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धर्म का अन्तर्हदय
1 उपाध्याय कविरत्न श्री अमर मनि
मनुष्य का जो सही रूप है, वह इतना ही नहीं है कि वह शरीर से सुन्दर है और सुगठित है! एक आकृति है, जो सजी-सँवरी है। यदि यही कुछ मनुष्य होता, तो रावण, दुर्योधन और जरासंध भी मनुष्य थे। उनका शरीर भी बड़ा बलिष्ठ था, सुन्दर था। पर, संसार ने उन्हें बड़े लोगों में गिनकर भी सत्पुरुष नहीं माना, श्रेष्ठ मनुष्य नहीं कहा। पुराणों में रावण को राक्षस बताया गया है। दुर्योधन और जरासंध को भी उन्होंने मानव के रूप में नहीं गिना। ऐसा क्यों? इसका कारण है, उनमें आत्मिक सौन्दर्य का अभाव ! देह कितनी ही सुन्दर . हो, पर, जब तक उसके अन्दर सोयी हुई आत्मा नहीं जागती है, आत्मा का दिव्य रूप नहीं चमकता है, तब तक वह देह सिर्फ मिट्टी का घरौंदा भर है, वह सूना मन्दिर मात्र है, जिसमें अब तक देवता की योग्य प्रतिष्ठा नहीं हुई है।
इस देह के भीतर आत्मा अंगड़ाई भर रही है या नहीं? जागृति की लहर उठ रही है या नहीं? यही हमारी इन्सानियत का पैमाना है। हमारे दर्शन की भाषा में देवता वे ही नहीं हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं, बल्कि इस धरती पर भी देवता विचरण
किया करते हैं, मनुष्य के रूप में भी देव हमारे सामने घूमते मानव जीवन एक ऐसा जीवन है, जिसका कोई भौतिक रहत ह। राक्षस आर दत्य व हा नहा है, जो जगला, पहाड़ी मूल्य नहीं आंका जा सकता। बाहर में उसका एक रूप में रहते हैं और रात्रि के गहन अन्धकार में इधर-उधर चक्कर दिखाई देता है, उसके अनुसार वह हड्डी, माँस और मज्जा
लगाते फिरते हैं, बल्कि मनुष्य की सुन्दर देह में भी बहुत से आदि का एक ढाँचा है, गोरी या काली चमडी से ढंका है. राक्षस और पिशाच छुपे बैठे हैं। नगरों और शहरों की कुछ विशिष्ट प्रकार का रंग-रूप है, आकार-प्रकार है, किन्तु
सभ्यता एवं एकाचौंध में रहने वाला ही इन्सान नहीं है, हमारी यही सब मनुष्य नहीं है। आँखों से जो दिखाई दे रहा है, वह
इन्सानियत की परिभाषा कुछ और है। तत्त्व की भाषा में, तो किवल मिट्टी का एक खिलौना है. एक ढाँचा है. आखिर इन्सान वह है, जो अन्दर की आत्मा को देखता है और कोई न कोई रूप तो इस भौतिक शरीर का होता ही। उसकी पूजा करता है, उसकी आवाज सुनता है और उसकी भौतिक तत्त्व मिलकर मनुष्य के रूप में दृश्य हो गए। आँखें बताइ राह पर चलता है। क्या देखती हैं? वे मानव के शरीर से सम्बन्धित भौतिक 'जन' आर 'जिन' : रूप को ही देख पाती हैं। अन्तर की गहराई में अदृश्य को
जिस हृदय में करुणा है, प्रेम है परमार्थ के संकल्प हैं देखने की क्षमता आँखों में नहीं है। ये चर्मचक्षु मनुष्य के
और परोपकार की भावनाएँ हैं, वही इन्सान का हृदय है। आन्तरिक स्वरूप का दर्शन और परिचय नहीं करा सकते। आप अपने स्वार्थों की सड़क पर सरपट दौड़े चले जा रहे __ शास्त्र में ज्ञान दो प्रकार के बताए गए हैं, एक ऐन्द्रिय
हैं, पर चलते-चलते कहीं परमार्थ का चौराहा आ जाए, तो और दूसरा अतीन्द्रिय। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों वहाँ रूक सकते हैं या नहीं? अपने भोग-विलास की काली का ज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा होता है, जो भौतिक है,
__ घटाओं में घिरे बैठे हैं, पर क्या कभी इन काले बादलों के उसे भौतिक इन्द्रियाँ देख सकती हैं। पर, इस भौतिक देह के बीच परोपकार और त्याग को बिजली भी चमक पाती है या भीतर, जो चैतन्य का विराट रूप छिपा है, जो एक अखण्ड
नहीं? यदि आपकी इन्सानियत मरी नहीं है, तो वह ज्योति लौ जल रही है, जो परम देवता कण-कण में समाया हुआ है. अवश्य ही जलती होगी! उस अतीन्द्रिय को देखने की शक्ति आँखों में कहाँ है?
विद्वत् खण्ड/१४
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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