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जैनविद्या 26
अप्रेल 2013-2014
जैन अध्यात्म योग का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'मोक्षपाहुड'
- डॉ. अनेकान्तकुमार जैन
ध्यान-योग जैन साधना-परम्परा का मूल आधार है। अगर हम साहित्यिक प्रमाणों से इतर पुरातात्त्विक प्रमाणों को भी देखें तो पायेंगे कि हमें तीर्थंकरों की जो प्राचीन से प्राचीन मूर्तियाँ (प्रतिमाएँ) खुदाई में प्राप्त हुई हैं वे सभी प्रतिमाएँ या तो पद्मासन मुद्रा में मिलती हैं, या खड़गासन मुद्रा में, इसके अलावा अन्य किसी मुद्रा में तीर्थंकर योगियों की प्रतिमाएँ नहीं मिलती। परम वीतरागी, शान्त, नासाग्रदृष्टि, शुक्लध्यान में स्थित प्रतिमाएँ ही मिलती हैं। यह एक बहुत बड़ा प्रमाण है कि जैन साधना का मूल ही ध्यान-योग रहा है।
साहित्यिक दृष्टि से भी देखें तो आचारांग आदि अर्धमागधी आगमों में तो ध्यानयोग के अनेक उल्लेख मिलते ही हैं, शौरसेनी आगमों में भी इसके पुष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं। इसी परम्परा में मैं एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की तरफ आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिसका नाम है 'मोक्षपाहुड'।' समयसार आदि परमागमों का प्रणयन करनेवाले परम योगी आचार्य कुन्दकुन्द ने ईसा की पहली शती में इस ग्रन्थ का प्रणयन ‘योगियों' को सावधान करने के लिए किया था। मात्र मोक्ष के लक्ष्य से जो योग होता है उसे हम 'अध्यात्म योग' कहते हैं। यहाँ मात्र शुद्धात्मा के लक्ष्य से सारा कथन होता है और यदि शुद्धात्मा से अतिरिक्त कोई बात हो तो उसकी आलोचना भी होती है। 'अध्यात्म योग' शब्द का प्रयोग आगमों में भी हुआ है।
'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवदिट्ठिए ठि अप्पा''