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होता है, बाँधने वाला मालिक गुलाम से मालिक बड़ा होता है। तो, जब हमने कर्म को बाँधा है, तो फिर उन्हें छोड़ने की शक्ति किसके पास है, जिसने बाँधा है उसी के पास ही है। न ? स्पष्ट है, कर्मों को छोड़ने की शक्ति आत्मा के पास ही है, चैतन्य के पास ही है, मतलब यह कि आपके अपने हाथ में ही है। हमारा अज्ञान इस शक्ति को समझने नहीं देता है, अपने आपको पहचानने ही नहीं देता है, यही तो हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता है।
अध्यात्म दर्शन ने हमें स्पष्ट बतला दिया है कि जो भी कर्म हैं, वे सब तुमने बाँधे हैं, फलतः तुम्हीं उन्हें छोड़ भी सकते हो 'बंधपमोक्खो तुज्ज अज्झत्थेव '- बंधन और मुक्ति हर व्यक्ति के अपने अन्तर में ही है। बन्धन क्या है ?
कर्म के प्रसंग में हमें एक बात और विचार लेनी चाहिए कि कर्म क्या है और जो बन्धन होता है, वह क्यों होता है ?
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अन्य पुद्गलों की तरह कर्म भी अचेतन जड़- पुद्गल है, परमाणु पिण्ड है। कुछ पुद्गल अष्टस्पर्शी होते हैं, कुछ चतुःस्पर्शी कर्म चतुःस्पर्शी पुद्गल हैं आत्मा के साथ । । चिपकने या बँधने की स्वतन्त्र शक्ति उनमें नहीं है, न वे किसी दूसरे को बाँध सकते हैं और न स्वयं ही किसी के साथ बँध सकते हैं।
हमारी मन, वचन आदि की क्रियाएँ प्रतिक्षण चलती रहती हैं। खाना-पीना, हिलना-डोलना, बोलना आदि कुछ क्रियाएँ तो महापुरुषों के जीवन में भी चलती रही हैं। जीवन में क्रियाएँ कभी बन्द नहीं होतीं । यदि हर क्रिया के साथ कर्म बन्ध होता हो, तब तो मानव की मुक्ति का कभी प्रश्न ही नहीं उठेगा। चूंकि जब तक जीवन है, संसार है, तब तक क्रिया बन्द नहीं होती, पूर्ण अक्रियदशा (अकर्म स्थिति) आती नहीं। और जब तक क्रिया बन्द नहीं होती, तब तक कर्म बँधते रहेंगे, तब तो फिर यह कर्म एक ऐसा सरोवर हुआ, जिसका पानी कभी सूख ही नहीं सकता, कभी निकाला ही नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में मोक्ष क्या होगा ? और कैसे होगा ?
सिद्धान्त यह है कि क्रिया करते हुए कर्मबंध होता भी है, और नहीं भी। जब क्रिया के साथ राग-द्वेष का सम्मिश्रण होता है, प्रवृत्ति में आसक्ति की चिकनाई होती है, तब जो पुद्गल आत्मा के ऊपर चिपकते हैं, वे कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। जिस-जिस शुभ या अशुभ विचार और
विद्वत् खण्ड/ १६
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अध्यवसाय के साथ वे कर्म-ग्रहण होते हैं, उसी रूप में वे परिणत होते चले जाते हैं। विचारों के अनुसार उनकी अलग-अलग रूप में परिणति होती है। कोई ज्ञानावरण रूप में, तो कोई दर्शनावरण आदि के रूप में। किन्तु जब आत्मा में राग-द्वेष की भावना नहीं होती, प्रवृत्ति होती है, पर आसक्ति नहीं होती, तब कर्म- क्रिया करते हुए भी कर्म - बँध नहीं होता।
भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि इस जीवन-यात्रा को किस प्रकार चलाएँ कि कर्म करते हुए, खाते-पीते, सोते-बैठते हुए भी कर्म बन्ध न हो, तो उन्होंने कहा"जयं चरे जयं चिट्ठे, जयं मासे जयं सए । जयं भुजन्तो भासन्तो, पावकम्मं न बंधई।" - दशवैकालिक, ४, ८
तुम सावधानी से चलो, खड़े रहे तब भी सावधान रहो, सोते-बैठते भी प्रमाद न करो। भोजन करते और बोलते हुए भी उपयोग रखो कि कहीं मन में राग और आक्रोश की लहर न उठ जाए। यदि जीवन में इतनी जागृति है, सावधानी है, अनासक्ति है, तो फिर कहीं भी विचरण करो, कोई भी क्रिया करते रहो, पापकर्म का बँध नहीं होगा।
इसका मतलब यह हुआ कि कर्म-बंध का मूल कारण प्रवृत्ति नहीं, बल्कि राग-द्वेष की वृत्ति है। राग-द्वेष का गीलापन जब विचारों में होता है, तब कर्म की मिट्टी का गोला आत्मा की दीवार पर चिपक जाता है। यदि विचारों में सूखापन है, निस्पृह और अनासक्त भाव है, तो सूखे गोले की तरह कर्म की मिट्टी आत्मा पर चिपकेगी ही नहीं । वीतरागता ही जिनत्व है :
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एक बार हम विहार काल में एक आश्रम में ठहरे हुए थे । एक गृहस्थ आया और गीता पढ़ने लगा। आश्रम तो था ही । इतने में एक सन्यासी आया, और बोली - "पढ़ी गीता, तो घर काहे को कीता ?" मैने पू "गीता और घर में परस्पर कुछ बैर है क्या ? यदि वास्तव में वैर है, तब तो गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण का भी घर से बैर होना चाहिए और तब तो गृहस्थ को तो छोड़िए, आप साधुओं को भी गीता के उपदेश से मुक्ति नहीं होगी।”
साधु बोला
मैंने कहा
हमने तो घर छोड़ दिया है। 1
घर क्या छोड़ा है, एक साधारण घोंसला छोड़ा, तो दूसरे कई अच्छे विशाल घोंसले बसा लिए हैं।
शिक्षा एक यशस्वी दशक
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