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तपो वै ब्रह्मचर्यम् । ब्रह्मचर्य हो तप है।
गीता में भी ब्रह्मचर्य को तप माना है। उसमें कहा हैब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं तप उच्यते । अर्थात् ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर का उत्तम तप है। इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकारों ने भी ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना है। ५- ब्रह्मचर्य से पारलौकिक लाभ
पारलौकिक लाभ का ब्रह्मचर्य एक प्रधान साधन है। ब्रह्मचर्य से आत्मा परलोक सम्बन्धी सभी सुखों को प्राप्त कर सकता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है
अज्जव साहुजणाचरिये मोक्खमाणं विसुद्ध सिद्धि गइनिलये सासयवव्वावाह मपुणाब्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवममक्खयकरं । जवरसारक्खियं सुपरियं सुभासियं नवरिमुणिवरे हिं महापुरिसधीर सूरधम्मियधिइमंताणा य सया विसुद्धं भव्वं भव्वजणाणुचिण्णां निस्संकियं निब्भयं नित्तुसं निरायासं ।
'ब्रह्मचर्य' अन्त:करण को पवित्र एवं स्थिर रखने वाला है. साधुजनों से सेवित है, मोक्ष का मार्ग है और सिद्धगति का गृह है, शाश्वत है, बाधा रहित है, पुनर्जन्म को नष्ट करने के कारण अपुनर्भव है, प्रशस्त है, रागादि का अभाव करने से सौम्य है, सुखस्वरूप होने से शिव है, दुःख सुखादि द्वन्द्रों से रहित होने से अचल है, अक्षय तथा अक्षत है, मुनियों द्वारा सुरक्षित एवं प्रचारित है, भव्य है, भव्यजनों द्वारा आचरित है, शङ्का-रहित है, निर्भयता का देने वाला, विशुद्ध तथा झंझटों से दूर रखने वाला एवं खेद और अभिमान को नष्ट करने वाला है।
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प्रश्नव्याकरण सूत्र में आगे कहा है
जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं । सीलं तवो य विणओ य संजोय य खंती गुत्ती मुत्ति तहेव इहलोइय पारलोइय जसेय कित्ती य पच्चओ य ।
'ब्रह्मचर्य की आराधना से सभी व्रत आराधित होते हैं। तप, शील, विनय, संयम, क्षमा, गुप्ति और मुक्ति सिद्ध होती है तथा इस लोक और परलोक में यश-कीर्ति की विजय पताका फहराती है।' अन्य ग्रन्थकार भी ब्रह्मचर्य से परलोक सम्बन्धी लाभ बताते हुए कहते हैं
समुद्रतरणे यद्वत् उपायो नौः प्रकीर्तित। संसारतरणे यद्वत् ब्रह्म
प्रकीर्तितम् ||
- स्मृति । समुद्र से पार जाने के लिए, जिस प्रकार नौका श्रेष्ठ- साधन है, उसी प्रकार संसार से तरने के लिए ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट साधन है।
विद्वत खण्ड / १२
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ग्रन्थकारों ने यज्ञ भी ब्रह्मचर्य को ही माना है। जैसेअथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव ।
(छान्दोग्योपदनिशद्)
"जिसे यज्ञ कहते हैं वह ब्रह्मचर्य ही है।'
संसार - बन्धन से छूटकर, मोक्ष प्राप्ति के लिए चारित्र धर्म बताते हुए भगवान् ने जिन पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है उनमें ब्रह्मचर्य चौथा महाव्रत है। ब्रह्मचर्य के बिना, चारित्र-धर्म का पूर्णरूपेण पालन नहीं हो सकता। आत्मा को संसार बन्धन से छुड़ा कर मोक्ष दिलाने वाले चारित्र धर्म का ब्रह्मचर्य एक प्रधान और आवश्यक अंग है ब्रह्मचर्य के बिना न तो अब तक कोई मुक्त हुआ ही है, न हो ही सकता है सिद्धात्माओं को सिद्ध गति प्राप्त कराने वाला यह ब्रह्मचर्य ही है। इस प्रकार पारलौकिक लाभ का ब्रह्मचर्य एक प्रधान साधन है।
६ - ब्रह्मचर्य से इहलौकिक लाभ
ब्रह्मचर्य से पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक लाभ भी है। ऊपर बताया जा चुका है कि ब्रह्मचर्य से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। स्वास्थ्य अच्छा रहने से ही इहलौकिक कार्य सुचारु रूप से सम्पादन हो सकते हैं।
सांसारिक जीवन में, शरीर स्वस्थ, सुन्दर, बलवान् एवं चिरायु रहने की, विद्या की, धन की कर्तव्य दृढ़ता की और यशादि की अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ने ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए कहा है
चिरायुषः सुसंस्थानां दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ।।
ब्रह्मचर्य से शरीर चिरायु सुन्दर दृढ़ कर्त्तव्य तेजपूर्ण और पराक्रमी होता है।.
वैद्यक ग्रन्थों में भी कहा गया है
ब्रह्मचर्य परं ज्ञानं ब्रह्मचर्य परं बलं । ब्रह्मचर्यमयो ह्यात्मा ब्रह्मचर्येव तिति ।।
'ब्रह्मचर्य ही सब से उत्तम ज्ञान है, अपरिमित बल है, यह आत्मा निश्चय रूप से ब्रह्मचर्यमय है और ब्रह्मचर्य से ही शरीर में ठहरा हुआ है। '
इन प्रमाणों से यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि ब्रह्मचर्य से शरीर सुन्दर भी रहता है, बलवान् भी रहता है, दीर्घजीवी भी होता है और यश कीर्ति भी प्राप्त होती है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य, इहलौकिक सुखों का भी साधन है। लौकिक वैभव, विद्या, धन आदि तभी प्राप्त होते हैं, जब शरीर स्वस्थ हो और उसमें बल तथा साहस हो ब्रह्मचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है और शरीर में बल तथा साहस भी रहता है।
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