय को उपलब्ध करने के लिए जब हम अपने आप सहता रहता है, जिसका ज्ञान केवल जीविकोपार्जन के लिए ही होता को समर्पित कर देंगे, तब बड़ा काम कर सकेंगे। है वह तो ज्ञान बेचने वाला बनिया है, विद्वान नहीं। विद्वान सब समय अनुसंधान या शोध कार्य के लिए भी यह स्थापना सत्य है। ज्ञान विवाद ही करता रहे, इसका अर्थ यह भी नहीं। इसका अभिप्राय का प्रदर्शन कर सस्ती वाहवाही लूट लेना अलग बात है और किसी यही है कि अपनी मान्यता विचार की कसौटी पर खरी उतरती रहे, विषय की तह में जाकर उसकी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाना, इसकी ओर सजग रहना चाहिए। अन्यथा विद्वत्ता तेजस्विनी नहीं हो उस विषय के ज्ञान को आगे बढ़ाना, बिल्कुल दूसरी बात है। नवीन सकती। हमारी पारम्परिक प्रार्थना यही है कि हमारा अधीत (हमारा शोधों के द्वारा ज्ञान की समृद्धि कौन कर सकता है, कैसे कर सकता प्राप्त किया हुआ ज्ञान) तेजस्वी हो... 'तेजस्विनावधीतमस्तु'। यह है, इस पर एक बहुत ही अच्छा श्लोक है : तेजस्विता खंडित तभी होती है जब हम अपना ज्ञान बेचने लगते हैं। तरन्तो दृश्यन्ते बहव इह गंभीर सरसि, जायसी की हृदयस्पर्शिणी उक्ति है, 'पंडित होई सो हाट न चढ़ा। ससाराभ्यां दोा हृदि विदधत: कौतकशतम् । चहौं बिकाइ भूलि गा पढ़ा'। मेरी मंगलकामना है कि हमारे तेजस्वी प्रविश्यान्तीनं किमपि सुविविच्योद्धरति यश, विद्वान प्राध्यापक आत्मविक्रय की स्थिति से बचें। एक बात और। चिरं रुद्धश्वास: स खलु पुनरेतेषु विरल: । ज्ञान प्राप्त करने की तेजस्वी परम्परा यह मानती थी कि केवल एक अर्थात् इस गहरे और विशाल ज्ञान-सरोवर में तैरते हुए बहुत विषय का ज्ञान रखने वाले वास्तव में ज्ञानी नहीं होते। उनकी मान्यता से तैराक अपनी पुष्ट भुजाओं से नाना प्रकार के कौतुक करते हुए थी, “एक शास्त्रं अधीयान: न चिंचिदपि शास्त्रं विजानाति' । अर्थात् दीख पड़ते हैं किन्तु इन सबमें वह (विद्वान) विरला ही है जो देर एक ही शास्त्र को जानने वाला कुछ भी शास्त्र नहीं जानता। सम्यक् तक साँस रोक कर, गहरे डूब कर गंभीर विवेचन के बाद किसी ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत से शास्त्र जानने चाहिए, भले ही दुर्लभ रत्न का उद्धार कर लाता है। आत्मप्रदर्शन विमुख, गंभीर, विशेषज्ञता एक शास्त्र की हो। क्योंकि सभी शास्त्र, सभी विषय निष्ठापूर्ण, ऐकान्तिक वस्तुनिष्ठ विद्या साधना ही मौलिक शोधपरक परस्पर सम्बद्ध हैं। एक शास्त्र की ग्रन्थि दूसरे शास्त्र के प्रकाश से उपलब्धि का आधार है, यह सत्य इस श्लोक में बहुत अच्छी तरह सुलझाई जा सकती हैं। अत: विद्वान को बहुश्रुत होना चाहिए। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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