Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 98
________________ जैन विद्या 26 (1) जो साधु होकर भी बहुत मान - कषाय करता हुआ निरन्तर कलह, वाद-विवाद, द्यूत-क्रीड़ा, अब्रह्म (भोग-विलास ) सेवन करता है, वह अधोगामी होता है ( लिंगपाहुड 6-7 ) । (2) (4) ( 3 ) जो साधु होकर भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र, तप, संयम, नियम आदि की क्रियाएँ बाध्यतापूर्वक या खिन्न मन से पीड़ायुक्त भावना से करता है वह अधोगामी होता है (लिंगपाहुड 11)। (5) 87 साधु होकर भी गृहस्थों के विवाहादि कार्य करता है, कृषि व्यापार एवं जीवघात आदि पाप कार्य करता है, चोरी, झूठ, युद्ध, विवाद करता है; यंत्र, चौपड़, शतरंज, पासा आदि क्रीड़ाएँ करता है, वह अधोगामी होता है ( लिंगपाहुड 9-10 ) । (8.) (9) जो साधु पाप-बुद्धि से मोहित होकर बाह्य कुक्रिया करता है वह जिनचिह्न का उपहास करता है (लिंगपाहुड 3 ) । जो साधु नृत्य करता है, गाता है, बजाता है, परिग्रह का संग्रह करता है, या परिग्रह का चिन्तन एवं ममत्व रखता है वह श्रमण नहीं है (लिंगपाहुड 4-5) (6) जो साधु भोजन में अति आसक्ति रखते हैं, काम-वासना की इच्छा रखते हैं, प्रमादी होते हैं, वे साधु नहीं होते हैं; ऐसे साधुओं से गृहस्थ श्रेष्ठ होते हैं (लिंगपाहुड 12 ) । ( 7 ) जो साधु ईर्या समितिपूर्वक नहीं चलते, दौड़ कर चलते हैं, पृथ्वी खोदते हैं, वनस्पति आदि की हिंसा करते हैं, अनाज कूटते हैं, वृक्षों को छेदते-काटते हैं; वे श्रमण नहीं हैं (लिंगपाहुड 15-16)। भावरहित साधु साधु नहीं है ( भावपाहुड 74)। जो साधु दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र धारण नहीं करता; किन्तु परिग्रह व विषय- कषाय में आर्तध्यान करता है, वह अनन्त संसारी है (लिंगपाहुड 8 ) | (10) जो साधु आहार के लिए दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर आहार भोगता है, खाता है और उसके निमित्त अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है, वह जिन श्रमण नहीं है (लिंगपाहुड 13)। ( 11 ) जो बिना दिया आहार, दान आदि लेता है और पर की निन्दा करता है, वह साधु नहीं है (लिंगपाहुड 14)।

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