Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या 26
8.
10.
वेरग्गपरो साहू परदव्व परम्मुहो य सो होदि। संसार सुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो।।101॥ मोक्षपाहुड जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। सो होई वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए॥11॥ जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरा साहू।।12।। सूत्रपाहुड दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराण।।23। दर्शनपाहुड धम्मेण होइ लिंगंण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।।2।। लिंगपाहुड असंजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि तो ण वंदिज्जा दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥26॥ दर्शनपाहुड दर्शनपाहुड, गाथा 27, श्रुतसागर सूरिकृति टीका का भावार्थ, पृष्ठ 46-47 लिंग पाहुड, 4
15. वही, 5, 8 वही, 6
वही, 5 वही, 6, 7, 12
वही, 14 वही, 17
वही, 17,14 वही, 9
12.
वही, 8
वही, 10
कई ई ई ई ई
वही, 12
वही, 13
___ वही, 16
वही, 17,18

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