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काशीप्रसाद मिश्र, एम०ए०बी० एड०
मेरे शहर के पश्चिम में,
मेरे जन्म के बहुत पहले से,
शान्त निर्मल धारा में बहती एक नदी है,
सलिल समृद्ध है,
जल प्रवाह लम्बा है,
नाम उसका गंगा है।
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गंगा का किनारा युक्त सिकता की राशि से, नौकाएं डोलती है, मृदु मंद मंथर गति से, सूर्य उदय होते ही आते हैं भोलू नाथ, भैसों को हाँकते हुए गायों के साथ-साथ, हर गंगे बोलते हैं, पशुओं को नहलाते हैं, प्रदूषण फैलाते हैं। थोड़ी ही दूर पर बैठे हैं जुम्मन शेखहाथ में लिए हैं एक बंशी व कुछ चारा,
गंगा
वाह ! क्या भारा । चमक उठी आँखें खिल उठी बाहें, भोजन की व्यवस्था है नाम जिसका गंगा है।
सूर्य जब अस्त हुआ,
फैल गया राज्य- रजनी नरेश का,
विश्राम बेला है,
शिक्षा एक यशस्वी दशक
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पर क्या गंगा भी सोएगी ? और
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रात अब जागेगी,
हाँ
रात भी जागेगी और गंगा को जगाएगी।
धीवरों की नौकाएँ दीपों से प्रदीप्त हुई, गंगा के काले घने पाटों पर जालियाँ सुदीर्घ हुईं, रात का उपक्रम है। काल का नियोजन है। प्रातःकाल होते ही जाल जब सिमटेंगें, उलझे होंगे उनमें झीगे, रोहू तथा और भी अनेक क्या जीवन बस इतना ही ?
काल की व्यवस्था है, नाम जिसका गंगा है।
गंगा के तट पर,
बैठे-बैठे इन दृश्यों को देखता हूँ सोचता हूँ। श्रेष्ठ जनों की वाणी में,
गंगा पतित पावनी है।
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पापविनाशिनी है, मोक्षदायिनी है ।
पर दृश्य कुछ और है, गंगा का उपयोग सोच से परे है,
क्योंकि
नाम इसका गंगा है।
अनेक है
शैली वर्मा, ११ बी
विद्यालय खण्ड / ३७
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