Book Title: Jain Vidyalay Granth
Author(s): Bhupraj Jain
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 187
________________ पढ़न के शौकीन हो गये हैं। उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि ऐसा करने से जीवन में कितने विकार आ घुसे हैं। कहावत है-'जैसा वाचन वैसा विचार' । इस कहावत के अनुसार अश्लील पुस्तकों के पठन से लोगों के विचार भी अश्लील बनते जा रहे हैं। नाटक-सिनेमा देखना भी वीर्यनाश का कारण है। आजकल नाटक-सिनेमा की धूम मची हुई है। जहाँ देखो वहाँ गरीब से लेकर अमीर तक-सबको नाटक-सिनेमा में फंसाने का प्रयत्न किया जा रहा है और इस प्रकार सिनेमा वीर्यनाश के साधन बन रहे हैं। ९-सिनेमा और ग्रामोफोन आजकल के सिनेमा तो नैतिकता से इतने पतित और निर्लज्जतापूर्ण होते सुने जाते हैं कि कोई भला मानुष अपने बालबच्चों के साथ उन्हें देख नहीं सकता। सिनेमा के कारण आज लाखों नवयुवक आचरणहीन बन रहे हैं। इन सिनेमाओं की बदौलत भारतीय नारी अपनी महत्ता का विस्मरण कर भारतीय सभ्यता के मल में कुठाराघात कर रही है। यह अत्यन्त खेद की बात है। इसी प्रकार ग्रामोफोन को भी आनन्द का साधन समझा जाता है पर उसके द्वारा संस्कारों में कितनी बुराइयाँ घुस रही हैं, इस ओर कितने लोगों का ध्यान जाता है? १०-ब्रह्मचर्य साधन ब्रह्मचर्य पालने वालों को अथवा जो ब्रह्मचर्य पालन चाहते हैं उन्हें विलासपूर्ण वस्त्रों से. आभूषणों से, आहार से सदैव बचते रहना चाहिये। मस्तिष्क में कविचारों का अंकर उत्पन्न करने वाले साहित्य को हाथ भी नहीं लगाना चाहिए। जो पुस्तकें धर्म, देश-भक्ति की जना जागत करने वाली और चरित्र को सधारने वाली होती है उनमें अंग्रेज सरकार राजनीति की गंध सूंघती है और उन्हें जब्त कर लेती है। पर जो पुस्तकें ऐसा गंदा और घासलेटी साहित्य बढ़ाती हैं, प्रजा का सर्वनाश कर रही हैं, उनकी ओर से वह सर्वथा उदासीन रहती है। यह कैसी भाग्यविडम्बना है? ११-वीर्य की महिमा स्वप्न में भी वीर्य का नाश होता है। कुछ लोग कहा करते हैं कि वीर्य रक्षा से स्वप्नदोष होता है पर यह कथन भ्रमपूर्ण है। इस भ्रामक विचार का परित्याग करके स्वप्नदोष के असली कारण का पता लगाना चाहिये। फिर उस कारण से बचकर दोषनिवारण का प्रयत्न करना चाहिये। जब तुम सो रहे हो, तब तुम्हारी जेब में से अगर कोई रत्न निकाल कर ले जाने लगे और उस समय तुम जाग उठो तो आँखों देखते क्या रत्न ले जाने दोगे? नहीं, तो फिर स्वप्नदोष के कारण जानबूझ कर वीर्य को नष्ट होने देना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है? १२-ब्रह्मचर्य और रसनानिग्रह ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए, साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जिह्वा पर अंकुश रखने की आवश्यकता है। जिह्वा पर अंकुश न रखने से अनेक प्रकार की हानियाँ होती हैं। इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी जीभ पर काबू रखता है उसे प्राय: वैद्यों और डॉक्टरों के द्वार पर भटकने की आवश्यकता नहीं रहती। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके लिए जीवन की अपेक्षा भोजन अधिक महत्व की वस्तु है। वे जीने के लिए नहीं खाने के लिए जीते हैं। भले ही कोई सीधी तरह इस बात को स्वीकार न करे मगर उसके भोजन-व्यवहार को देखने से यह सत्य साफ तौर से प्रगट हए बिना नहीं रहेगा। यही कारण है कि अधिकांश लोग जीवन के शुभ-अशुभ की कसौटी पर भोजन की परख नहीं करते। वे जिह्वा को कसौटी बनाकर भोजन की अच्छाई-बुराई की जाँच करते हैं। जो जीवन की दृष्टि से भोजन करता है वह स्वास्थ्य नाशक और जीवन को भ्रष्ट करने वाला भोजन कैसे कर सकता है? कुशल मनुष्य अज्ञात व्यक्ति को सहसा अपने घर में स्थान नहीं देता। तब जिस भोजन के गुण-दोष का पता न हो उसे पेट में स्थान देना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है? जो ऐसे भोजन को पेट में लूंस लेता है, उसके पेट को भोजनपिटारे के सिवा और क्या कहा जा सकता है? एक विद्वान का कथन है कि दुनिया में जितने आदमी खाने-पीने से मरते हैं, उतने खाने-पीने के अभाव से नहीं मरते। लोग पहले ठेसलूंस कर खाते हैं, फिर डॉक्टर की शरण लेते हैं। आज जो आदमी जितनी अधिक चीजें अपने भोजन में समाविष्ट करता है वह उतना ही बड़ा आदमी गिना जाता है, मगर शास्त्र का आदेश यह है कि जो जितना महान त्यागी है वह उतना ही महान् पुरुष है। शास्त्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बारह करोड़ स्वर्ण मोहरों का और चालीस हजार गायों का धनी होने पर भी उसने अपने खानेपीने के लिए कुछ गिनती की चीजों की ही मर्यादा कर ली थी। इस प्रकार खान-पान के विषय में जो जितना संयम रखता है वह उतना ही महान् है। जिह्वासंयम से स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। नागरिकों को जितना और जैसा भोजन मिलता है, उतना और वैसा किसानों को नहीं। फिर भी अगर दोनों की कुश्ती हो तो किसान ही विजयी होगा। यह कौन नहीं जानता कि सभ्य और बड़े कहलाने वाले लोगों की अपेक्षा किसान अधिक स्वस्थ और सबल होता है। इसका एक कारण सादा और सात्विक भोजन है। इस तरह अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य सुधरने की जगह बिगड़ता है। विकृत भोजन करने में स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है और चरित्र को भी. इसी कारण विकृत (विगय) भोजन करने का शास्त्र में निषेध किया गया है। विद्वत खण्ड/८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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