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“आध्यात्मिक क्षेत्र में आचार्य कुन्दकुन्द का 'दर्शनपाहुड' एक बहुत ही क्रान्तिकारी रचना है। इस जैसी दूसरी रचना समूचे जैन वाङ्मय में दुर्लभ है। प्रतीत होता है कि यदि यह रचना नहीं होती तो सम्यग्दर्शन का ऐसा अद्भुत महत्त्व प्रकाशित नहीं हो पाता।"
“आचार्य ने तत्त्व-श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। उनकी दृष्टि में शुद्ध आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व ही मोक्ष प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रतीत होता है। इसे उन्होंने रत्नत्रय में साररूप मोक्ष की प्रथम सीढ़ी कहा है। इसे अच्छे अभिप्राय से धारणीय बताया है।"
“अष्टपाड में श्रमण का स्वरूप मूलाचार या श्रमणाचार के ग्रन्थों में वर्णित स्वरूपवत् न होकर प्रकीर्णक रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। जैसे-चारित्रपाहुड में पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति के स्वरूप; सूत्र पाहुड में पाणिपात्र में आहार ग्रहण करने, भावपाहुड में भावलिंग की प्रधानता से साधुस्वरूप तथा भाव विशुद्धि बनाये रखने का संदेश, परीषह-उपसर्ग सहने की प्रेरणा, अनुप्रेक्षा, विनय, ध्यान का निरूपण; मोक्षपाहुड में स्वद्रव्य-ध्यान, सम्यक्चारित्र, समभाव चारित्र; शीलपाहुड में शील की श्रेष्ठता का विवेचन है। यहाँ श्रमण के स्वरूप, वंदनीय तथा अवंदनीय श्रमण कौन है? अवंदनीय होने के कारण, श्रमणाभास आदि विषयों पर विचार किया जा रहा है।"
“आचार्य कुन्दकुन्ददेव की सारी चिन्ता एक ओर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझाने की है, तो दूसरी ओर श्रमण धर्म का निरूपण कर उन्हें आत्माभिमुख बनाने की है। वे मुनि के द्रव्यलिंग और भावलिंग किसी में भी किंचित् भी शिथिलता नहीं चाहते थे। सुत्तपाहुड में उन्होंने निश्चेल और पाणिपात्र को ही जिनेन्द्र-कथित मोक्षमार्ग बताया है।"
“अन्त में आचार्य यह भी कहते हैं कि चारित्र अपनी शक्ति के अनुसार करें किन्तु चारित्र के प्रति श्रद्धान अवश्य रखें। जहाँ श्रद्धान होता है श्रद्धा के अनुकूल आचार भी समय आने पर प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। अतः सम्यक्त्वाचरण को आधार बनाकर मोक्ष की ओर बढ़ने में सार है।"
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