Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 93
________________ जैनविद्या 26 परिणामादो बंधो मुक्खो सत्तूमित्ते य समा पसंस-णिंदा-अलद्धि-लद्धिसमा। तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।47।। बो.पा. मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो। णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं ।।45॥ मो.पा. पावं हवेइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा। परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिह्रो ।।116।। भा.पा. आचार्य कुन्दकुन्द अष्टपाहुड - ऐसा कहा गया है (कि) निश्चय ही संन्यासी का जीवन शत्रु और मित्र में (के प्रति) समान (होता है), प्रशंसा और निन्दा में, लाभ और अलाभ में (भी) समान (होता है) (तथा उनके) तृण और सुवर्ण में (भी) समभाव (होता है)। - लोभ से रहित तथा अहंकार, कपट (और) क्रोध से रहित जो जीव निर्मल स्वभाव से युक्त (होता है) वह उत्तम सुख को पाता है। समस्त पुण्य परिणाम (अर्थात् भावों) से होता है तथा समस्त पाप (भी) (भावों से ही) होता है। जिन-शासन में बंध और मोक्ष परिणाम (भावों) से ही प्रतिपादित है - डॉ. कमलचंद सोगाणी

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