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पूरे चार वर्ष बीत गए, पाँचवाँ चल रहा था। वृद्ध सार्थवाह को इस वंश-वृक्ष को पल्लवित तथा पुष्पित करने की कला में वह पुरानी बात याद हो आई। अब उसने परीक्षा का परिणाम जानना निपुण है। वह सचमुच संवर्धन की देवी है।" चाहा। पुन: उसी प्रकार परिजनों एवं ज्ञातिजनों को प्रीतिभोज के "आज से रक्षिका को घर की चल-अचल सम्पत्ति की रक्षा का लिए निमन्त्रित किया। सबको भोजन आदि से सन्तुष्ट करके चारों दायित्व सौंपता हूँ। वह घर की हर चीज को सँभालती रहेगी, वह पुत्रवधुओं को बुलाया और चार वर्ष पूर्व दिये गए धान के पाँच-पाँच संरक्षण में कुशल है।" दानों की उन्हें याद दिलाते हुए, उनसे पाँचों दानों को वापिस माँगा। "भोगवती को परिवार के खान-पान, रसोई आदि व्यवस्था का
बड़ी पुत्रवधू उज्झिका भीतर गई और भंडार में से धान के पाँच पूरा दायित्व दिया जाता है। खाद्य विभाग उसी के जिम्मे रहेगा।" दाने लाकर सेठ के हाथ में रख दिये। सेठ ने दाने हाथ में लेकर पूछा- “सबसे बड़ी बहू अज्झिका को घर की सफाई और स्वच्छता "पुत्री! क्या सचमुच ये दाने वे ही है, जो मैंने तुम्हें दिये थे?" का काम सौंपा जाता है। वह घर की सफाई का ध्यान रखेगी। वह
उज्जिका ने हाथ जोड़कर कहा-"तात! नहीं वे दाने तो मैंने फेंकने की कला में होशियार है।" फेंक दिये थे, ये तो नए दाने हैं।"
सभी परिजन एक नया विचार, एक नया अनुभव लिए लौट गए। अब भोगवती से दाने माँगे गए, तो उसने भी भंडार से लाकर “जिसमें जितनी योग्यता है, वह उतना ही अपना विकास कर सकता पाँच दाने सौंप दिए। सेठ के पूछने पर अपने मन की सही स्थिति है।" सेठ ने काम का बँटवारा अवस्था में छोटे-बड़े के आधार पर स्पष्ट करते हुए कहा-"वे दाने तो मैने खा लिए।"
नहीं, बल्कि उनकी बुद्धि एवं योग्यता के आधार पर किया। रक्षिका की ओर सेठ ने देखा, तो उसने रत्न-करण्डक से
पूर्व छात्र, श्री जैन विद्यालय, कोलकाता निकाल कर दाने ससुर के सम्मुख रखते हुए कहा-“ये वे ही दाने हैं, जो आपने चार वर्ष पूर्व मुझे दिए थे।"
अब सबसे छोटी बहू रोहिणी से दाने माँगे गए, तो उसने विनय पूर्वक कहा-“तात! दाने तैयार हैं, पर उन्हें लाने के लिए बहुतसी गाड़ियाँ चाहिएँ।" रोहिणी की बात पर सब लोग चकित थे। सार्थवाह के चेहरे पर
ब्रह्मचर्यसंबंधी सुभाषित भी आश्चर्य-मिश्रित प्रसत्रता की स्वर्ण-रेखा चमक उठी। उसने
(दोहे) पूछा-"पुत्री, इसका क्या मतलब है? पाँच दानों के लिए गाड़ियों
नीरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान; की क्या आवश्यकता है?"
गणे काष्ठनी पूतळी, ते भगवान समान । १ रोहिणी ने बतलाया कि किस प्रकार उसने पिता के यहाँ खेत
आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप; में अपनी एक अलग क्यारी बनवाकर पाँच दानों की खेती करवाई
ए त्यागी, त्याग्युं बधुं, केवळ शोकस्वरूप । २ और धीरे-धीरे चार वर्ष में वे इतने हो गए हैं कि उन्हें ढोकर यहाँ तक लाने के लिए एक क्या, कई गाड़ियाँ चाहिए।
एक विषयने जीततां, जीत्यो सौ संसार; सार्थवाह ने अपने परिजनों की ओर देखा। सभी के मुँह पर
नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार । ३ रोहिणी की प्रशंसा थी। सबको सम्बोधित करते हुए सार्थवाह ने
भावार्थ-नवयौवना को देखकर जिसके मन में विषय-विकार कहा- "मैने आप सबको इसीलिए कष्ट दिया है कि मैं अपनी का लेश भी उदय नहीं होता और जो उसे काठ की पुतली समझता पुत्रवधुओं को उनकी योग्यतानुसार काम की जिम्मेदारियाँ सौंप दूं। है. वह भगवान के समान है ।।१।। उनकी कुशलता और कार्यक्षमता का अनुमान आप लोग कर पाए इस सारे संसार की नायकरूप रमणी सर्वथा दुःख-स्वरूप है; होंगे। मैने जो उनकी योग्यता की परीक्षा की है, उसके अनुसार जिसने इसका त्याग कर दिया उसने सब कछ त्याग दिया ।।२।। उनके काम का बँटवारा किए देता हूँ।" सार्थवाह के धीर-गंभीर जैसे एक नपति को जीतने से उसका सैन्य, नगर और निर्णय को सुनने के लिए सब उत्सुक हो रहे थे। काम का बँटवारा अधिकार जीते जाते हैं. वैसे एक विषय को जीतने से सारा संसार करते हुए उसने कहा- "सबसे छोटी बहू रोहिणी है, उसे गृह जीता जाता है ।।३।। संचालन की पूर्ण जिम्मेदारी देता हूँ। इस गृह की वह स्वामिनी होगी।
विद्यालय खण्ड/६०
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
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