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माण मारमबाट संजर नमकनारा
पति |
णाणु ज्जीवो जीवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
महावीर जयन्ती 2612
जैनविद्या
अष्टपाहुड विशेषांक
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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जैनविद्या
जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी द्वारा प्रकाशित वार्षिक
शोध-पत्रिका
अप्रैल, 2013-2014
सम्पादक मण्डल
श्री नगेन्द्रकुमार जैन
श्री नवीनकुमार बज
श्री चन्द्रप्रकाश जैन
डॉ. जिनेश्वरदास जैन डॉ. प्रेमचन्द राँवका डॉ. अनिल जैन श्री निर्मलकुमार जैन
प्रबन्ध सम्पादक
श्री महेन्द्रकुमार पाटनी मंत्री, प्रबन्धकारिणी कमेटी
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
प्रकाशक
सम्पादक
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
सहायक सम्पादक सुश्री प्रीति जैन
जैनविद्या संस्थान
प्रबन्धकारिणी कमेटी
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ( राजस्थान )
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वार्षिक मूल्य 30.00 रु. सामान्यतः 60.00 रु. पुस्तकालय हेतु
मुद्रक
जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. जयपुर
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विषय-सूची
क्र.सं. विषय
लेखक का नाम
पृ.सं.
प्रकाशकीय
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सम्पादकीय
अष्टपाहुड : एक विहंगावलोकन डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल 2. अष्टपाहुडों का एक काव्यशास्त्रीय अध्ययन डॉ. उदयचन्द्र जैन 3. आचार्यश्री कुन्दकुन्द कृत
डॉ. प्रेमचन्द्र राँवका 'अष्टपाहुड' में जीवन मूल्य' धम्मो दयाविसुद्धो
आचार्य कुन्दकुन्द आचार्यश्री कुन्दकुन्द एवं
डॉ. कुलदीपकुमार उनका दर्शनपाहुड दर्शनपाहुड : एक अध्ययन
डॉ. कस्तूरचन्द जैन 'सुमन' जैन अध्यात्म योग का महत्त्वपूर्ण डॉ. अनेकान्तकुमार जैन
ग्रन्थ : मोक्षपाहुड 8. मुनिराज ही जिनबिम्ब एवं जिनप्रतिमा डॉ. (प्रो.) कुसुम पटोरिया 9. अष्टपाहुड में श्रमण और श्रमणाभास डॉ. (कु.) आराधना जैन
'स्वतन्त्र' 10. परिणामादो बंधो मुक्खो
आचार्य कुन्दकुन्द 11. अष्टपाहुड और जैन साधु
डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
57 63
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जैन विद्या ( शोध-पत्रिका)
सूचनाएँ
पत्रिका सामान्यतः वर्ष में एक बार, महावीर जयन्ती पर प्रकाशित होगी।
पत्रिका में शोध - खोज, अध्ययन-अनुसन्धान सम्बन्धी मौलिक अप्रकाशित रचनाओं को ही स्थान मिलेगा ।
रचनाएँ जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित किया जाएगा। स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का उत्तरदायित्व रचनाकार का होगा ।
यह आवश्यक नहीं कि प्रकाशक, सम्पादक लेखकों के अभिमत से सहमत हों।
रचनाएँ कागज के एक ओर कम से कम 3 सेण्टीमीटर का हाशिया छोड़कर सुवाच्य अक्षरों में लिखी अथवा टाइप की हुई होनी चाहिए। अस्वीकृत / अप्रकाशित रचनाएँ लौटाई नहीं जायेंगी।
रचनाएँ भेजने एवं अन्य प्रकार के पत्र - व्यवहार के लिए पता
-
सम्पादक
जैन विद्या जैन विद्या संस्थान
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी
सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 फोन नं. : 0141-2385247
ई-मेल : jainapa@rediffmail.com
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प्रकाशकीय
जैनविद्या संस्थान की शोध-पत्रिका 'जैनविद्या' का यह अंक ‘अष्टपाहुड विशेषांक' के रूप में प्रकाशित कर अत्यन्त प्रसन्नता है। ___'अष्टपाहुड' प्राकृत भाषा में निबद्ध एक आध्यात्मिक रचना है, इसमें आठ विषयों को लक्ष्य किया गया है। इसके रचयिता हैं - ‘आचार्य कुन्दकुन्द'। आचार्य कुन्दकुन्द एक उच्चकोटि के दार्शनिक, अतिशय ज्ञानसम्पन्न, आध्यात्मिक विद्वान थे। ये दिगम्बर जैन परम्परा के एक दृढ़स्तम्भ हैं। आचार्य कुन्दकुन्द तीर्थंकर महावीर व गौतम गणधर के बाद उत्तरवर्ती जैनाचार्यों की परम्परा में सबसे पहले स्मरण किये जाते हैं। जैन दर्शन व संस्कृति के उन्नयन में इनका साहित्यिक अवदान अनुपम है।
आचार्य कुन्दकुन्द के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के आधार से संस्थान द्वारा पूर्व में भी 'जैनविद्या' का एक अंक ‘आचार्य कुन्दकुन्द विशेषांक' के रूप में प्रकाशित है।
'अष्टपाहुड' इनकी एक विशिष्ट एवं प्रमुख रचना है। यह अंक इसी रचना पर आधारित है। इस अंक के विन्यास में जिन विद्वान लेखकों का योगदान है उन सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। पत्रिका के सम्पादक, सम्पादक-मण्डल के सदस्य, सहयोगी सम्पादक सभी धन्यवादाह हैं।
न्यायाधिपति नरेन्द्रमोहन कासलीवाल
महेन्द्रकुमार पाटनी अध्यक्ष
प्रबन्धकारिणी कमेटी, . दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
मंत्री
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सम्पादकीय
“पाँच सौ तीन गाथाओं में निबद्ध एवं आठ पाहुडों में विभक्त यह अष्टपाहुड ग्रंथ मूलसंघ के पट्टाचार्य आचार्य कुन्दकुन्द की अमरकृति है।"
“आचार्य कुन्दकुन्द ने विविध पक्ष युक्त पाहुड ग्रन्थों की रचना की है। वे सभी अध्यात्म जगत में ‘अष्टपाहुड' नाम से नहीं अपितु ‘पाहुड' नाम से जाने जाते हैं। 'अष्टपाहुड' में दंसणपाहुड, सुत्तपाहुड, चारित्रपाहुड, बोहपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड और सीलपाहुड - ये आठ पाहुड नाम के अनुसार अपने-अपने विषय की विशुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि को दिखलाते हैं।"
"ये अष्टपाहुड श्रावक व श्रमण के आचरण के निर्देशक ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य के प्रशासक रूप में दर्शन होते हैं, जहाँ उन्होंने आचरण को अनुशासित करने का उपदेश दिया है, साथ ही शिथिलाचरण के विरुद्ध आचरण से सावचेत रहने का सन्देश दिया है।'' ___“सणपाहुड की 36 गाथाओं में सम्यग्दर्शन, सुत्तपाहुड की 27 गाथाओं में सम्यग्ज्ञान, चारित्तपाहुड की 45 गाथाओं में सम्यक्त्वाचरण व संयमाचरण के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। बोध पाहुड में 62 गाथाओं में साधु के 11 स्थल, भाव पाहुड की 165 गाथाओं में भावशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। मोक्षपाहुड की 106 गाथाओं में मोक्ष के कारणों का निरूपण हुआ है। लिंग पाहुड की 22 गाथाओं में बाह्य लिंगमात्र से मोक्ष की अप्राप्ति और शीलपाहुड की 40 गाथाओं में शील का माहात्म्य और शील को मोक्ष की प्रथम सीढ़ी बताया है। इस प्रकार कुल 503 गाथाओं में आचार्यश्री ने श्रावक व श्रमण दोनों के लौकिक व पारलौकिक अभ्युदय व निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त किया है।"
(vii)
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'आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में उन जीवन-मूल्यों का समावेश है जिनसे प्राणीमात्र का हित सम्पादित होता है। साहित्य वही है जो हमारी आत्मचेतना को जगा दे। यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धिः सधर्मः - धर्म वही है जो मानवमात्र के इस लोक के अभ्युदय और पारलौकिक जीवन में देह-मुक्ति का कारण बने । आचार्य कुन्दकुन्द का वाङ्मय यह अभीष्ट सिद्धि प्रदाता है । अष्टपाहुड में निबद्ध साहित्य श्रमण व श्रावक / साधु व गृहस्थ दोनों के हितार्थ प्रशस्त मार्ग का निदर्शन है। प्रारम्भ के तीन पाहुड दर्शन, ज्ञान और चारित्र की रत्नत्रयी हैं। प्रत्येक पाहुड अपने में स्वतन्त्र ग्रन्थ है। प्रत्येक का प्रारम्भ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा वाक्य से होता है और समापन शिक्षात्मक निष्कर्ष के रूप में है।
“ये आठ ग्रन्थ जीवन-मूल्यपरक हैं जहाँ प्रत्येक मूल्यात्मक अनुभूति मनुष्य के ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पक्ष की मिली-जुली अनुभूति होती है । समग्र दृष्टि इन दोनों के महत्त्व को स्वीकारने से उत्पन्न होती है । "
"इनमें भाव, गति, लय, कवित्व शक्ति, ओज, प्रसाद एवं माधुर्य गुण, शब्द और अर्थ की गंभीरता तथा रमणीय अर्थ की सजीवता है। ये सभी पाहुड 'गाहा' (गाथा) छंद में निबद्ध हैं। इनमें अनुष्टुप, गाहू, विग्गाहा, विपुला आदि छंद भी हैं। "
" आचार्य कुन्दकुन्द रचित पाहुडों में शान्तरस की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म के इन पाहुडों में हास्य, करुणा, वीभत्स, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसों का प्रयोग भी है। रस, आनन्द और हित वस्तु तत्त्व की अनुभूति है। रस सुख की ओर भी ले जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में अनुभूति, परम- अनुभूति, परमार्थ अनुभूति या विशुद्ध परिणाम की अनुभूति आभ्यन्तर चेतना का प्राण कहा जाता है। रस आत्म-स्थित भावों को अभिव्यक्त करता है । सत्काव्य आनन्ददायी होता है, यदि वही काव्य आध्यात्मिक विचारों से परिपूर्ण हो तो वैराग्य अवश्य ही उत्पन्न करेगा। संसार से विरक्ति, आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति में अवश्य होती है। "
“आचार्यश्री के काव्यों में अनुप्रास, उपमा, रूपक, दृष्टान्त एवं उदाहरणों की बहुलता है। "
(viii)
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“आध्यात्मिक क्षेत्र में आचार्य कुन्दकुन्द का 'दर्शनपाहुड' एक बहुत ही क्रान्तिकारी रचना है। इस जैसी दूसरी रचना समूचे जैन वाङ्मय में दुर्लभ है। प्रतीत होता है कि यदि यह रचना नहीं होती तो सम्यग्दर्शन का ऐसा अद्भुत महत्त्व प्रकाशित नहीं हो पाता।"
“आचार्य ने तत्त्व-श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। उनकी दृष्टि में शुद्ध आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व ही मोक्ष प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रतीत होता है। इसे उन्होंने रत्नत्रय में साररूप मोक्ष की प्रथम सीढ़ी कहा है। इसे अच्छे अभिप्राय से धारणीय बताया है।"
“अष्टपाड में श्रमण का स्वरूप मूलाचार या श्रमणाचार के ग्रन्थों में वर्णित स्वरूपवत् न होकर प्रकीर्णक रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। जैसे-चारित्रपाहुड में पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति के स्वरूप; सूत्र पाहुड में पाणिपात्र में आहार ग्रहण करने, भावपाहुड में भावलिंग की प्रधानता से साधुस्वरूप तथा भाव विशुद्धि बनाये रखने का संदेश, परीषह-उपसर्ग सहने की प्रेरणा, अनुप्रेक्षा, विनय, ध्यान का निरूपण; मोक्षपाहुड में स्वद्रव्य-ध्यान, सम्यक्चारित्र, समभाव चारित्र; शीलपाहुड में शील की श्रेष्ठता का विवेचन है। यहाँ श्रमण के स्वरूप, वंदनीय तथा अवंदनीय श्रमण कौन है? अवंदनीय होने के कारण, श्रमणाभास आदि विषयों पर विचार किया जा रहा है।"
“आचार्य कुन्दकुन्ददेव की सारी चिन्ता एक ओर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझाने की है, तो दूसरी ओर श्रमण धर्म का निरूपण कर उन्हें आत्माभिमुख बनाने की है। वे मुनि के द्रव्यलिंग और भावलिंग किसी में भी किंचित् भी शिथिलता नहीं चाहते थे। सुत्तपाहुड में उन्होंने निश्चेल और पाणिपात्र को ही जिनेन्द्र-कथित मोक्षमार्ग बताया है।"
“अन्त में आचार्य यह भी कहते हैं कि चारित्र अपनी शक्ति के अनुसार करें किन्तु चारित्र के प्रति श्रद्धान अवश्य रखें। जहाँ श्रद्धान होता है श्रद्धा के अनुकूल आचार भी समय आने पर प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। अतः सम्यक्त्वाचरण को आधार बनाकर मोक्ष की ओर बढ़ने में सार है।"
(ix)
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इस विशेषांक के निर्माण में जिन विद्वान लेखकों का सहयोग प्राप्त हुआ उन सबके प्रति आभार प्रकट करते हुए भविष्य में भी सहयोग की अपेक्षा करते हैं।
संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल, सहयोगी सम्पादक एवं अन्य सहयोगी कार्यकर्त्ताओं के प्रति भी आभारी हैं।
मुद्रण हेतु जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि.,
जयपुर
धन्यवादाह है।
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
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जैनविद्या 26
अप्रेल 2013-2014
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अष्टपाहुड : एक विहंगावलोकन
- डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
पाँच सौ तीन गाथाओं में निबद्ध एवं आठ पाहुडों में विभक्त यह अष्टपाहुड ग्रंथ मूलसंघ के पट्टाचार्य कठोर प्रशासक आचार्य कुन्दकुन्द की एक ऐसी अमर कृति है जो दो हजार वर्षों से लगातार शिथिलाचार के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाती चली आ रही है। इसकी उपयोगिता पंचम काल के अन्त तक बनी रहेगी; क्योंकि यह अवसर्पिणी काल है, इसमें शिथिलाचार तो उत्तरोत्तर बढ़ना ही है। अतः इसकी उपयोगिता भी निरन्तर बढ़ती ही जानी है।
आज समृद्धि और सुविधाओं के मोह से आच्छन्न शिथिलाचारी श्रावकों एवं समन्वय के नाम पर सब जगह झुकनेवाले नेताओं द्वारा अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए साधुवर्ग में व्याप्त अपरिमित शिथिलाचार को भरपूर संरक्षण दिया जा रहा है, पाल-पोषकर पुष्ट किया जा रहा है; अतः आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है।
इतिहास साक्षी है कि दिगम्बर जैन समाज में वृद्धिंगत शिथिलाचार के विरुद्ध जबजब भी आवाज बुलन्द हुई है तब-तब आचार्य कुन्दकुन्द की इस अमर कृति को याद किया जाता रहा है। इस ग्रन्थ के उद्धरणों का समाज पर अपेक्षित प्रभाव भी पड़ता है, परिणामस्वरूप समाज में शिथिलाचार के विरुद्ध एक वातावरण बनता है। यद्यपि विगत दो हजार वर्षों में
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उत्तरोत्तर सीमातीत शिथिलाचार बढ़ा है; तथापि आज जो कुछ भी मर्यादा दिखाई देती है, उसमें अष्टपाहुड का सर्वाधिक योगदान है।
अष्टपाहुड एक ऐसा अंकुश है जो शिथिलाचार के मदोन्मत्त गजराज को बहुत कुछ काबू में रखता है, सर्वविनाश नहीं करने देता। यदि अष्टपाहुड नहीं होता तो आज हम कहाँ पहुँच गये होते - इसकी कल्पना करना भी कष्टकर प्रतीत होता है।
अतः यह कहने में रंचमात्र भी संकोच नहीं करना चाहिए कि अष्टपाहुड की उपयोगिता निरन्तर रही है और पंचम काल के अन्त तक बनी रहेगी।
वीतरागी जिनधर्म की निर्मल धारा के अविरल प्रवाह के अभिलाषी आत्मार्थीजनों को स्वयं तो इस कृति का गहराई से अध्ययन करना ही चाहिए, इसका समुचित प्रचार-प्रसार भी करना चाहिए, जिससे सामान्यजन भी शिथिलाचार के विरुद्ध सावधान हो सकें। इसमें प्रतिपादित विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है - (1) दर्शनपाहुड
छत्तीस गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में मंगलाचरणोपरान्त आरम्भ से ही सम्यग्दर्शन की महिमा बताते हए आचार्यदेव लिखते हैं - जिनवरदेव ने कहा है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है; अतः जो जीव सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे वंदनीय नहीं हैं (2)। भले ही वे अनेक शास्त्रों के पाठी हों, उग्र तप करते हों, करोड़ों वर्ष तक तप करते रहें; तथापि जो सम्यग्दर्शन से रहित हैं, उन्हें आत्मोपलब्धि नहीं होती, निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती, आराधना से रहित होने के कारण वे संसार में ही भटकते रहते हैं (4)। किन्तु जिनके हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है, उन्हें कर्मरूपी रज का आवरण नहीं लगता, उनके पूर्वबद्ध कर्मों का भी नाश हो जाता है (7)।
__ जो जीव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों से ही भ्रष्ट हैं, वे तो भ्रष्टों में भी भ्रष्ट हैं; वे स्वयं तो नाश को प्राप्त होते ही हैं, अपने अनुयायियों को भी नष्ट करते हैं। ऐसे लोग अपने दोषों को छुपाने के लिए धर्मात्माओं को दोषी बताते रहते हैं (8)।
जिस प्रकार मूल के नष्ट हो जाने पर उसके परिवार - स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फल की वृद्धि नहीं होती; उसी प्रकार सम्यग्दर्शनरूपी मूल के नष्ट होने पर संयम आदि की वृद्धि नहीं होती(10)। यही कारण है कि जिनेन्द्र भगवान ने सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहा है (11)।
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जो जीव स्वयं तो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, पर अपने को संयमी मानकर सम्यग्दृष्टि से अपने पैर पुजवाना चाहते हैं; वे लूले और गूंगे होंगे अर्थात् वे निगोद में जावेंगे, जहाँ न तो चल-फिर ही सकेंगे और न बोल सकेंगे; उन्हें बोधिलाभ अत्यन्त दुर्लभ है (12)। इसी प्रकार जो जीव लज्जा, गारव और भय से सम्यग्दर्शनरहित लोगों के पैर पूजते हैं, वे भी उनके अनुमोदक होने से बोधि को प्राप्त नहीं होंगे (13)।
__ जिस प्रकार सम्यग्दर्शनरहित व्यक्ति वंदनीय नहीं है, उसी प्रकार असंयमी भी वंदनीय नहीं है (26)। भले ही बाह्य में वस्त्रादि का त्याग कर दिया हो, तथापि यदि सम्यग्दर्शन और अंतरंग संयम नहीं है तो वह वंदनीय नहीं है; क्योंकि न देह वंदनीय है, न कुल वंदनीय है, न जाति वंदनीय है (27)। वंदनीय तो एक मात्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप गुण ही है; अतः रत्नत्रय-विहीन की वंदना जिनमार्ग में उचित नहीं है।
जिस प्रकार गुणहीनों की वंदना उचित नहीं है, उसी प्रकार गुणवानों की उपेक्षा भी अनुचित है। अतः जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रवन्त मुनिराजों की भी मत्सरभाव से वंदना नहीं करते हैं, वे भी सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा नहीं हैं।
अरे भाई! जो शक्य हो, करो; जो शक्य न हो न करो, पर श्रद्धान तो करना ही चाहिए; क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा है (22)। यह सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में सार है, मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है। इस सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं।
इस प्रकार सम्पूर्ण दर्शनपाहुड सम्यक्त्व की महिमा से ही भरपूर है। इस पाहुड में समागत निम्नांकित सूक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं - 1. दंसणमूलो धम्मो - धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। (2) 2. सणहीणो ण वंदिव्वो - सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति वंदनीय नहीं है। (2)
दसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं - जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनको मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। (3) सोवाणं पढमं मोक्खस्स - सम्यग्दर्शन मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है। (21) जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केई तं च सद्दहणं - जो शक्य हो, करो; जो शक्य न हो, न करो; पर श्रद्धान तो करो ही। (22)
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जैनविद्या 26
(2) सूत्रपाहुड
सत्ताईस गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में अरहंतों द्वारा कथित, गणधर देवों द्वारा निबद्ध, वीतरागी नग्न दिगम्बर सन्तों की परम्परा से समागत सुव्यवस्थित जिनागम को सूत्र कहकर श्रमणों को उसमें बताये मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी गई है ( 1 ); जिस प्रकार सूत्र (डोरा) सहित सुई खोती नहीं है, उसी प्रकार सूत्रों (आगम) के आधार पर चलनेवाले श्रमण भ्रमित नहीं होते, भटकते नहीं हैं (3)।
सूत्र में कथित जीवादि तत्त्वार्थों एवं तत्संबंधी हेयोपादेय संबंधी ज्ञान और श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। यही कारण है कि सूत्रानुसार चलनेवाले श्रमण कर्मों का नाश करते हैं। सूत्रानुशासन से भ्रष्ट साधु संघपति हो, सिंहवृत्ति हो, हरिहर-तुल्य ही क्यों न हो; सिद्धि को प्राप्त नहीं करता, संसार में ही भटकता है ( 8 ) । अतः श्रमणों को सूत्रानुसार ही प्रवर्तन करना चाहिए।
जिनसूत्रों में तीन लिंग (भेष) बताये गये हैं; उनमें सर्वश्रेष्ठ लिंग नग्न दिगम्बर साधुओं का है, दूसरा लिंग उत्कृष्ट श्रावकों का है और तीसरा लिंग आर्यिकाओं का है। इनके अतिरिक्त कोई भेष नहीं है जो धर्म की दृष्टि से पूज्य हो ।
साधु के लिंग (भेष) को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं -
जह जायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं । । 18 ।।
- जैसा बालक जन्मता है, साधु का रूप वैसा ही यथाजात (नग्न) होता है। उसके तिल-तुषमात्र भी परिग्रह नहीं होता। यदि कोई साधु थोड़ा-बहुत भी परिग्रह ग्रहण करता है तो वह निश्चित रूप से निगोद जाता है।
स्त्रियों के उत्कृष्ट साधुता संभव नहीं है, तथापि वे पापयुक्त नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्यग्दर्शन, ज्ञान और एकदेश चारित्र हो सकता है ( 25 )
।
इस प्रकार सम्पूर्ण सूत्रपाहुड में सूत्रों में सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी गई है।
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(3) चारित्रपाहुड
पैंतालीस गाथाओं में निबद्ध इस चारित्रपाहुड में सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र के भेद से चारित्र के भेद किये गये हैं और कहा गया है कि जिनोपदिष्ट ज्ञान-दर्शन शुद्ध सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और शुद्ध आचरणरूप चारित्र संयमाचरण है।
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शंकादि आठ दोषों से रहित, निःशंकादि आठ गुणों (अंगों) से सहित, तत्त्वार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर श्रद्धान और आचरण करना ही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है ( 7 ) ।
संयमाचरण चारित्र सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार का होता है ( 21 ) । ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त श्रावक के संयम को सागार संयमाचरण चारित्र कहते हैं (22)। पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति आदि जो उत्कृष्ट संयम निर्ग्रन्थ मुनिराजों के होता है, .वह अनगार संयमाचरण चारित्र है ( 28 ) |
जो व्यक्ति सम्यक्त्वा चरण चारित्र को धारण किये बिना संयमाचरण चारित्र को धारण करते हैं, उन्हें मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती ( 10 ) ; सम्यक्त्वाचरण सहित संयमाचरण को धारण करनेवाले को ही मुक्ति की प्राप्ति होती है।
उक्त सम्यक्त्वाचरण चारित्र निर्मल सम्यग्दर्शन - ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः यहाँ प्रकारान्तर से यही कहा गया है कि बिना सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र के मात्र बाह्य क्रियाकाण्डरूप चारित्र धारण कर लेने से कुछ भी होने वाला नहीं है।
इस प्रकार इस अधिकार में सम्यग्दर्शन - ज्ञान सहित निर्मल चारित्र धारण करने की प्रेरणा दी गई है (40)।
(4) बोधपाहुड
बासठ गाथाओं में निबद्ध और आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा आदि ग्यारह स्थानों में विभक्त इस पाहुड में ग्यारह स्थानों के माध्यम से एक प्रकार से दिगम्बर धर्म और निर्ग्रन्थ साधु का स्वरूप ही स्पष्ट किया गया है। उक्त ग्यारह स्थानों को निश्चय - व्यवहार की संधिपूर्वक समझाया गया है। इन सबके व्यावहारिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि निश्चय से निर्दोष निर्ग्रन्थ साधु ही आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जिनप्रतिमा हैं, दर्शन हैं, जिनबिंब हैं, जिनमुद्रा हैं, ज्ञान हैं, देव हैं, तीर्थ हैं, अरहंत हैं और प्रव्रज्या हैं (3-4)।
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(5) भावपाहुड
भावशुद्धि पर विशेष बल देनेवाली एक सौ पैंसठ गाथाओं के विस्तार में फैले इस भावपाहुड का सार संक्षिप्तरूप से इस प्रकार है
-
बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है, परन्तु रागादि अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य त्याग निष्फल ही है (3)। क्योंकि अंतरंग भावशुद्धि बिना करोड़ों वर्ष तक भी बाह्य तप करें, तब भी सिद्धि नहीं होती (4)। अतः मुक्तिमार्ग के पथिकों को सर्वप्रथम भाव को ही पहचानना चाहिए (6)।
हे आत्मन्! तूने भावरहित निर्ग्रन्थ रूप तो अनेक बार ग्रहण किये हैं (7), पर भावलिंग बिना-शुद्धात्मतत्व की भावना बिना चतुर्गति में भ्रमण करते हुए अनन्त दुःख उठाये हैं (8)। नरकगति में सर्दी, गर्मी, आवासादि के; तिर्यंचगति में खनन, ज्वलन, वेदना व्युच्छेदन, निरोधन आदि के; मनुष्यगति में आगन्तुक, मानसिक, शारीरिक आदि एवं देवगति में वियोग, हीन भावना आदि के दुःख भोगे हैं ( 9-10 ) ।
अधिक क्या कहें, आत्मभावना के बिना तू माँ के गर्भ में महा अपवित्र स्थान में सिकुड़ के रहा (11)। आज तक तूने इतनी माताओं का दूध पिया है कि यदि उसे इकट्ठा किया जावे तो सागर भर जावे। तेरे जन्म-मरण से दुःखी माताओं के अश्रुजल से भी सागर भर जावे। इसी प्रकार तूने इस अनंत संसार में इतने जन्म लिये हैं कि उनके केश, नख, नाल और अस्थियों को इकट्ठा करें तो सुमेरु पर्वत से भी बड़ा ढेर हो जावे (1820)1
हे आत्मन्! तूने आत्मभावरहित होकर तीन लोक में जल, थल, अग्नि, पवन, गिरि, नदी, वृक्ष, वन आदि स्थलों पर सर्वत्र सर्व दुःख सहित निवास किया ( 21 ); सर्व पुद्गलों का बार-बार भक्षण किया, फिर भी तृप्ति नहीं हुई ( 22 ) । इसी प्रकार तृषा से पीड़ित होकर तीन लोक का समस्त जल पिया, तथापि तृषा शांत न हुई ( 23 )। अतः अब समस्त बातों का विचार कर, भव को समाप्त करनेवाले रत्नत्रय का चिंतन कर ।
हे धीर! तुमने अनन्त भवसागर में अनेक बार उत्पन्न होकर अपरिमित शरीर धारण किये व छोड़े हैं, जिनमें से मनुष्यगति में विषभक्षणादि व तिर्यंचगति में हिमपातादि द्वारा कुमरण को प्राप्त होकर महादुःख भोगे हैं ( 25-27)। निगोद में तो एक अन्तर्मुहूर्त में छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण किया है ( 28 ) |
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हे जीव! तूने रत्नत्रय के अभाव में दुःखमय संसार में अनादिकाल से भ्रमण किया है (30), अतः अब तुम आत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप रत्नत्रय की प्राप्ति करो, ताकि तुम्हारा मरण कुमरण न बनकर सुमरण बन जाए और शीघ्र ही शाश्वत सुख को प्राप्त करो (31)।
अब आचार्य भावरहित मात्र द्रव्यलिंग धारण करने के पश्चात् हुए दुःखों का वर्णन करते हैं -
हे मुनिवर! तीन लोक में कोई ऐसा स्थल शेष नहीं है, जहाँ तूने द्रव्यलिंग धारण कर जन्म-मरण धारण न किया हो (33)। न ही कोई पुद्गल ऐसा बचा है, जिसे तूने ग्रहण कर छोड़ा न हो; फिर भी तेरी मुक्ति नहीं हुई (35), अपितु भावलिंग न होने से अनंतकाल तक जन्म-जरा आदि से पीड़ित होते हुए दुःखों को ही भोगा है। _अधिक क्या कहें, इस मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल में 96-96 रोग होते हैं (37), फिर सम्पूर्ण शरीर के रोगों का तो कहना ही क्या है? पूर्वभवों में उन समस्त रोगों को तूने सहा है एवं आगे भी सहेगा (38)।
हे मुनि! तू माता के अपवित्र गर्भ में रहा। वहाँ माता के उच्छिष्ट भोजन से बना हुआ रस रूपी आहार ग्रहण किया (39-40)। फिर बाल अवस्था में अज्ञानवश अपवित्र स्थान में, अपवित्र वस्तु में लेटा रहा व अपवित्र वस्तु ही खाई (41)।
हे मुनि! यह देहरूपी घर मांस, हाड़, शुक्र, रुधिर, पित्त, अंतड़ियों, खसिर (रुधिर के बिना अपरिपक्व मल) वसा और पूय (खराब खून) - इन सब मलिन वस्तुओं से भरा है, जिसमें तू आसक्त होकर अनन्तकाल से दुःख भोग रहा है (42)।
आचार्यदेव समझाते हुए कहते हैं कि हे धीर! जो सिर्फ कुटुम्बादि से मुक्त हुआ, वह मुक्त नहीं है; अपितु जो आभ्यन्तर की वासना छोड़कर भावों से मुक्त होता है, उसी को मुक्त कहते हैं - ऐसा जानकर आभ्यन्तर की वासना छोड़ (43)। भूतकाल में अनेक ऐसे मुनि हुए हैं, जिन्होंने देहादि परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ रूप धारण किया, किन्तु मानादिक नहीं छोड़े; अतः सिद्धि नहीं हुई (44)। जब निर्मान हुए, तभी मुक्ति हुई। द्रव्यलिंगी उग्रतप करते हुए अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त कर लेता है, किन्तु क्रोधादि के उत्पन्न होने के कारण उसकी वे ऋद्धियाँ स्व-पर के विनाश का ही कारण होती हैं, जैसे बाहु और द्वीपायन मुनि (49-50)।
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भावशुद्धि बिना एकादश अंग का ज्ञान भी व्यर्थ है; किन्तु यदि शास्त्रों का ज्ञान न हो और भावों की विशुद्धता हो तो आत्मानुभव के होने से मुक्ति प्राप्त हुई है। जैसे - शिवभूति मुनि (53)।
उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भावरहित नग्नत्व अकार्यकारी है। भावसहित द्रव्यलिंग में ही कर्मप्रकृति के समूह का नाश होता है (54)। हे धीरमुनि! इस प्रकार जानकर तुझे आत्मा की ही भावना करना चाहिए (55)।
जो मुनि देहादिक परिग्रह व मानकषाय से रहित होता हुआ आत्मा में लीन होता है, वह भावलिंगी है (56)। भावलिंगी मुनि विचार करता है कि मैं परद्रव्य व परभावों से ममत्व को छोड़ता हूँ। मेरा स्वभाव ममत्वरहित है, अतः मैं अन्य सभी आलम्बनों को छोड़कर आत्मा का आलम्बन लेता हूँ (57)। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, योग - ये सभी भाव अनेक होने पर भी एक आत्मा में ही हैं। संज्ञा, संख्यादि के भेद से उन्हें भिन्न-भिन्न कहा जाता है (58)। मैं तो ज्ञान-दर्शनस्वरूप शाश्वत आत्मा ही हूँ; शेष सब संयोगी पदार्थ परद्रव्य हैं, मुझसे भिन्न हैं (59)। अतः हे आत्मन्! तुम यदि चार गति से छूटकर शाश्वत सुख को पाना चाहते हो तो भावों से शुद्ध होकर अतिनिर्मल आत्मा का चिन्तन करो (60)। जो जीव ऐसा करता है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है (61)।
जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण, अनिर्दिष्ट-संस्थान व चेतना गुणवाला है। चैतन्यमयी ज्ञानस्वभावी जीव की भावना कर्मक्षय का कारण होती है, (64)।
___ भाव की महिमा बताते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रावकत्व व मुनित्व के कारणभूत भाव ही हैं (66)। भावसहित द्रव्यलिंग से ही कर्मों का नाश होता है। यदि नग्नत्व से ही कार्यसिद्धि हो तो नारकी, पशु आदि सभी जीवसमूह को नग्नत्व के कारण मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, अपितु वे महादुःखी ही हैं। अतः यह स्पष्ट है कि भावरहित नग्नत्व से दुःखों की ही प्राप्ति होती है, संसार में ही भ्रमण होता है (67)।
बाह्य में नग्न मुनि पैशून्य, हास्य, भाषा आदि कार्यों से मलिन होता हुआ स्वयं अपयश को प्राप्त करता है एवं व्यवहार धर्म की भी हँसी कराता है; इसलिए आभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर ही निर्ग्रन्थ बाह्यलिंग धारण करना चाहिए (69)।
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भावरहित द्रव्यलिंग की निरर्थकता बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस मुनि में धर्म का वास नहीं है, अपितु दोषों का आवास है, वह तो इक्षुफल के समान है, जिसमें न तो मुक्तिरूपी फल लगते हैं और न रत्नत्रयरूप गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं (71)।
अतः हे आत्मन्! पहले मिथ्यात्वादि आभ्यन्तर दोषों को छोड़कर, भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर, बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग धारण करना चाहिए (73)।
___शुद्धात्मा की भावना से रहित मुनियों द्वारा किया गया बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरिकन्दरादि का आवास, ज्ञान, अध्ययन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं। इसलिए हे मुनि! लोक का मनोरंजन करनेवाला मात्र बाह्य वेष ही धारण न कर, इन्दियों की सेना का भंजन कर, विषयों में मत रम, मनरूपी बन्दर को वश में कर, मिथ्यात्व, कषाय व नव नोकषायों को भावशुद्धिपूर्वक छोड़, देव-शास्त्र-गुरु की विनय कर, जिनशास्त्रों को अच्छी तरह समझकर शुद्धभावों की भावना कर; जिससे तुझे क्षुधा-तृषादि वेदना से रहित त्रिभुवन चूडामणी सिद्धत्व की प्राप्ति होगी (94)।
हे मुनि! तू बाईस परीषहों को सह(94); बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना कर (96); भावशुद्धि के लिए नवपदार्थ, सप्ततत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान आदि की नामलक्षणादिकपूर्वक भावना कर (97); दशप्रकार के अब्रह्मचर्य को छोड़कर नवप्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रगट कर (98)। इस प्रकार भावपूर्वक द्रव्यलिंगी मुनि ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप को प्राप्त करता है, भावरहित द्रव्यलिंगी तो चारों गतियों में अनंत दुःखों को भोगता है (99)।
हे मुनि! तू संसार को असार जानकर केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्मल सम्यग्दर्शन सहित दीक्षा लेने की भावना कर (110), भावों से शुद्ध होकर बाह्यलिंग धारण कर, उत्तम गुणों का पालन कर (113)। जीव, अजीव, आस्रव, बंध और संवरतत्त्व का चिन्तन कर (114), मन-वचन-काय से शुद्ध होकर आत्मा का चिन्तन कर; क्योंकि जब तक विचारणीय जीवादि तत्त्वों का विचार नहीं करेगा, तब तक अविनाशी पद की प्राप्ति नहीं होगी (115)। ____ हे मुनिवर! पाप-पुण्य बंधादि का कारण परिणाम ही है (116)। मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योगरूप भावों से पाप का बंध होता है (117)। मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव पुण्य को बाँधता है (118)। अतः तुम ऐसी भावना करो कि मैं ज्ञानावरणीय आठ कर्मों से
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आच्छादित हूँ, मैं इन्हें समाप्त कर निज स्वरूप को प्रकट करूँ (119)। अधिक कहने से क्या? तू तो प्रतिदिन शील व उत्तरगुणों का भेद-प्रभेदों सहित चिन्तन कर (120)।
हे मुनि! ध्यान से मोक्ष होता है। अतः तुम आर्त्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म व शुक्ल ध्यान को धारण करो (121)। द्रव्यलिंगी के धर्म व शुक्ल ध्यान नहीं होता, अतः वह संसाररूप वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं है (122)। जिस मुनि के मन में रागरूप पवन से रहित धर्मरूपी दीपक जलता है, वही आत्मा को प्रकाशित करता है (123), वही संसाररूपी वृक्ष को ध्यानरूपी कुल्हाड़ी से काटता है।
__ ज्ञान का एकाग्र होना ही ध्यान है (125)। ध्यान द्वारा कर्मरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है, जिससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है (126), अतः भावश्रमण तो सुखों को प्राप्त कर तीर्थंकर व गणधर आदि पदों को प्राप्त करते हैं; पर द्रव्यश्रमण दुःखों को ही भोगता है। अतः गुण-दोषों को जानकर तुम भावसहित संयमी बनो (127)।
भावश्रमण विद्याधरादि की ऋद्धियों को नहीं चाहता, न ही वह मनुष्य-देवादि के सुखों की वांछा करता है (130), वह चाहता है कि मैं शीघ्रातिशीघ्र आत्महित कर लूँ (131)।
हे धीर! जिस प्रकार गुड़मिश्रित दूध के पीने पर भी सर्प विषरहित नहीं होता, उसी प्रकार अभव्य जीव जिनधर्म के सुनने पर भी अपनी दुर्मत से आच्छादित बुद्धि को नहीं छोड़ता (138)! वह मिथ्या धर्म से युक्त रहता हुआ मिथ्या धर्म का पालन करता है, अज्ञान तप करता है, जिससे दुर्गति को प्राप्त होता हुआ संसार में भ्रमण करता है; अतः तुझे 363 मतों के मार्ग को छोड़कर जिनधर्म में मन लगाना चाहिए (142)।
सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार लोक में जीवरहित शरीर को 'शव' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष 'चल शव' है (143)। शव लोक में अपूज्य होता है और सम्यग्दर्शनरहित पुरुष लोकोत्तर मार्ग में अपूज्य होता है। मुनि व श्रावक धर्मों में सम्यक्त्व की ही विशेषता है। जिसप्रकार ताराओं के समूह में चन्द्रमा सुशोभित होता है, पशुओं में मृगराज सुशोभित होता है; उसी प्रकार जिनमार्ग में जिनभक्ति सहित निर्मल सम्यग्दर्शन से युक्त तप-व्रतादि से निर्मल जिनलिंग सुशोभित होता है (145)।
इस प्रकार सम्यक्त्व के गुण व मिथ्यात्व के दोषों को जानकर गुणरूपी रत्नों के सार मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन को भावपूर्वक धारण करना चाहिए (146-147)।
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__ जिस प्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी स्वभाव से ही विषय-कषायों में लिप्त नहीं होता (154)। आचार्यदेव कहते हैं कि जो भावसहित सम्पूर्ण शील-संयमादि गुणों से युक्त हैं, उन्हें ही हम मुनि कहते हैं। मिथ्यात्व से मलिन चित्तवाले बहुत दोषों के आवास मुनिवेष धारी जीव तो श्रावक के समान भी नहीं हैं (155)।
जो इन्द्रियों के दमन व क्षमारूपी तलवार से कषायरूपी प्रबल शत्रु की जीतते हैं, चारित्ररूपी खड्ग से पापरूपी स्तंभ को काटते हैं, विषयरूपी विष के फलों से युक्त मोहरूपी वृक्ष पर चढ़ी मायारूपी बेल को ज्ञानरूपी शस्त्र से पूर्णरूपेण काटते हैं(158); मोह, मद, गौरव से रहित और करुणाभाव से सहित हैं; वे मुनि ही वास्तविक धीर-वीर हैं (159)। वे मुनि ही चक्रवर्ती, नारायण, अर्धचक्री, देव, गणधर आदि के सुखों को
और चारण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं तथा सम्पूर्ण शुद्धता होने पर अजर, अमर, अनुपम, उत्तम, अतुल, सिद्ध सुख को भी प्राप्त करते हैं (161)।
भावपाहुड का उपसंहार करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि सर्वज्ञदेव कथित इस भावपाहुड को जो भव्य जीव भलीभांति पढ़ते हैं, सुनते हैं, चिन्तन करते हैं वे अविनाशी सुख के स्थान मोक्ष को प्राप्त करते हैं (165)।
___ इसप्रकार हम देखते हैं कि भावपाहुड में भावलिंग सहित द्रव्यलिंग धारण करने की प्रेरणा दी गई है। प्रकारान्तर से सम्यग्दर्शन सहित व्रत धारण करने का उपदेश दिया गया है। (6) मोक्षपाहुड
एक सौ छह गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में आत्मा की अनन्तसुखस्वरूप दशा मोक्ष एवं उसकी प्राप्ति के उपायों का निरूपण है। इसके आरम्भ में ही आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा - इन तीन भेदों का निरूपण करते हुए बताया गया है कि बहिरात्मपना हेय है, अन्तरात्मपना उपादेय है और परमात्मपना परम उपादेय है (4)।
आगे बंध और मोक्ष के कारणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि परपदार्थों में रत आत्मा बंधन को प्राप्त होता है और परपदार्थों से विरत आत्मा मुक्ति को प्राप्त करता है (13)। इस प्रकार स्वद्रव्य से सुगति और परद्रव्य से दुर्गति होती है - ऐसा जानकर हे आत्मन्! स्वद्रव्य में रति और परद्रव्य में विरति करो (16)।
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आत्मस्वभाव से भिन्न स्त्री-पुत्रादिक, धन-धान्यादिक सभी चेतन-अचेतन पदार्थ 'परद्रव्य' हैं (17) और इनसे भिन्न ज्ञानशरीरी, अविनाशी निज भगवान आत्मा स्वद्रव्य' है (18)। जो मुनि परद्रव्यों से परान्मुख होकर स्वद्रव्य का ध्यान करते हैं, वे निर्वाण को प्राप्त करते हैं (19)। अतः जो व्यक्ति संसाररूपी महार्णव से पार होना चाहते हैं, उन्हें अपने शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए।
आत्मार्थी मुनिराज सोचते हैं कि मैं किससे क्या बात करूँ; क्योंकि जो भी इन आँखों से दिखाई देता है, वे सब शरीरादि से जड़ हैं, मूर्तिक हैं, अचेतन हैं, कुछ समझते नहीं हैं और चेतन तो स्वयं ज्ञानस्वरूप है (29)। ___ जो योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने आत्मा के हित के कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है (31)। इस प्रकार जानकर योगीजन समस्त व्यवहार को त्यागकर आत्मा का ध्यान करते हैं (32)।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की परिभाषा बताते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि जो जाने सो ज्ञान; जो देखे सो दर्शन और पुण्य और पाप का परिहार ही चारित्र है अथवा तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन, तत्त्व का ग्रहण सम्यग्ज्ञान एवं पुण्य-पाप का परिहार सम्यक्चारित्र है।
___ तपरहित ज्ञान और ज्ञानरहित तप - दोनों ही अकार्य हैं, किसी काम के नहीं हैं, क्योंकि मुक्ति तो ज्ञानपूर्वक तप से होती है (59)। ध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, पर ज्ञानध्यान से भ्रष्ट कुछ साधुजन कहते हैं कि इस काल में ध्यान नहीं होता (73), पर यह ठीक नहीं है; क्योंकि आज भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के धनी साधुजन आत्मा का ध्यान कर लौकान्तिक देवपने को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर आगामी भव में निर्वाण की प्राप्ति करते हैं (77)। पर जिनकी बुद्धि पापकर्म से मोहित है, वे जिनेन्द्रदेव तीर्थंकर का लिंग (वेष) धारण करके भी पाप करते हैं; वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत ही हैं (78)।
निश्चयतप का अभिप्राय यह है कि जो योगी अपनी आत्मा में अच्छी तरह लीन हो जाता है, वह निर्मलचारित्र योगी अवश्य निर्वाण की प्राप्ति करता है (83)।
इस प्रकार मुनिधर्म का विस्तृत वर्णन कर श्रावकधर्म की चर्चा करते हुए सबसे पहले निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने की प्रेरणा देते हैं (86)। कहते हैं कि अधिक कहने से क्या लाभ है? मात्र इतना जान लो कि आज तक भूतकाल में जितने सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में भी जितने सिद्ध होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है (88)।
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आगे कहते हैं कि जिन्होंने सर्वसिद्धि करने वाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है, वे ही धन्य हैं, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं और वे ही पंडित हैं (89) । अन्त में मोक्षपाहुड का उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि सबसे उत्तम पदार्थ निज शुद्धात्मा ही है, जो इसी देह में रह रहा है। अरहंतादि पंचपरमेष्ठि भी निजात्मा में ही रत हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी इसी आत्मा की अवस्थाएँ हैं; अतः मुझे तो एक आत्मा का ही शरण है (105) ।
इस प्रकार इस अधिकार में मोक्ष और मोक्षमार्ग की चर्चा करते हुए स्वद्रव्य में रति करने का उपदेश दिया गया है तथा तत्त्वरुचि को सम्यग्दर्शन, तत्त्वग्रहण को सम्यग्ज्ञान एवं पुण्य-पाप के परिहार को सम्यक्चारित्र कहा गया है। अन्त में एकमात्र निज भगवान आत्मा की ही शरण में जाने की पावन प्रेरणा दी गई है।
इस अधिकार में समागत कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियाँ इस प्रकार हैं
1
1. आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं- आत्मस्वभाव में सुरत योगी निर्वाण का लाभ प्राप्त करता है। (12)
2. परदव्वादो दुग्गड़ सव्वादो हु सुग्गई होई - परद्रव्य के आश्रय से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य के आश्रय से सुगति होती है। (16)
3. तम्हा आदा हु मे सरणं- इसलिए मुझे एक आत्मा की ही शरण है। (105)
4. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जमि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे । । 31 ।।
योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने स्वरूप की साधना के काम में जागता है। और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने काम में सोता है।
5. किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं । । 88 ।।
अधिक कहने से क्या लाभ है, इतना समझ लो कि आज तक जो जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है।
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(7) लिंगपाहुड
बाईस गाथाओं के इस लिंगपाहुड में जिनलिंग का स्वरूप स्पष्ट करते हुए जिनलिंग धारण करनेवालों को अपने आचरण और भावों की सँभाल के प्रति सर्तक किया गया है।
आरंभ में ही आचार्य कहते हैं कि धर्मात्मा के लिंग (नग्नं दिगम्बर साधु वेष) तो होता है, किन्तु लिंग धारण कर लेने मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए हे भव्यजीवो! भावरूप धर्म को पहिचानो, अकेले लिंग (वेष) से कुछ होनेवाला नहीं है
(2)।
_ आगे चलकर अनेक गाथाओं में बड़े ही कठोर शब्दों में कहा गया है कि पाप से मोहित है बुद्धि जिनकी, ऐसे कुछ लोग जिनलिंग को धारण करके उसकी हँसी कराते हैं। निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके भी जो साधु परिग्रह का संग्रह करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, उसका चितवन करते हैं; वे नग्न होकर भी सच्चे श्रमण नहीं हैं, अज्ञानी हैं, पशु हैं।
इसीप्रकार नग्नवेष धारण करके भी जो भोजन में गद्धता रखते हैं, आहार के निमित्त दौड़ते हैं, कलह करते हैं, ईर्ष्या करते हैं, मनमाना सोते हैं, दौड़ते हुए चलते हैं, उछलते हैं, इत्यादि असत्क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं वे मुनि तो हैं ही नहीं, मनुष्य भी नहीं
आगे चलकर फिर लिखते हैं कि जो मुनि दीक्षारहित गृहस्थों में और दीक्षित शिष्यों में बहुत स्नेह रखते हैं, मुनियों के योग्य क्रिया और गुरुओं की विनय से रहित होते . हैं वे भी श्रमण नहीं हैं।
अन्त में आचार्य कहते हैं कि इस लिंगपाहुड में व्यक्त भावों को जानकर जो मुनि दोषों से बचकर सच्चा लिंग धारण करते हैं, वे मुक्ति पाते हैं। (8) शीलपाहुड
शीलपाहुड की विषयवस्तु को स्पष्ट करते हुए शीलपाहुड के अन्त में वचनिकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं -
"शील नाम स्वभाव का है, आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञान-दर्शनमयी चेतनास्वरूप है, वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप परिणमता है। इसके विशेष मिथ्यात्व-कषाय
आदि अनेक हैं, इनको राग-द्वेष-मोह भी कहते हैं। इनके भेद संक्षेप में चौरासी लाख किए हैं, विस्तार से असंख्य-अनन्त होते हैं, इनको कुशील कहते हैं। इनके अभावरूप संक्षेप से
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चौरासी लाख उत्तरगुण हैं, इन्हें शील कहते हैं। यह तो सामान्य परद्रव्य के संबंध की अपेक्षा शील-कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री-पुरुष के संग की अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहे हैं। इनके अभावरूप अठारह हजार शील के भेद हैं।"
वास्तव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही शील है, इनकी एकता ही मोक्षमार्ग है। अतः शील को स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं। संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्व।।5।। णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं।
संजमसहिदोय तवो थोओ वि महाफलो होइ।।6।। - चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है, सम्यग्दर्शनरहित लिंगग्रहण अर्थात् नग्न दिगम्बर दीक्षा लेना निरर्थक है और संयम बिना तप निरर्थक है। यदि कोई चारित्रसहित ज्ञान धारण करता है, सम्यग्दर्शनसहित लिंग ग्रहण करता है और संयमसहित तपश्चरण करता है तो अल्प का भी महाफल प्राप्त करता है।'
आगे आचार्य कहते हैं कि सम्यग्दर्शनसहित ज्ञान, चारित्र, तप का आचरण करनेवाले मुनिराज निश्चित रूप से निर्वाण की प्राप्ति करते हैं।
जीवदया, इन्द्रियों का दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप- ये शील के ही परिवार हैं (19)। विष के भक्षण से तो जीव एकबार ही मरण को प्राप्त होता है, किन्तु विषयरूप विष (कुशील) के सेवन से अनन्तबार जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं।
शील बिना अकेले जान लेने मात्र से यदि मोक्ष होता है तो दशपूर्वो का ज्ञान जिसको था, ऐसा रुद्र नरक क्यों गया (31)? अधिक क्या कहें, इतना समझ लेना कि ज्ञानसहित शील ही मुक्ति का कारण है। अन्त में आचार्यदेव कहते हैं -
जिणवयणगहिदसारा विषयविरत्ता तवोधणा धीरा। __ _ सीलसलिलेण बहादा ते सिद्धालयसुहं जंति।।38।। . - जिन्होंने जिनवचनों के सार को ग्रहण कर लिया है और जो विषयों से विरक्त हो गये हैं, जिनके तप ही धन है और जो धीर हैं तथा जो शीलरूपी जल से स्नान करके शुद्ध हुए हैं, वे मुनिराज सिद्धालय के सुखों को प्राप्त करते हैं।
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इस प्रकार इस अधिकार में सम्यग्दर्शन-ज्ञानसहित शील की महिमा बताई है, उसे ही मोक्ष का कारण बताया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण अष्टपाहुड श्रमणों में समागत या संभावित शिथिलाचार के विरुद्ध एक समर्थ आचार्य का सशक्त अध्यादेश है, जिसमें सम्यग्दर्शन पर तो सर्वाधिक बल दिया गया है, साथ में श्रमणों के संयमाचरण के निरतिचार पालन पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, श्रमणों को पग-पग पर सतर्क किया गया है।
सम्यग्दर्शन रहित संयम धारण कर लेने पर संयमाचरण में शिथिलता अनिवार्य है। सम्यग्दर्शन रहित शिथिल श्रमण स्वयं को तो संसारसागर में डुबोते ही हैं, साथ ही अनुयायियों को भी ले डूबते हैं तथा निर्मल दिगम्बर जिनधर्म को भी कलंकित करते हैं, बदनाम करते हैं। इस प्रकार वे लोग आत्मद्रोही होने के साथ-साथ धर्मद्रोही भी हैं - इस बात का अहसास आचार्य कुन्दकुन्द को गहराई से था। यही कारण है कि उन्होंने इस प्रकार की प्रवृत्तियों का अष्टपाहुड में बड़ी कठोरता से निषेध किया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के हम सभी अनुयायियों का यह पावन कर्तव्य है कि उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर हम स्वयं तो चलें ही, जगत को भी उनके द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग से परिचित करायें, चलने की पावन प्रेरणा दें - इसी मंगल कामना के साथ इस उपक्रम से विराम लेता हूँ।
- श्री टोडरमल स्मारक भवन, ए-4, बापूनगर, जयपुर-15 (राज.)
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अप्रेल 2013-2014
अष्टपाहडों का काव्यशास्त्रीय अध्ययन
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- डॉ. उदयचन्द्र जैन
हिदेण सह साहिच्चं, भावप्प-भावबंधगं।
सहत्थ-सहिदं कव्वं, अप्पाणंद विसुद्धगं।। भाव समन्वित, भाव प्रबन्ध यदि आत्महित के साथ शब्द और अर्थ के काव्य निश्चित रूप से आत्मा की विशुद्धता को दर्शाते हैं तो प्रज्ञात्मा आनंदरूप भी प्रदान करता है। प्रज्ञात्मा का आनन्द आत्मा के विशुद्ध भावों में है। वे भाव सिद्ध अमृतत्व-दायक भी होते हैं। सूत्रार्थ के मनीषि हेय-उपादेय तत्त्व को जानते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ऐसे ही प्रज्ञा मनीषि हैं जिन्होंने सदृष्टि दी है, वे स्वयं ‘सुत्तपाहुड' की प्रथम गाथा में कहते हैं -
सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं । - इस जगत में जितने भी सदृष्टि युक्त श्रमण होते हैं वे सूत्र-अर्थ, आगम वचन के अर्थ अन्वेषण से परमार्थ को सिद्ध करते हैं। सूत्र के अर्थ और पद सहित पुरुष संसार में स्थित होता हुआ भी अपने आत्मा के प्रत्यक्ष से संसार को ही नष्ट कर देते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द एक ऐसे ही परमागम के रचनाकार हैं जिनके काव्य ‘पाहुड' रूप में प्रसिद्ध हैं। ‘पाहुड' सिद्धान्त के उपहार हैं, सिद्धान्त के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले काव्य हैं। इनके पञ्चास्तिकाय नामक परमागम में जहाँ सम्यक्त्व का सार है, वहीं पर स्याद्वाद की भंग-दृष्टि भी है। जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नौ पदार्थों की सारगर्भित विवेचना है। समयसार में चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित जीव को 'स्वसमयवाला' कहा है तथा पुद्गल कर्म प्रदेश में स्थित जीव को ‘परसमयवाला' कहा है।
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परमार्थ में स्वसमय और व्यवहार में परसमय होता है। समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए (समयसार3) अर्थात् इस संसार में समय-विशुद्ध आत्मचिंतन सर्वत्र प्रशंसनीय होता है। 'समयसार पाहुड' के सभी अधिकार शुद्धात्म के सुमेरु के कूट हैं।
ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र के दार्शनिक विश्लेषणवाले 'प्रवचनसार पाहुड' में यथार्थ आत्मस्वरूप का साक्षात्कार है। 'नियमसार पाहुड' में अध्यात्म के मार्ग पर आरूढ़ श्रमणों के लिए षटावश्यक कर्म की विशुद्धि का आलोक है।
अट्ठपाहुड और उनका काव्यात्मक मूल्यांकन -
आचार्य कुन्दकुन्द ने विविध पक्ष युक्त पाहुड ग्रन्थों की रचना की है। वे सभी अध्यात्म जगत में ‘अट्ठपाहुड' नाम से नहीं, अपितु ‘पाहुड' नाम से जाने जाते हैं। ‘अट्ठपाहुड' में दसणपाहुड, सुत्तपाहुड, चारित्रपाहुड, बोहपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड और सीलगुणपाहुड (सीलपाहुड) ये आठ पाहुड नाम के अनुसार अपने-अपने विषय की विशुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि को दिखलाते हैं। इनमें भाव, गति, लय, कवित्व शक्ति, ओज, प्रसाद एवं माधुर्य गुण, शब्द और अर्थ की गंभीरता तथा रमणीय अर्थ की सजीवता है। ये सभी पाहुड गाहा' (गाथा) छंद में निबद्ध हैं। इनमें अनुष्टुप, गाहू, विग्गाहा, विपुला आदि छंद भी
अट्ठपाहुड ग्रन्थों में छन्द -
चरणों, वर्णों एवं मात्राओं के आकर्षक बन्धन से काव्य में प्रवाह, सौन्दर्य और गेयता आ जाती है। जिसे सुनने-पढ़ने से मधुर संगीत जैसा आनन्द प्राप्त होता है। आचार्य कुन्दकुन्द । के छन्द-प्रबन्धन में संसार रोकने की कला है। इनके प्रबन्धन में संसार के बन्धन कहे जानेवाले राग, द्वेष एवं मोह को स्थान नहीं है। इनके काव्य की पद्यात्मक विधा में समत्व है, समभाव है और अध्यात्म रस की सुरसरिता के विशुद्धतम जल की अनंत कल्लोले हैं, जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति के कीर्तन से 'अप्पा मे परमप्पा' का पाठ पढ़ा जाती हैं। यही देती है विशुद्ध परिणामों की गति, वीतरागता की अनुपम प्रगति और सर्वज्ञ पथ की मति। इनकी गाथाएँ जो भी गाता है वह पाता है सिंह-सम निर्भय वृत्ति। कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थों में मूलतः कहने के लिए तो गाथा छन्द है, पर वे कई प्रकार की हैं। गाथा -
पढम बारह मत्ता, बीए अट्ठारहेहिं संजुत्ता। . जह पढ़मं तह तीअं, दह पंच विहूसिया गाहा।।54।। प्राकृत पैंगलम्
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- जिसके प्रथम चरण में 12, द्वितीय में 18 मात्राएँ हों, जो प्रथम में है वही तृतीय में हो और चौथे चरण में 15 मात्राएँ हों वह गाथा छन्द है। इस प्रकार गाथा छंद में 57 मात्राएँ होती हैं। निम्न उल्लेख से यह स्पष्ट होता है।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
11.
12.
13.
14.
12+18= 30
दंसणमूलो धम्मो,
27
ऽ ऽ ऽ । । ऽ ऽ = 12,
ऽ ।। ऽ ऽ
। ऽ ऽ ऽ = 15 =
57
गाथा भेद - प्राकृत पैंगलम् (60-61) में गाथा के सत्ताईस भेद कहे गए हैं, जो आचार्य कुन्दकुन्द के अट्ठपाहुड में प्रायः विद्यमान हैं -
ऽ।। ऽ ऽ ऽ ऽ = 12,
तंदू
सकण्णे,
गाहा
लच्छी
रिद्धि
बुद्धि
सव्वाए गाहाए सत्ता वण्णाइ होंति अत्ताइँ। पुव्वद्धम्मि अ तीसा, सत्ताईसा परद्धम्मि ।।
लज्जा
विज्जा
खमा
देही
गोरी
धाई (धत्ति)
चुण्णा
छाया
कंति
12+15=27
उवइट्ठो
।। ऽऽ ।।। ऽ। ऽ ऽ ऽ = 18 = 30 दंसणहीणो ण वंदिव्वो ||2||
महामाया
कित्ति
गुरु
2 2 2 2 2 2 2 2 2
27
26
25
24
23
22
21
20
30+27= 57 मात्राएँ। यथा जिणवरेहिं सिस्साणं ।
19
18
17
16
15
14
लहु 3
5
7
9
11
13
15
17
2 2 2 2 2 2
19
21
23
25
27
-
29
अक्खर
£ £ £ £ w w w w w w w w w 3
30
31
32
33
34
36
38
39
40
41
42
19
43
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20
15. सिद्धि
16.
17.
18.
19.
20.
21.
22.
23.
24.
माणिणी
25.
26.
27.
रामा
गाहिणी
विस्सा
वासिया
सोहा
हरिणी
चक्की
सारसी
कु
सिंही
हंसिआ
15 गुरु 27 लघु, 42 अक्षर।
32 =
13
चुण्णा
कंति
धत्ती
12
-
11
10
9
-
8
7
6
5
महामाया -
-
पंचदहगुरु सत्ताईस लहु त्ति अक्खर वियालीसा ।
4
3
47
49
51
54
53
55
1
55
56
1. दंसणपाहुड - इस पाहुड में 36 गाथाएँ हैं, जिसमें कंति, चुण्णा, धत्ती, गोरी, देही, खमा, विज्जा, सिद्धि आदि गाथाएँ हैं।
2
31
33
35
37
39
41
3 435
43
सिद्धि
तेरस दिग्घक्खरा य, इगतीस लहु चव्वालीसक्खरा ।
गुरु
लघु
अक्षर
18
21
39
16
25
41
19
19
38
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44
45
46
(दं.पा. 1)
(दं.पा. 6)
(दं.पा. 7)
7 8 9 15
47
48
चदुसट्ठिचमरसहिदो चदुतीसहि अइसएहिं संजुत्ता ।
अणवर बहुसत्तहिओ, कम्मक्खय कारणणिमित्तो।। 29 ।। दं.पा.
49
50
52
53
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21
13
35
गोरी - 20 1 7 37 (दं.पा. 13,14) देही - 21 15 36 (दं.पा. 18) खमा - 22
(दं.पा. 8,13,19,24) विज्जा - 23 11 34
2. सुत्तपाहुड - इस पाहुड में 27 गाथाएँ हैं। जिसमें कित्ति, चुण्णा, कंति, धत्ती, गोरी, देही एवं खमा का भी प्रयोग है। खमा का उदाहरण देखिए -
इच्छायारमहत्थं, सुत्तठिओ जो ह छंडए कम्म।
ठाणे ठिय सम्मत्तं परलोय सुहंकरो होई।।14।। सु.पा. विज्जा - चित्तासोहि ण तेसिं, ढिल्लं भावं तहा सहावेण।
विज्जदि मासा तेसिं, इत्थीसु ण संकया झाणं।।26।। सु.पा. 3. चारित्तपाहुड - इस पाहुड में 45 गाथाएँ हैं। बुद्धि, लज्जा, विज्जा, खमा, देही, गोरी, धत्ती, चुण्णा, छाया, कंति, महामाया आदि गाथाओं का प्रयोग है। यथा - बुद्धि गाथा देखें -
णाणं दंसणसम्मं, चारित्तं सोहिकारणं तेसिं। _मोक्खाराहणहेडं, चारित्तं पाहुडं वोच्छे ।।2।। चा.पा. चारित्त पाहुड में विपुला छन्द का भी प्रयोग है -
महिलालोयण - पुव्वरइ - सरण - संसत्त वसहि विकहाहिं।
पुट्ठियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि।।35।। चा.पा. चपला -
पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे।
होइ सुविसुद्धझाणं, णिम्मोहे वीयरायत्ते ।।16। चा.पा. पव्वज्ज संगचाए पयट्ट - इसमें चार गण हैं। द्वितीय और चतुर्थ गण में जगण (II) होने से चपला गाहा है।
मुखचपला - इसमें चार गण होते हैं। द्वितीय और चतुर्थ जगण (151) युक्त होते हैं। इसके पश्चात् यदि गाथा की तरह ही दूसरा भाग हो वहाँ मुखचपला गाहा है। यथा -
उच्छाह - भावणासं पसंससेवा सुदंसणे सद्धा। ण जहदि जिणसम्मत्तं, कुव्वंतोणाणमग्गेण ।।14। चा.पा.
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उच्छाह
भावणासं - पसंस - इसमें द्वितीय चतुर्थ गण जगण हैं और समस्त पद
। ऽ।
। ऽ।
सामान्य गाथा की तरह हैं।
22
जघनचपला गाहा - इसका प्रथम एवं द्वितीय चरण गाथा युक्त हो और तृतीय एवं चतुर्थ चरण में द्वितीय और चतुर्थ गण जगण (ISI) से समन्वित हो।
4. बोह पाहुड - इस पाहुड में 61 गाथाएँ हैं। उनमें लज्जा, विज्जा, खमा, देही, गौरी, धत्ती, चुण्णा, छाया, कंति, महामाया, कित्ति आदि गाथाएँ हैं ।
देखें लज्जा गाहा का उदाहरण
णिग्गंथा णिस्संगा, णिम्माणासा अराय णिद्दोसा । णिम्ममणिरहंकारा, पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। 49 । । बो. पा.
5. भाव पाहुड - इस पाहुड में 164 गाथाएँ हैं। उनमें लज्जा, विज्जा, खमा, देही, गोरी, धत्ती, चुण्णा, छाया, कंति आदि कई गाथाएँ हैं। विपुला का प्रयोग 25, 27, 35, 42, 124 गाथाओं में है। इसमें अनुष्टुप छंद का भी प्रयोग हुआ है।
अनुष्टुप - अट्ठक्खर सुसंजुत्ता पंचमलहु-छट्टग्गू।।
अनुष्टुप छंद में आठ-आठ अक्षर होते हैं। पंचम लघु, छठा गुरु के होने पर प्रथम चरण में अंतिम गुरु होते हैं और द्वितीय चरण के अंत में दीर्घ ह्रस्व-दीर्घ (SIS) होता है। यथा
-
एगो मे सस्सदो अप्पा, णाण - दंसण - लक्खणो ।
SSS SIS SS ऽ। SIS SIS
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग SSS SIS SS SS ऽ ऽ ।
गाहू - पुव्वद्धे उत्तद्धे सत्तग्गल मत्त वीसाइँ ।
-
लक्खणा । 159।। भा.पा.
SIS
छट्टमगण पअमज्झे गाहू मेरुव्व जुअलाई 111 / 521 1 प्रा. पै.
गण दो लघु (मेरु) रूप हो। यथा -
जिसके पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्ध में 27-27 मात्राएँ हों तथा दोनों अर्धालियों का छठा
णवविहबंभं पयडहि, अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण |
मेहुण - सण्णासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ।। 98।। भा.पा.
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6. मोक्ख पाहुड - इस पाहुड में 106 गाथाएँ हैं। इसमें विज्जा, खमा, देही, गोरी, धत्ती, चुण्णा, छाया, कंति आदि गाथाएँ हैं। इसके अतिरिक्त चपला, विपुला, उग्गाहा, गाहू एवं अनुष्टुप छंद भी हैं। देखें अनुष्टुप -
जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे णंतं तम्हा जंपेमि केण हं।।29।। मो.पा. गाहू - जो सुत्तो ववहारे, सो जोई जग्गदे सकज्जम्मि।
जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।31।। मो.पा. गोरी - 20 गुरु 17 लघु और 37 अक्षर -
विंस गुरु लहु सत्तरह, सत्ततिंस दक्खरा गोरी गाहा। यथा - एवं जिणपण्णत्तं, मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए। . जो पढदि सुणदि भावदि, सो पावइ सासयं सोक्खं।।106।। मो.पा.
7. लिंगपाहुड - इस पाहुड में 22 गाथाएँ हैं, जिनमें लज्जा, विज्जा, खम्म, देही, गोरी, धत्ती, चुण्णा, छाया, कंति आदि के लक्षण हैं। इसमें गाहू का भी प्रयोग है। यथा -
पावोपहदिभावो सेवदि य, अबंभु लिंगिरूवेण।
सो पावामोहिदमदी, हिंडदि संसार-कांतारे।।7।। लि.पा.
8. सीलपाहुड - इस पाहुड में 40 गाथाएँ हैं, जिनमें लज्जा, विज्जा, खम्म, देही, गोरी, धत्ती, चुण्णा, छाया, कंति, महामाया आदि गाथाओं के प्रयोग हैं। इसमें विपुला (16,22,34) छंद भी है। छाया का उदाहरण देखिए -
जिणवयण-गहिदसारा, विसयविरत्ता तपोधणा धीरा। सील-सलिलेण ण्हादा, ते सिहालय-सुहं जंति।।38।। सत्तरह गुभिजुदा, तेवीसलहु त्ति अक्खर चालीसा। 17 गुरु 23 लघु और 40 अक्षर युक्त छाया। अट्टपाहडों में रस परिपाक -
आचार्य कुन्दकुन्द-रचित पाहुडों में शान्तरस की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म के इन पाहुडों में हास्य, करुण, वीभत्स, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसों का प्रयोग भी है। रस, आनन्द और हित वस्तु तत्व की अनुभूति है। रस सुख की ओर भी ले जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में अनुभूति-परम अनुभूति, परमार्थ अनुभूति या विशुद्ध परिणाम की अनुभूति आभ्यन्तर चेतना का प्राण कहा जाता है। रस आत्म स्थित भावों को अभिव्यक्त
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करता है। सत्काव्य आनन्ददायी होता है, यदि वही काव्य आध्यात्मिक विचारों से परिपूर्ण हो तो वैराग्य अवश्य ही उत्पन्न करेगा। संसार से विरक्ति आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति में अवश्य होता है।
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शृंगार रस
शृंगार रस में संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में शृंगार रस का कहीं-कहीं पर ही प्रयोग हुआ है -
वट्टे यखंडेसु य भ य विसालेसु अंगेसु ।
अंगेसु य पप्पे य सव्वेसु य उत्तमं सीलं । । 25।। शी. पा.
हास्य रस
करुण रस
रौद्र रस
-
धावदि पिंडणिमित्तं, कलहं काऊण भुंजदे पिंडं । अवरुपरूई संतो, जिणमग्गि ण होदि सो समणो ।।13।। लि.पा.
वृद्धावस्था का दयनीय चित्र देखिए -
सव्वे वि य परिहीणा रूवविरूवा वि वदिदसुवया वि ।।18।। शी.पा.
-
भवसायरे अणंते, छिण्णुज्झिय केस - णह - रणालट्ठी ।
पुञ्जदि जदि को विजए, हवदि य गिरिसमधिया रासी ।। 20।। भा. पा
भयानक रस
अद्भुत रस
-
वीभत्स रस -
एक्केक्कोंगुलिवाही, छण्णवदी होंति जाण मणुयाणं ।
अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भीणया ।।37।। भा.पा.
भाव पाहुड की गाथा 17 से 29 इस रस को व्यक्त करती है। असुईवीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि । वसिओसि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ।।17।। भा.पा.
-
पडिदेस - समय- पोग्गल - आउग - परिणाम - णाम - कालट्ठ । गहिउज्झियाइं बहुसो अनंतभवसायरे जीवो ||35 ।। भा.पा.
शान्त रस
आचार्य कुन्दकुन्द अध्यात्म के शिखर पर स्थित समस्त जनसमूह को शान्त रस का आस्वादन कराते हैं। सभी पाहुडों में इसके अनेक प्रकार हैं।
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सम्मत्त-णाणं-दसण-बल-वीरिय-वड्माण जे सव्वे।
कलि-कलुस-पावरहिया वरणाणी होंति अइरेण।।6।। दं.पा. इसमें चतुर्विध सम्यक्त्व के आधार पर उत्कृष्ट ज्ञानी के ज्ञान रूप शान्त भाव को दर्शाया है। सुखरूप शान्त रस के लिए सुत्तपाहुड ग्रन्थ की पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं
इच्छायारमहत्थं सुत्तठिणो जो ह छंडए कम्म।।14।। सुत्त पा. वात्सल्य रस -
उच्छाह-भावणासं पसंससेवा सुदंसणे सद्धा।
ण जहदि जिणसम्मत्तं, कुव्वंतो णाणमग्गेण।।14।। चा.पा. अट्टपाहडों में अलंकार -
शब्द और अर्थ सहित काव्य में आवश्यकतानुसार सौन्दर्य के उपकरण भी आ जाते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में अलंकरण स्वानुभूति को उत्पन्न करते हैं। ये आभ्यन्तर रसास्वाद को उत्पन्न कर उत्साह, भावना, सेवा, श्रद्धा, वैराग्य, भक्ति एवं अतिशय, अनुपम गुणों की ओर ले जाते हैं। आचार्य के पाहुड चरित्र प्रधान नहीं हैं, वे स्वयं विशुद्ध भावों से युक्त मूलोत्तर गुणी विशुद्धता, वीतरागता, ज्ञायक भाव, समत्व एवं रत्नत्रय के आश्रम को दिखलाते हैं। वे रूपक, उपमा, यमक, श्लेष, दृष्टान्त, उदाहरण उत्प्रेक्षा, स्वाभावोक्ति, समासोक्ति, अन्योक्ति, अतिशयोक्ति, दीपक आदि अलंकारों को रखते नहीं, अपितु स्वयं ही काव्य गति में आ जाते हैं। आचार्यश्री के काव्यों में अनुप्रास, उपमा, रूपक, दृष्टान्त एवं उदाहरणों की बाहुलता है।
अनुप्रास अलंकार - सद्द सम्मं च वेसम्म, अणुप्पासे सुरस्स जो
जहाँ पर शब्द-साम्य और स्वर की वैषम्यता होती है वहाँ अनुप्रास होता है। अन्त्यानुप्रास आचार्य के सभी पाहुडों में है।
सम्मत्त-सलिल-पवहो, णिच्चं हियए पवट्टदे जस्स।
कम्मं वालुयवरणं, बंधुच्चिय णासदे तस्स।।7।। दं.पा. इसके द्वितीय चरण के जस्स और चतुर्थ चरण के ‘तस्स' में अन्त्यानुप्रास है। वर्णों की आवृत्ति या साम्यता प्रत्येक पाहुड में है।
दसणभट्टा भट्टा, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्टा, दंसणभट्टा ण सिझंति।।3।। दं.पा. चेइयबंध मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स। चेइहरं जिणमग्गे, छक्काय हियकरं भणियं॥9॥ बो.पा.
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यमक अलंकार - यमक अलंकार माधुर्यमय वातावरण को उपस्थित करता है। जहाँ पर एक तरह के दो शब्द होते हैं, परन्तु उनके अर्थ अलग-अलग होते हैं -
अप्पा अप्पम्म रदो ।।31।। भा.पा.
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यहाँ पर अप्पा का अर्थ स्वयं है और दूसरे 'अप्पम्मि' का अर्थ है आत्मा में अर्थात् अपने आप जो आत्मा में रत होता है उसी को सम्यक्त्व होता है।
भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणो मक्कडं पयत्तेण ॥ 90।। भा.पा.
यहाँ 'भंज' क्रिया का दो बार प्रयोग हुआ है जिसमें प्रथम 'भंज' क्रिया नाश करने / तोड़ने के अर्थ में है। द्वितीय 'भंज' वश में करने / आधीन करने के अर्थ में है।
श्लेष अलंकार - एक शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ होते हैं
सुत्तम्मि जं सुदिट्ठ, आइरिय-परंपरेण मग्गेण । णादूण दुविह सुत्तं, वट्टदि सिवमग्ग जो भव्वो ।।2।। सु.पा.
'सूत्र' सिद्धान्त/आगम/प्रवचन भी अर्थ है, सुत्त - श्रुत्त भी अर्थ है, सुत्त - सूत्र -धागाडोरी भी अर्थ है। सुत्तपाहुड की तृतीय गाथा में इसका पूर्ण स्पष्टीकरण स्वतः ही पाठक या श्रोता को प्राप्त हो जाता है।
सुत्तम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि ।
सूई जहा असुत्ता, णासदि सुत्ते सहा णो वि ।। 3 ।। सु.पा.
इसमें श्लेष, यमक और उदाहरण तीन अलंकार के साथ मानवीय अलंकरण भी है।
उपमा अलंकार - साहम्म-उवमा या
जहाँ सादृश्यता दिखलाई जाए वहाँ उपमा अलंकार होता है।
भवसायरे अनंते छिण्णुज्झिय - केस - णहरणालट्ठी ।
पुंजदि जदि को विजए, हवदि य गिरिसमधिया रासी । । 2011 भा.पा.
अनंत संसार के समूह को मेरु पर्वत के समान कहा है।
रूपक अलंकार - उवमाणुवमेयम्हि भेदे जादे अभेद गो।
अत्यन्त साम्य के कारण उपमान और उपमेय में भेद होने पर भी अभेद हो वहाँ रूपक अलंकार होता है। यथा -
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म
जह विसयलुद्ध विसदो, तह थावर जंगमाण घोराणां।
सव्वेसि पि विणासदि, विसयविसं दारुणं होदि।।21।। शी.पा. इसमें इन्द्रिय विषयों को विषयरूपी विष कहा है। इस गाथा में उदाहरण के साथ-साथ अनुप्रास एवं रूपक अलंकार भी है।
दृष्टान्त अलंकार - आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में नीति तत्त्व की बहुलता है, इसलिए उपमान वाक्य और उपमेय वाक्य बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने पर दृष्टान्त अलंकार का प्रयोग हो गया। बिंब च पडिबिंब च दिहते परिदिस्सदे। यथा -
देहादिचत्तसंगो, माणकसाएण कलुसिओ धीर।
अत्तावणेण जादो, बाहुबली कित्तियं कालं।।44।। भा.पा. यहाँ मान कषाय के कारण में बाहुबली का दृष्टान्त है, निदान के लिए मधुपिंग का -
महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो।।45।। भा.पा. दूसरा दृष्टान्त वशिष्ठ मुनि का दिया गया है - . अण्णं च वसिट्टमुणी।
बाहु नामक मुनि दोष के कारण दण्डक नगर को जला देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे रौरव नामक नरक को प्राप्त हुए (49 भा.पा.)।
विशुद्ध भाववाले शिवभूति मुनि का दृष्टान्त (53), द्वैपायन रत्नत्रय में भ्रष्ट होने पर अनंतसंसार को प्राप्त हुए (50)। विशुद्ध परिणाम शिवकुमार मुनि युवतिजनों से परिवृत होकर भी संसार-सागर से पार हुए (51 भा.पा.)।
ऐसे अनेकानेक दृष्टान्त भावपाहुड में हैं। मोक्षपाहुड में सुहागे का दृष्टान्त है। (मो.पा. 24) उत्प्रेक्षा अलंकार - संभावणा हि उव्वेखे- सम्भावना जहाँ होती है वहाँ उत्प्रेक्षा है।
पुरिसो वि जो ससुत्तो, ण विणासदि सो गदो वि संसारे।
सच्चेयण पच्चक्खं, णासदि तं सो अदिस्समाणो वि।।4। सु.पा. अर्थान्तरन्यास अलंकार -
सामण्णं वा विसेसो वा साधम्मेदर अत्थए।
अत्यंतर णियासो तु तं अण्ण-अण्ण-रुवए।। जहाँ सामान्य या विशेष साधर्म या वैधर्म युक्त प्रस्तुत होती है वहाँ अर्थान्तरन्यास होता है। अष्टपाहुडों में इस तरह के भी प्रयोग हैं। यथा -
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जे दंसणेसु भट्ठा, पाए पाडंति दसणधराणं। __ते होंति लुल्लमूआ, बोही पुण दुल्लहा तेसिं।।12।। दं.पा. सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को लूले-गूंगे इसलिए कहा क्योंकि वे गतिहीन एवं शब्द से रहित होते हैं। जैसे उन्हें रत्नत्रय दुर्लभ होता है वैसे ही सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव को होता है। अट्ठपाहुड में गुण -
___ गुणयदे उक्किट्टो होदि ति गुणो जिससे किसी वस्तु की शोभा उत्कृष्ट हो जाए या वृद्धि को प्राप्त हो जाए उसे गुण कहते हैं।
कव्वस्सुक्कस्स कत्तारो गुणो धम्मो ति जायदे। . काव्य के उत्कर्ष के लिए कर्ता का धर्म गुण कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में आत्मोत्कर्ष की बहुलता है। इनके काव्यों में शब्दगुण और अर्थगुण दोनों ही हैंशब्द गुण - ओजप्प साद-सामित्तं समाहि-महुराणि च।
सोमालत्त-उदारत्तं, अत्थं वित्ति-सुकंति च ।। ___ ओज, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, सुकुमारता, उदारता, अर्थ, व्यक्ति और कान्ति ये गुण शब्द गुण हैं। आचार्य के पाहुडों में ये सभी गुण हैं। ओज गुण - दंसणभट्टा भट्टा, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं।
सिझंति चरियभट्टा, सणभट्टा ण सिझंति।।3।। दं.पा. ___ यहाँ पर 'भट्ट' शब्द में ओज गुण है। जो इस संसार में दर्शन/सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ही परमभ्रष्ट हैं, उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती है। ओज गुण में चित्त का विस्तार होता है -
ओजोत्थि चित्तवित्थाएँ दित्तिं कंति च दीसदे।
वीर-वीभच्छ रोद्देसुं अहिगं अहिसूचदे।। प्रसाद गुण - सहिदए सहावित्तं सदत्थरयणा पदे।
पसादो आदभावेसुं, सव्वत्थ-रस-विजणे।। सर्वसाधारण रूप में शब्द और अर्थ के रचना पद में जो स्वाभाविकता होती है यह सर्वत्र रस में व्यंजित होती है और आत्मा के समस्त परिणामों में प्रसन्नता, आनन्द एवं स्वानुभूति उत्पन्न करता है वहाँ प्रसाद गुण होता है। अष्टपाहुडों में इस रस को भी प्रायः देखा जा सकता है -
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सम्मत्तादो णाणं, णाणादो सव्वभाव उवलद्धी।
उवलद्ध-पयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि।।15।। दं.पा. इस गाथा में श्रेय-अश्रेय दोनों की उपलब्धि में ज्ञान को महत्वपूर्ण माना है, इससे ज्ञानी आत्मा अपने कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों ही रूपों को पहचानने में समर्थ होता है।
सुत्त पाहुड में भी देखें - जो पुरुष सूत्र या श्रुत में स्थित होता है वह परलोक में सुखी होता है। यथा -
इच्छायारमहत्थं, सुत्तठिणो जो ह छंडए कम्म।
ठाणे ट्ठिय सम्मतं, परलोय सुहंकरो होइ।।14। सु.पा. समता - सम्मभावे समाभावे आद-विसुद्ध-धम्मगो
समत्व में समभाव होता है जो आत्मा के विशुद्ध धर्म का बोधक माना जाता है। समता आत्मा का धर्म है, जिसे प्रत्येक पाहुड की गाथाओं से प्राप्त किया जा सकता है।
णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं।
मुक्खाराहणहेडं, चारित्तं पाहुडं वोच्छे ।।2।। चा.पा. ज्ञान, दर्शन और चारित्र के समत्व में शुद्धिकरण है, विशुद्धि है।
सत्तूमित्ते य समा पसंस-णिंदा-अलद्धि-लद्धि-समा। तण-कणए समभावा, पव्वज्जा एरिसा भणिया।।47।। बो.पा.
प्रशंसा, निन्दा, अलद्धि/हानि - लद्धि/लाभ, शत्रु-मित्र में समभाव तथा तृण एवं सुवर्ण में समभाव होना प्रव्रज्या/दीक्षा है।
समाधि - आत्मा से परमात्म तत्त्व की ओर अग्रसर होना समाधि है। समभाव से देहत्याग के परिणाम एवं समभाव का वरण पाहडों का विषय है।
जो रयणत्तयजुत्तो, कुणदि तवं संजदो ससत्तीए।
सो पावदि परमपदं, झायंतो अप्पयं सुद्धं।।43।। मो.पा. माधुर्य गुण - शान्त रस पूर्ण विसुद्ध आत्मचिन्तन के विषय से पूर्ण पाहुडों में माधुर्य गुण की बहुलता है। पाठक-श्रोता आदि जो भी इनके विषय को सुनता-पढ़ता या उनके गहन चिन्तन पर विचार करता है उसको अपूर्व आनन्द प्राप्त होने लगता है।
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करुणे विप्पलंभत्ते, संते तु उत्तरोत्तरे।
महुरत्तं च आणंदं चित्तद्दवित्त- भावए। माधुर्य गुण करुण, विप्रलम्भ एवं उत्तरोत्तर शान्त रस में पाया जाता है, इससे मधुरताआनन्द एवं चित्त द्रवीभूत भाव को प्राप्त होता है।
जहजादरूवसरिसो, तिलतुसमित्तं, ण गिहदि हत्थेसु।
जइ लेदि अप्पबहुगं, तत्तो पुण जादि णिग्गोद।।18।। सु.पा. श्रमण यथाजात बालक के समान होते हैं, वे अपने हाथ में तिल-तुष मात्र/किंचित् भी ग्रहण नहीं करते हैं। यदि वे ग्रहण करते हैं तो निगोद को प्राप्त होते हैं।
'निगोद' कहने में करुण रस है। साधक साधना अवस्था में स्थित होकर किंचित् भी वस्तु ग्रहण करते हैं तो वे निगोद पर्याय में जाते हैं। चारित्रमार्ग की ओर अग्रसर होनेवाले साधक के लिए कहा -
पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे।
होदि सुविसुद्धझाणं, णिम्मोहे वीयरायत्ते।।16।। चा.पा. अरहंत मुद्रा वास्तव में दीक्षा एवं शिक्षा देनेवाली होती है। यथा - अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्ख-सिक्खा य॥18॥ बो.पा.
सुकुमारता - अष्टपाहुड की गाथाएँ निर्मल भावों को उत्पन्न करनेवाली हैं, इनके शब्दों में अर्थों के साथ एक-एक पद में सुकुमारता है। यथा -
जीवविमुक्को सबओ, दसणमुक्को य होदि चलसबओ। सबओ लोय - अपुज्जो, लोउत्तयम्मि चलसबओ।।143।। भा.पा. जंजाणदितं णाणं, जं पिच्छदितं च दंसणं भणियं।।3।। चा.पा. धम्मो दया विसुद्धो ....... .......।।25।। बो.पा. अक्खाणि बाहिरप्पा, अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। कम्म-कलंकविमुक्को, परमप्पा भण्णदे देवो।।5। मो.पा. सीलं रक्खंताणं, दसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं ।।12।। शी.पा.
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उदारता - आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुड सभी के आत्मानुशीलन के लिए हैं। उनकी गाथाएँ व्यक्ति-सापेक्ष न होकर सर्वजगत के उन आत्माओं के लिए हैं, जो संसार से पार होना चाहते हैं या आत्मविशुद्ध परिणामों की इच्छा रखते हैं। वे कहने में नहीं चूकते कि हजारों वर्षों तक तपश्चरण करनेवाला यदि सम्यग्दर्शन से रहित है तो रत्नत्रय प्राप्त कर ही नहीं सकता । यथा - सम्मत्त- - विरहिया णं सुट्टु वि उग्गं तवं चरंताणं ।
लहंति बोहिलाहं अवि वास - सहस्सकोडीहिं ।। 5 ।। द.पा. सुत्तपाहुड में देखिए -
उक्किट्ठ सीहचरियं, बहुपरियम्मो य गरुयभारो य। जो विहरइ सच्छंद, पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं ॥9॥
अर्थ गुण - अष्टपाहुड में निरर्थक शब्दों का प्रयोग नहीं है, उनके प्रयुक्त अर्थ एक से एक अर्थबोधक हैं यथा -
• दंसणमूलो धम्मो = धर्म का मूल दर्शन है (द.पा. 2)
सम्मत्तरयण = सम्यक्त्वरूपी रत्न (दं.पा. 4)
—
• साहापरिवार = शाखा परिवार (दं.पा. 11),
-
-
सूत्तत्थं (सु. पा. 5)
समवण्णा होदि चारित्तं
(चा.पा.3)
=
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- णिग्गंथा संजदा पडिमा
-
(बो.पा. 10)
व्यक्ति गुण - जहाँ पर गृहस्थ, श्रावक या श्रमण को आधार बनाकर कथन किया
ता है वहाँ व्यक्ति गुण होता है।
(ज्ञान और दर्शन) के समायोग से चारित्र होता है ।
निर्ग्रन्थ संयत जंगम प्रतिमा है, वे वन्दनीय हैं।
• णाणाए जिणमुद्दा - ज्ञान से जिनमुद्रा है। (बो. पा. 18 )
- सिवपुरिपंथ - भाव शिवपुरी का मार्ग है। (भा.पा. 6 )
• सुद-दाराई विसए मणुयाणं वढदे मोहो - मनुष्यों का मोह सुत, पत्नी आदि के ..कारण से बढ़ता है। (मो.पा. 10)
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कान्ति गुण - अष्टपाहुड गुणों के भण्डार हैं। इनमें समत्व कान्ति, दयाधर्म, श्रुतचिन्तन, बोधतत्त्व, मुक्ति एवं आचरण की विशुद्धि है। शीलपाहुड में जीवदया, इन्द्रियदमन, शील, तप, दर्शन विशुद्धि एवं ज्ञानशुद्धि की विशेषता कान्ति गुण को उत्पन्न करती है।
जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेर संतोसे।।19।। शी.पा. सीलं तवो विसुद्धं दसणसुद्धी य णाणसुद्धी य।
सीलं विसयाण अरी, सीलंमोक्खस्स सोवाणं।।20।। शी.पा. इस तरह अष्टपाहुड में अलंकार, रस, छंद आदि के साथ अनेक गुण भी विद्यमान हैं। ये सभी परमार्थ के दर्शन करानेवाले हैं। इनके मूल में शब्द-अर्थमूलक रहस्य, अध्यात्म का अनुगति, लय, यति एवं अन्तरात्मा में परमात्म के दर्शन कराने की अनेक दृष्टियाँ हैं। पाहड के गाथात्मक अनुबन्ध में प्रबन्ध के शास्त्रीय पक्ष एवं जनचेतना के विविध आयाम हैं।
861, अरविन्द नगर
उदयपुर
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अप्रेल 2013-2014
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आचार्य श्री कुन्दकुन्द कृत 'अष्टपाहुड' में जीवन-मूल्य
- डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका
भारतीय धर्म-दर्शन और अध्यात्म के उन्नयन एवं विकास में जिन विभिन्न धाराओं का योग रहा है उनमें श्रमण-धारा का अवदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। आत्मोन्नयन के मार्ग में तपःसाधना से युक्त श्रमण-धारा के तत्त्व-चिन्तन के इतिहास में तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के पश्चात् प्रातःवन्द्य श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य भास्कर सदृश भासमान हैं, जिन्होंने दो हजार वर्ष पूर्व विक्रम की प्रथम शती में प्राकृत वाणी में यह सिद्ध किया कि कोई भी मानव परम तत्त्व का अनुभव स्वानुभूति से ही प्राप्त कर सकता है और स्वानुभव आत्म-ज्ञान व आत्म-ध्यान से ही सम्भव है।
आचार्य प्रवर कुन्दकुन्द भारतीय अध्यात्म-परम्परा के महान तत्त्वान्वेषी, आत्मानुभवी सफल साधक थे। आचार्यों की परम्परा में, ग्रन्थों के निर्माण में, विषयों के प्रतिपादन में और जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों को कालान्तर में प्रामाणिकता प्रदान करने में आचार्य भगवन्त कुन्दकुन्द को महान श्रेय प्राप्त है। तीर्थंकर महावीर और उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर के साथ मंगलाचरण में उनका (आचार्य कुन्दकुन्द का) नाम-स्मरण बड़े आदर भाव के साथ किया जाता है।
प्राकृत साहित्य व शिलालेखों में इनके पाँच नाम मिलते हैं। दक्षिण भारत में आन्ध्रप्रदेश के कौण्डकुन्दपुर में जन्म होने से वे कुन्दकुन्द नाम से विख्यात हुए। कुन्द
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कुन्द पुष्प की भाँति वे अध्यात्म चिन्तम में धवल / उज्ज्वल यश के धारी थे। निरन्तर स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व लेखन में संलग्न रहने से ग्रीवा की वक्रता से बेखबर वे वक्रग्रीवाचार्य भी कहे गये। वय में लघु होने पर भी ज्ञान - प्रज्ञा के क्षेत्र में अपनी महनीयता से एलाचार्य बने। आचार्य श्री कुन्दकुन्द का सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यथा नाम थ गुण का सार्थक था। कुल मिलाकर असाधारण प्रतिभा व ज्ञान के धनी आचार्य कुन्दकुन्द असीम ज्ञानलब्धि के अवधारक थे। वे चारणऋद्धिधारी थे। ऊर्ध्वमुखी चेतना से युक्त वे देहातीत थे। 95 वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि - मरण लिया।
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आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने 84 पाहुडों की रचना की। वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों में पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड और बारसाणुपेक्खा कुल गाथा संख्या 1711 हैं। प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ नाटकत्रय या प्राभृतत्रय कहलाते हैं। तिरुक्कुरल जो तमिल भाषा का नीति ग्रंथ है आचार्य कुन्दकुन्द - रचित माना जाता है। इसे पंचम वेद भी कहा जाता है।
पाहुड संस्कृत के प्राभृत शब्द का समानार्थक है, जिसका अर्थ है उपहार या भेंट। तीर्थंकरों के द्वारा प्रकृष्ट रूप से प्रस्थापित मानवीय हितार्थ सन्देश, निर्देश, उपदेश पाहुड कहलाये। प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण किया गया है, व्याख्यायित हुआ है, वह प्राभृत है।' आर्यिका सुपार्श्वमति के अनुसार- वीतराग प्रभु के द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान आचार्यों की परम्परा से भव्यजनों के लिए द्वादशांगों के वचनों के समुदाय के एक देशवाचन को भी प्राभृत कहते हैं । प्राकृत के अनुसार जो पदों से स्फुट अथवा व्यक्त है वह पाहुड है। 2
प्रकर्षेण आसमन्तात् भृतं प्राभृतम् - जो उत्कृष्टता के साथ सब ओर से भरा हुआ हो, जिसमें पूर्वापर विरोधरहित सांगोपांग वर्णन हो, उसे प्राभृत कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पाहुडों में तद्विषयक सांगोपांग वर्णन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रदत्त अष्टपाहुड आठ ग्रन्थों की भेंट है जो समाज में मूल्यात्मक चेतना के विकास के लिए समर्पित है। ये अष्टपाहुड - आठ ग्रन्थ मनुष्यों को मूल्यात्मक तुष्टि की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करते हैं। जीवन का संवेगात्मक पक्ष ही मूल्यात्मक तुष्टि का आधार होता है। ये दर्शन पाहुड आदि आठ ग्रन्थ जीवन को समग्र रूप में देखने की दृष्टि प्रदान करते हैं। 4
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आचार्य श्री कुन्दकुन्द-प्रणीत प्राकृत भाषा में निबद्ध 'अष्टपाहुड' आठ स्वतंत्र प्रकरणों का संग्रह है। ये हैं - दंसण पाहुड, चारित्त पाहुड, सुत्त पाहु, बोध पाहुड, भाव पाहुड, मोक्ख पाहुड, लिंग पाहु और सील पाहुड | ये अष्ट पाहुड श्रावक व श्रमण के आचरण के निर्देशक ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य के आचार्य / प्रशासक रूप में दर्शन होते हैं, जहाँ उन्होंने आचरण को अनुशासित करने का उपदेश दिया है। साथ ही शिथिलाचरण के विरुद्ध आचरण से सावचेत रहने का सन्देश दिया है। ऐसा लगता है कि चतुर्विध संघ के आचरण में आगत शैथिल्य के निराकरण हेतु आचार्यश्री का मानवमात्र के प्रति मार्मिक सम्बोधन है।
दंसण पाहुड (दर्शन-प्राभृत) की 36 गाथाओं में सम्यग्दर्शन, सुत्त पाहुड (सूत्र प्राभृत) की 27 गाथाओं में सम्यग्ज्ञान, चारित्त पाहुड ( चारित्र प्राभृत) की 45 गाथाओं में सम्यक्त्वाचरण व संयमाचरण के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। बोध में 62 पाहुड गाथाओं में साधु के 11 स्थल, भाव पाहुड की 165 गाथाओं में भाव शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। मोक्ष पाहुड की 106 गाथाओं में मोक्ष के कारणों का निरूपण हुआ है। लिंग पाहुड की 22 गाथाओं में बाह्य लिंग मात्र से मोक्ष की अप्राप्ति और शील पाहुड की 40 गाथाओं में शील का माहात्म्य - शील को मोक्ष की प्रथम सीढ़ी बताया है। इस प्रकार कुल 503 गाथाओं में आचार्यश्री ने श्रावक व श्रमण दोनों के लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय व निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त किया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में उन जीवन-मूल्यों का समावेश है जिनसे प्राणीमात्र का हित सम्पादित होता है। साहित्य वही है जो हमारी आत्मचेतना को जगा दे। यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धिः सधर्मः - धर्म वही है जो मानव मात्र के इस लोक के और अभ्युदय पारलौकिक जीवन में देह मुक्ति का कारण बने । आचार्य कुन्दकुन्द का वाङ्मय यह अभीष्ट सिद्धि प्रदाता है - संसारदुःखतः सत्वान् यो धरति उत्तमे सुखे । अष्टपाहुड में निबद्ध साहित्य श्रमण व श्रावक / साधु व गृहस्थ दोनों के हितार्थ प्रशस्त मार्ग का निदर्शन है। प्रारम्भ के तीन पाहुङ दर्शन, ज्ञान व चारित्र की रत्नत्रयी है। ये पाहुड आत्मोन्नयन हेतु पाथेय रत्न रूप हैं। प्रत्येक पाहुड अपने में स्वतंत्र ग्रंथ है। प्रत्येक का प्रारम्भ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा वाक्य से होता है और समापन शिक्षात्मक निष्कर्ष रूप में है। ये आठ ग्रन्थ जीवन-मूल्यपरक है जहाँ प्रत्येक मूल्यात्मक अनुभूति मनुष्य के ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पक्ष की मिली-जुली अनुभूति होती है। समग्र दृष्टि इन दोनों के महत्त्व को स्वीकारने से उत्पन्न होती है। '
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यहाँ प्रत्येक पाहुड में निहित जीवन मूल्य प्रस्तुत हैं -
दर्शन पाहुड - अर्थात् सम्यग्दर्शन का जीवन में महत्त्व | आचार्यश्री कुन्दकुन्द देव ने सर्वप्रथम दर्शन पाहुड की 36 गाथाओं में जीवन में सम्यग्दर्शन का महत्त्व बताते हुए कहा है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र वन्दनीय नहीं होते। सम्यग्दर्शन ही जन्म-मरण रोग-निवारण के लिए परम औषधि है। यह मोक्ष - महल का प्रथम सोपान है। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे वास्तव में भ्रष्ट हैं, उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है -
दंसण मूलो धम्मो ... दंसणहीणो ण वंदिज्जो ||2|| दंसण भट्टा भट्टा, दंसण भट्टस्स णत्थि णिव्वाणं ।।3।।
बहुश्रुतज्ञ अथवा शास्त्रों के ज्ञाता होने पर भी जो सम्यग्दर्शन से हीन हैं उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिलती। सम्यग्दर्शन रहित तप भी निरर्थक है।
सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई । । 4 । । ण लहंति बोहिलाहं, अवि वाससहस्सकोडीहिं ||5||
सम्यक्त्वरूपी जल-प्रवाह में जिसका हृदय बहता रहता है उसके अनादि काल के कर्मबन्धन का आवरण नष्ट हो जाता है -
सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स ।। 7 ।। आचार्य कहते हैं कि श्रद्धान करनेवाला ही सम्यग्दृष्टि होता है।
जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं य सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।। 22।।
जितनी शक्ति हो उतना ही चरित्र धारण करना चाहिये । यदि शक्ति नहीं है तो श्रद्धान करना चाहिये, क्योंकि श्रद्धान करनेवाला ही सम्यक्त्वी होता है । - ऐसा केवली भगवान ने कहा है।
जैन धर्म में निर्ग्रन्थ मुनि, ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) और आर्यिका ये तीन पद ही उत्कृष्ट माने गये हैं। ये ही वंदनीय हैं। असंयमी की कभी वन्दना नहीं करनी चाहिए। जो वस्त्ररहित होने पर भी भावसंयमी नहीं है वह भी वन्दनीय नहीं है।
वि देहो वंदिज्जइ णवि य कुलो णवि य जाइसंजुत्तो । को वंदमिगुणहीणो ण हुसवणो णेय सावओ हो । 27 ।।
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न ही देह वन्दनीय है, न ही कुल, और न जाति ही वन्दनीय है। गुणहीन की वन्दना कौन करता है? क्योंकि गुणों के बिना न कोई श्रमण होता है और न ही श्रावक। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप विनय रूप चार प्रकार की आराधना में लीन रहते हैं, जो इन गुणों के धारक हैं, वे ही वन्दनीय हैं। सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं अतः दर्शन ही सार है। सम्यक्त्वसहित ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप से ही निर्वाण प्राप्त होता है।
सूत्र पाहुड - 27 गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में सर्वप्रथम सूत्र के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि - अहँतों द्वारा भाषित, गणधरों द्वारा गूंथे गये तथा निग्रंथ आचार्यों द्वारा शब्द और अर्थमय सूत्रों के अनुसार स्वयं अपने जीवन को साधा है तथा उनके अनुसार चलने की प्रेरणा दी है, उसी मार्ग पर चलनेवाला परमार्थ को समझता है
और संसार में भटकता नहीं। जिस प्रकार सूत्र (धागा) सहित सूई खोती नहीं, उसी प्रकार श्रुत-शास्त्र का अभ्यासी ज्ञाता श्रमण व श्रावक संसार में भ्रमित नहीं होते -
सुत्तम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि।
सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि।।3।। जो जिनोक्त सूत्रों में प्रतिपादित पारमार्थिक और व्यावहारिक सत्य को जानते हैं, वे कर्म-मल का नाश करते हैं और सच्चे सुख को पाते हैं। जिनेन्द्र द्वारा कथित सूत्रों से जीवाजीवादि तत्त्वों का अर्थ तथा हेय व उपादेय का ज्ञान होता है। क्योंकि जिनभाषित सूत्र व्यवहार और परमार्थ रूप है। उन पर चलनेवाला ही शाश्वत सुख पाता है। जो इन सूत्रों से अपरिचित हैं और भ्रष्ट हैं वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। भले ही वह संघपति हों, सिंहवृत्ति हों।
आत्म-ज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है। जो पुरुष अपनी आत्मा को नहीं जानता, आत्म-भावना नहीं करता है, भले ही दान, पूजा, तपश्चरण करे सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मध्यान ही मोक्ष का कारण है।
अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेइ णिरव सेसाई।
तह वि ण पावदि सिद्धिं, संसारत्थो पुणो भणिदो।।15।।
इसलिए हे भव्य जीवो! मन-वचन-काय से शुद्ध-बुद्ध स्वभाववाले आत्म तत्त्व का श्रद्धान करो, उसी की रुचि करो, आत्मा को जानने का यत्न करो।
एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण। जेण य लहेइ मोक्खं तं जाणिज्जइ पयत्तेण।।16।।
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आचार्यदेव स्पष्ट रूप से कहते हैं - यथाजात (जन्मते हुए नग्न शिशुसदृश) रूप को
धारण करनेवाले दिगम्बर साधु तिल - तुषमात्र भी परिग्रह नहीं रखते। यदि परिग्रह रखे तो निगोद का पात्र है
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जहजायरूव-सरिसो तिलतुसमितं ण गिहदि हत्तेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥18॥
इस प्रकार सूत्र पाहुड में ज्ञान के महत्त्व पर बल दिया है कि ज्ञानपूर्वक आचरण ही सुख का साधन है।
चारित्र पाहु 45 गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का फल सम्यकचारित्र का धारण बताया है, जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है वह दर्शन है। ज्ञान और दर्शन के समायोग से चारित्र होता है । वह चारित्र दो प्रकार का है - एक सम्यक्त्वाचरण चारित्र और दूसरा संयमाचरण चारित्र । जिनोपदिष्ट ज्ञान - दर्शन शुद्ध सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और शुद्ध आचरणरूप चारित्र संयमाचरण चारित्र है। शंकादि दोषों से रहित, निःशंकितादि गुणों से युक्त, तत्त्वार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर उनका श्रद्धान एवं आचरण करना ही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का है - सागार और अनगार। जो क्रमशः श्रावक और श्रमण के होता है। यह दोनों के लिए जीवन-मूल्य है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द का उपदेश दोनों के लिए उपादेय है। वे कहते हैं - हे भव्य ! अज्ञान को ज्ञान से, मिथ्यात्व को सम्यक्त्व से तथा आरम्भ सहित मोह को अहिंसा - अपरिग्रह रूप धर्म से जीतकर संयमाचरण ग्रहण करो । संयमाचरण में श्रावक व श्रमण दोनों के परिपालन पर बल दिया है। अन्त में रागद्वेष के परिहार को सम्यक् चारित्र कहा है ।
अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरस-रूवगंधेसु । रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति । । 36 ।।
जो जानता है, देखता है, श्रद्धान करता है और स्थिर होता है, वहाँ चारित्र है जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छड़ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं । । 3 ।। अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जहि णाणे विसुद्दसम्मत्ते । अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ||15||
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बोध पाहुड - इस पाहुड की 62 गाथाओं के जानने से ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का पालन होता है। इस पाहुड में कहा गया है - निश्चय से निर्दोष-निर्ग्रन्थ साधु ही आयतन है, चैत्य गृह है, जिन प्रतिमा है, दर्शन है, जिन बिम्ब है, जिन मुद्रा है, ज्ञान है, देव है, तीर्थ है, अरहंत है और प्रव्रज्या है। निश्चय से आयतन आदि आत्मा को ही है। बन्ध, मोक्ष, सुख-दुःख आत्मा के होते हैं। अतः आत्मा ही चैत्य है। छह काय के जीवों का हित करनेवाला चैत्य का स्थान है -
चेइय बन्धं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स।
चैइहरं जिणमग्गे छक्काय हियंकरं भणियं।।७।। जो धर्म, अर्थ, काम और ज्ञान को देता है वही देव है। वह मोह-ममता से रहित है। जिस प्रकार धनुष के अभ्यास एवं बाण से रहित धनुषधारी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार ज्ञानाभ्यास के बिना बोधि को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज्ञानियों का विनय करके ही ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। पंच इन्द्रियों से निरोध, ख्यातिलाभ, इह-परलोक के भोगों की आशा से रहित आत्मा ही तीर्थ है।
भाव पाहुड - 265 गाथाओं में निबद्ध भाव-पाहुड में आचार्य देव ने मुनि और आत्मा को सम्बोधित करके भाव-शुद्धि का उपदेश दिया है। हे आत्मन! भाव शुद्धि के बिना बाह्य लिंग सार्थक नहीं होता है। भाव-शुद्धि के साथ ही द्रव्य लिंग ग्राह्य है -
. भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं।
भावो कारणभूदो गुणदोसाणां जिणा विन्ति।।2।। भाव ही प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंग को परमार्थ मत समझो। जिनेन्द्र भगवान ने गुणदोषों का कारणभूत भाव लिंग को ही कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव का उद्घोष है कि कोटि वर्ष तप करने पर भी भाव बिना सिद्धि नहीं होती। भावों की शुद्धि के बिना बाह्य परिग्रह का त्याग क्या करें? (4-5)
अंतरंग परिणामों की शुद्धि के बिना बाह्य त्याग, तपश्चरण निष्फल है।
इस संसारी जीव ने अनादि काल से अनन्त संसार विषै भ्रमण कर भावरहित निग्रंथ रूप भी धारण किया, परन्तु सिद्धि नहीं मिली। हे जीव! तूने नरक गति में भीषण दुःख सहे, कभी तिर्यंचगति, कभी मनुष्य गति में तीव्र दुःख पाये, परन्तु शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना बिना संसार भ्रमण नहीं मिटा।
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भाव रहित होकर पढ़ने-सुनने से क्या लाभ है? चाहे गृहस्थ हो, चाहे गृह-त्यागी पढिएणवि किं कीरइ, किं वा सुणिएण भावरहिएण।।66।।
तुष-मास भिन्न की भांति देहात्म भेदज्ञान रटते हुए शिवभूति मुनि ने शास्त्र ज्ञान न होते हुए भी भाव विशुद्धि से कैवल्य को प्राप्त कर लिया (53)।
जैसे तुषसहित तंदल की कण शुद्धि नहीं की जा सकती, इसी तरह परिग्रहसहित जीव की भाव शुद्धि कभी नहीं हो सकती (भ.आ.)।
जो अभ्यन्तर परिग्रहरूप (राग, द्वेष, मोह) भावों से मुक्त है वही मुक्त है। केवल बांधवादि छोड़ने से मुक्त नहीं। हे धीर! अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करो।
यदि शीघ्र चार गतियों को छोड़कर शाश्वत सुख चाहते हो तो भावशुद्ध एवं पूर्णतः निर्मल आत्मा का अभ्यास करो (60)। आत्म-भावना से ही निर्वाण होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भाव शुद्धि के लिए बारह भावनाओं का चिन्तन, व्रतों का धारण, ब्रह्मचर्य, परिषह-उपसर्ग सहन आदि बताये हैं। भावसहित द्रव्यलिंग ही मुक्ति का कारण है। ध्यान से मोक्ष होता है, अतः आर्त-रौद्रध्यान छोड़कर धर्मध्यान धारण करो। आत्म-ज्ञान में एकाग्र होना ही ध्यान है। ध्यान द्वारा कर्मरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है। जिस प्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव स्वभाव से ही विषय-कषायों से लिप्त नहीं होता (152)।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एवं अन्य सभी कार्य शुद्ध भावों में स्थित होने से ही सिद्ध होते हैं। अतः परिणामों (भावों) का शुद्ध होना अपेक्षित है (162)।
पूजादि, व्रत सहित परिणाम पुण्य है और मोहरहित आत्म-परिणाम धर्म है। धर्म कर्मक्षय हेतु है। अतः धर्म-स्वरूप आत्मा का ही श्रद्धान, ज्ञान व ध्यान करना चाहिये। भावयुक्त श्रमण व श्रावक मनुष्य-देवादि के सुखों को नहीं चाहता, वह तो आत्महित ही चाहता है। वही मानवत्व का जीवन्त मूल्य है (130-32)। आचार्य कहते हैं - मैं मनवचन-काय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय भावसहित श्रमण को नमस्कार करता हूँ (129)।
मोक्ष पाहुड - 106 गाथाओं में निबद्ध मोक्ष पाहुड में मोक्ष व मोक्ष के कारणों का निरूपण किया गया है। आत्मा की अनन्त सुखरूप सर्वोत्कृष्ट स्थिति ही मोक्ष है। इस पाहुड में आत्मा के तीन रूपों - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का निरूपण किया गया है। बहिरात्मा हेय, अन्तरात्मा उपादेय और परमात्मा ध्येय है। जिसने स्पर्शनादि,
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इन्द्रियों द्वारा बाह्य देह को आत्मा जाना है वह बहिरात्मा है। देहादि से भिन्न आत्मा को जानने, मानने और अनुभव करनेवाला अंतरात्मा है। द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नौ कर्म रूप कर्म-कलंक से रहित, अनन्त गुण-युक्त परमात्मा है । बहिरात्मा को मन, वचन, व , काय से छोड़कर अन्तरात्मा का आश्रय लेकर परमआत्मत्व का ध्यान करने से निर्वाण / मुक्ति की प्राप्ति होती है (3-12)।
जो पर-द्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होकर कर्म बंध करता है, आत्म स्वभाव के अतिरिक्त सभी परद्रव्य है। जो व्यक्ति पर द्रव्य से पराङ्मुख है, आत्मा में लीन है, वह कर्म-बन्धनों से दूर होता है (13)।
ध्यान से स्वर्ग और मोक्ष दोनों मिलते हैं। पर-पदार्थों में राग दुःख का कारण है।
जिणवरमएण जोई झाणे झाएह सुद्धमप्पाणं ।
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं । । 2011
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जो जिनेन्द्र मतानुसार शुद्ध आत्मा का चिन्तन करते हैं वे निर्वाण प्राप्त करते हैं, क्या वे ध्यान के प्रभाव से स्वर्ग को नहीं प्राप्त कर सकते ? निज शुद्ध आत्म तत्त्व का ध्यान करनेवाले योगी दोनों को प्राप्त करते हैं।
आचार्य उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं -
जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेइ गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ।।21।।
अर्थात् जो पुरुष महान भार को लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है वह क्या इस भूतल पर आधा को नहीं जा सकेगा?
मुनि ही नहीं, श्रावक भी सम्यक्त्व धारण कर ध्यान कर सकते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों; आठ प्रकार के मदों; राग - -द्वेष- स्त्री- पुत्र -धन-धान्यादि में मोह का त्याग कर; हिंसा रहित धर्म का पालन कर, आत्म तत्त्व में लीन रह ध्यान की अग्नि से स्वर्ग व मोक्ष दोनों मिलते हैं।
मौन ग्रहण करना आत्म-साधना का आवश्यक अंग है। वचनालाप द्वारा चित्त की एकाग्रता नष्ट होती है। अतः आचार्य देव ने आत्मध्यान के लिए मौन धारण का आदेश दिया है।
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मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा | | 28 ।।
आचार्य कहते हैं अर्हन्तादि पंच परमेष्ठी आत्मा में ही है, अतः आत्मा ही शरण है। रत्नत्रय की आराधना आत्मा की आराधना है। ज्ञान, ज्ञाता व ज्ञेय आत्मा ही है। विषयकषायों से युक्त मनुष्य को सिद्ध-सुख नहीं मिल सकता है। जो जीव विषय कषायों से विरत हो जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित उपदेश को ग्रहण कर तदनुकूल आचरण कर शुद्धबुद्ध आत्मा का ध्यान करता है वही परम सुख को प्राप्त करता है। ये मार्ग ही जीवनमूल्य है।
लिंग पाहु 22 गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में साधुचर्या में समागत विसंगति/विकृतियों को उजागर कर उनसे सावधान रह बचने का सन्देश दिया है। वे कहते हैं कि साधु नग्न वेष धारण करते हैं, पर मात्र नग्नत्व से धर्म की प्राप्ति नहीं होती । जो नग्न दिगम्बर भेष धारण कर अपनी विपरीत क्रियाओं में रत रहते हैं वे उपहास के पात्र होते हैं। धर्माचरण ही लिंग धारण की सार्थकता है। जो मुनि वेष धारण कर मोहवश गाने - बजाने आदि बाहरी वृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं, परिग्रह रखते हैं, उसकी रक्षा की चिंता करते हैं, निर्माण आदि कार्यों में लगते हैं, आहारादि में आसक्ति रखते हैं, मान करते हैं, प्रमाद और निद्रा में रहते हैं, दूसरों से ईर्ष्या करते हैं, स्त्रियों में रागभाव रखते हैं, ईर्यासमितिपूर्वक नहीं चलते हैं, सामाजिकों में भेदभाव दृष्टि रखते हैं वे अपना ही भव बिगाड़ते हैं। वे मात्र द्रव्यलिंगी मुनि हैं, श्रमण नहीं हैं।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने द्रव्यलिंगी मुनियों को सावचेत कर रत्नत्रय की शुद्ध आराधना में भावलिंगी मुनि बनने की प्रेरणा दी है।
शील पाहुड : चालीस गाथाओं में निबद्ध इस अंतिम अष्टम पाहुड में शील की महिमा बताई गई है। इस पाहुड की गाथाओं में कहा गया है कि शील एवं ज्ञान में कोई विरोध नहीं है। शील अर्थात् चारित्र का अभाव ज्ञान को भी नष्ट कर देता है। शील बिना ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं है। आत्मा का स्वभाव ज्ञानदर्शनमयी है। ज्ञान व चारित्र का सम्यक् परिणमन सुशील है। जब तक जीव विषयों में प्रवर्तता है, तब तक वह ज्ञानस्वभावी आत्मा को नहीं जानता है। अतः विषयों का त्याग ही सुशील है। जो विषयों में आसक्त नहीं है, वे शीलगुण से मण्डित हैं और उनका ही जीवन सफल है। जीव- दया, इन्द्रिया-दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, रत्नत्रय, तपश्चरण - ये सभी शीला परिवार है।।19।।
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आचार्य कहते हैं - विष खाने से जीव एकबार ही मरता है, लेकिन विषयसेवनरूपी विष से अर्थात् कुशील आचरण से मनुष्य बार-बार मरता है। यदि मनुष्य के सभी अंग उत्तम हैं, सुन्दर हैं, पूर्ण हैं, परन्तु एक शील अंग नहीं है तो सभी अंग व्यर्थ हैं। अतः शील ही निर्मल तप है, शील ही दर्शन की शुद्धता है, शील ही ज्ञान की शुद्धता है, शील ही विषयों का शत्रु है, शील ही मोक्ष की सीढ़ी है। शील से तीव्र दुःख भी समाप्त हो जाते हैं और सुख की प्राप्ति होती है।
निष्कर्षतः आचार्य कुन्दकुन्ददेव कृत अष्टपाहुड के सभी आठों पाहुडों की 503 गाथाओं में मानवीय जीवन के मूल्यात्मक पक्ष का सूक्ष्मता से उद्घाटन कर जीवन के इहलोक के अभ्युदय और पारलौकिक जीवन हेतु निःश्रेयस का सन्मार्ग प्रशस्त करते हैं। जैन दर्शन के विश्रुत विद्वान मनीषी डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी के शब्दों में अष्टपाहुड (आठ ग्रन्थों की भेंट) मानव समाज के मूल्यात्मक चेतना के विकास के लिए समर्पित है। श्रेष्ठ मानवीय समाज के उन्नयन हेतु इनका स्वाध्याय अपेक्षित है।
1. षट्प्राभृत षट्पाहुड : आ.श्रुतसागर : हिन्दी टीकाकार : आ.सुपार्श्वमति, पुरोवाक्, पृ. 3 2. षट्प्राभृत षट्पाहुड : आ.श्रुतसागर : हिन्दी टीकाकार : आ.सुपार्श्वमति, पुरोवाक्, पृ. 3 3. डॉ. कमलचन्द सोगाणी : अष्टपाहुड चयनिका : प्रस्तावना, पृ. 3 4. डॉ. कमलचन्द सोगाणी : अष्टपाहुड चयनिका : प्रस्तावना, पृ. 3 5. डॉ. कमलचन्द सोगाणी : अष्टपाहुड चयनिका : प्रस्तावना, पृ. 2 6. अष्टपाहुड, चयनिका, प्राकृत भारती अकादमी
22, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर - 302018
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धम्मो दयाविसुद्धो धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ।।25।। बो.पा. जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य। सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो ॥2॥ मो.पा. उत्थरइ जा ण जर ओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं। इंदिय बलं त वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ।।132।। भा.पा.
आचार्य कुन्दकुन्द
अष्टपाहुड
धर्म (चारित्र वह है जो) दया से शुद्ध किया हुआ है, संन्यास (वह है जो) समस्त आसक्ति से रहित होता है; देव (वह है जिसके द्वारा) मूर्छा नष्ट की गई (है, और जो) भव्य जीवों (समता भाव की प्राप्ति के इच्छुक जीवों) का उत्थान
करनेवाला होता है। - निंदा और प्रशंसा में, दुःखों और सुखों में, शत्रुओं और मित्रों में समभाव (रखने)
से (ही) चारित्र होता है। हे मनुष्य! जब तक (तुझे) वृद्धावस्था नहीं पकड़ती है, जब तक रोगरूपी अग्नि (तेरी) देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, (जब तक) इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती तब तक तू आत्महित/अपना हित कर ले।
अनु. - डॉ. कमलचंद सोगाणी
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अप्रेल 2013-2014
आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनका दर्शनपाहुड
- डॉ. कुलदीपकुमार
45
प्राकृत साहित्य के विशाल गगन में आचार्य कुन्दकुन्द और उनका साहित्य सूर्यचन्द्र के समान देदीप्यमान है। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके साहित्य ने भारतीय दर्शनशास्त्र को भी एक महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान किया है, जिसका मूल्यांकन अनेक विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में मुक्त - कण्ठ से किया है। यहाँ हम इसी सन्दर्भ में उनकी एक कृति ' दर्शनपाहुड' का पर्यालोचन करना चाहते हैं ।
ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण भारत की पवित्र धरा पर कोण्डकुन्द नामक ग्राम में अवतरित हुए आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान दिगम्बर जैन परम्परा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उनकी महत्ता इसी प्रमाण से सिद्ध हो जाती है कि उक्त परम्परा में भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद सर्वप्रथम उन्हीं का स्मरण किया जाता है। यथा
मंङ्गलं भगवान वीरो, मंङ्गलं गौतमो गणी । मंङ्गलं कुन्दकुन्दार्यः जैनधर्मोऽस्तु मंङ्गलं ।।
-
आचार्य कुन्दकुन्द की कृतियों में से प्रमुख तीन - पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार भारतीय दार्शनिक कृतियों में वही स्थान रखती हैं, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता रखती है। आचार्य कुन्दकुन्द की उक्त कृतियाँ नाटकत्रयी एवं प्राभृतत्रयी के नाम से भी अभिहित की जाती हैं।
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कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने चौरासी (84) पाहुडग्रन्थ लिखे थे परन्तु वे सभी आज उपलब्ध नहीं हैं। मात्र 15 ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध होते हैं जो निम्नलिखित
मूल नाम 1. पञ्चास्तिकाय पंचत्थिकाय प्रवचनसार
पवयणसारो नियमसार णियमसारो समयसार
समयपाहुडं द्वादशानुप्रेक्षा बारसअणुवेक्खा रयणसार
रयणसारो 7. दशभक्तिसंग्रह दशभक्तिसंग्गहो 8-15. अष्टपाहुड
अट्ठपाहुडं 'अष्टपाहुड' में आठ पाहुडग्रन्थों को संगृहीत किया गया है जो कि अनेक स्थानों से प्रकाशित हो चुका है। वे आठ पाहुड अधोलिखित हैं -
1. दंसणपाहुड 2. सुत्तपाहुड 3. चारित्तपाहुड 4. बोधपाहुड 5. भावपाहुड 6. मोक्खपाहुड 7. लिंगपाहुड 8. सीलपाहुड।
विक्रम की सोलहवीं (16वीं) शताब्दी में भट्टारक श्रुतसागरसूरि ने उक्त पाहुडों में से प्रथम छह पाहुडों पर संस्कृत भाषा में एक सुन्दर टीका भी लिखी है, जो 'षट्प्राभृतसंग्रह' के नाम से विख्यात है। प्रतीत होता है कि भट्टारक श्रुतसागरसूरि के समक्ष छह पाहुड ही उपलब्ध रहे होंगे, इसीलिए उन्होंने इन्हीं पर टीका लिखी। इसका प्रकाशन सन् 1920 ई. में माणिकचन्द ग्रन्थमाला, बम्बई से भी हुआ था। बाद में लिंगपाहुड और सीलपाहुड और उपलब्ध होने पर ‘अष्टपाहुड' के नाम से पुनः प्रकाशन हुआ।
उक्त पाहुडों के अतिरिक्त कुछ और पाहुडों के नामों के उल्लेख भी मिलते हैं। प्राकृत एवं जैन साहित्य में मूर्धन्य मनीषी डॉ. ए.एन.उपाध्ये ने अधोलिखित 46 पाहुडों की सूची प्रस्तुत की है -
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1. आचार पाहुड, 2. अलाप पाहुड, 3. अंग पाहुड, 4. आराहणा पाहुड, 5. बंध पाहुड, 6. बुद्धि या बोधि पाहुड, 7. चरण पाहुड 8. चूलिया पाहुड, 9. चूर्णि पाहुड, 10. दिव्व पाहुड, 11. द्रव्य पाहुड, 12. दृष्टि पाहुड, 13. इयन्त पाहुड, 14. जीव पाहुड, 15. जोणि पाहुड, 16. कर्मविपाक पाहुड, 17. कर्म पाहुड, 18. क्रियासार पाहुड, 19. क्षपण पाहुड, 20. लब्धि पाहुड, 21. लोय पाहुड, 22. नय पाहुड, 23. नित्य पाहुड, 24. नोकम्म पाहुड, 25. पंचवर्ग पाहुड, 26. पयड्ढ पाहुड, 27. पय पाहुड, 28. प्रकृति पाहुड, 29. प्रमाण पाहुड, 30. सलमी पाहुड, 31. संठाण पाहुड, 32. समवाय पाहुड, 33. षट्दर्शन पाहुड, 34. सिद्धान्त पाहुड, 35. सिक्खापाहुड, 36. स्थान पाहुड, 37. तत्त्व पाहुड, 38. तोय पाहुड, 39. ओघत पाहुड, 40. उत्पाद पाहुड, 41. विद्या पाहुड, 42. वस्तु पाहुड, 43. विहिय या विहय पाहुड।
'संयमप्रकाश' में उपरिलिखित पाहुडों के अतिरिक्त नामकम्मपाहुड, योगसार पाहुड, निताय पाहुड, उद्योत पाहुड, शिखा पाहुड तथा ऐयन्न पाहुड के नाम प्राप्त होते
हैं। 2
यहाँ ‘पाहुड' शब्द के अर्थ पर भी कुछ प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है। पाहुड अर्थात् प्राभृत, जिसका अर्थ होता है - 'भेंट' | आचार्य जयसेन एक दृष्टान्त के माध्यम से 'पाहुड' का अर्थ स्पष्ट करते हुए बतलाते हैं कि - जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राजा का दर्शन करने के लिए कोई 'सारभूत वस्तु' राजा को देता है तो उसे प्राभृतया भेंट कहते हैं उसी प्रकार परमात्मा के आराधक पुरुष के लिए निर्दोष 'परमात्मा रूपी राजा' का दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी प्राभृत (भेंट) हैं। 3
आचार्य यतिवृषभ के अनुसार 'जम्हा पदेहि पुदं (फुडं) तम्हा पाहुडं' अर्थात् जो पदों से स्फुट हो उसे पाहुड कहते हैं । 4
जयधवला के रचयिता आचार्य वीरसेन के अनुसार- 'प्रकृष्टेन तीर्थंकरेण आभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतम्।' अर्थात् तीर्थंकर के द्वारा प्राभृत अथवा प्रस्थापित किया गया है वह प्राभृत है। प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण अथवा व्याख्यान किया गया है अथवा परम्परारूप से लाया गया है, वह प्राभृत है। अतः यह स्पष्ट है कि तीर्थंकरों के उपदेश रूप द्वादशांग वाणी से सम्बद्ध ज्ञानरूप ग्रन्थों को हम 'पाहुड' कहते हैं।
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विषयवस्तु
दर्शनपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द ने छत्तीस (36) गाथाओं के माध्यम से सम्यग्दर्शन की उपयोगिता एवं महत्ता का वर्णन किया है, जो कि अपने-आप में अभूतपूर्व है। मंगलाचरण के पश्चात् आरम्भ में ही सम्यग्दर्शन की महिमा बताते हुए कहते हैं कि - जिनेन्द्र भगवान ने सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहा है, इसलिए जो जीव सम्यग्दर्शन से रहित हैं वे वन्दनीय नहीं हैं, चाहे वे अनेक शास्त्रों के पाठी व ज्ञाता हों, उग्र तप के धारी हों, सहस्रों वर्षों तक तप करते रहे हों, किन्तु यदि वे सम्यग्दर्शन से रहित हैं तो उन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। जिनेन्द्र भगवान के वचनों की श्रद्धा से रहित होने के कारण वे चतुर्गतिरूप संसार में भटकते रहते हैं।
तत्पश्चात् आचार्य कहते हैं कि जो जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों से ही भ्रष्ट हैं, वे तो भ्रष्टों में भी भ्रष्ट हैं; वे स्वयं का नाश तो करते ही हैं, अपने आश्रितों को भी वे नष्ट कर देते हैं। जिस प्रकार जड़ के नष्ट हो जाने पर उसके परिवार- स्कन्ध, शाखा पत्र, पुण्य और फल की अभिवृद्धि नहीं होती; उसी प्रकार सम्यग्दर्शनरूपी धर्म के मूल के नष्ट हो जाने पर या न होने पर संयमादि की अभिवृद्धि नहीं होती। तथा जो सम्यग्दर्शन के भ्रष्ट होकर अन्य सम्यग्दृष्टियों की वंदना नहीं करते वे लूले-लँगड़े और गूंगे होते हैं और उन्हें रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ रहती है। तथा इसी प्रकार जो जीव लज्जा, गारव और भय के कारण सम्यग्दर्शन से रहित लोगों की पूजा-वन्दनादि करते हैं, वे भी बोधि को प्राप्त नहीं होते।
इसी प्रकार फिर आचार्य ने क्रमशः सम्यग्दर्शन के भेदों का वर्णन, बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह के भेद, निर्वाण कौन प्राप्त कर सकता है, जिनवचनरूपी औषध की महिमा, सम्यग्दृष्टि का लक्षण, व्यवहार और निश्चय से सम्यग्दर्शन को ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी बतलाना, श्रद्धावान जीव को ही सम्यक्त्व होता है, वन्दना करने योग्य कौन है? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्ष के साधन हैं, चार आराधनाएँ मोक्ष का कारण हैं तथा सम्यग्दर्शन की महिमा आदि का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि - जो काम हो सके वह करना चाहिए और जो न हो सके उसका श्रद्धान अवश्य करना चाहिए क्योंकि जिनेन्द्र भगवान ने श्रद्धान करनेवाले पुरुष को सम्यग्दर्शन कहा है। अन्त में स्थावर प्रतिमा क्या है, जिनेन्द्र भगवान के 1008 लक्षण तथा अतिशयों आदि का वर्णन और निर्वाण को कौन प्राप्त होते हैं, इसका वर्णन किया गया है। अतः यहाँ स्पष्टतया कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण दर्शनपाहुड सम्यक्त्व की महिमा से ओत-प्रोत है।
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भाषा-शैली
प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा शौरसेनी प्राकृत है तथा शैली काव्यात्मक है जो सरस, सरल, सुबोध तथा इतनी अधिक सुगम है कि अधिकांश गाथाओं में तो अन्वय करने की भी आवश्यकता नहीं होती। लौकिक दृष्टान्तों के माध्यम से गहन गूढ़ तत्त्व अध्यात्म एवं आचार जैसे दुरूह विषयों को समझाने का सफल प्रयत्न किया गया है।
आचार्य कुन्दकुन्द की भाषासम्बन्धी और भी अनेक विशेषताएँ हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है। यथा
(क) सबल दृष्टान्त - पेड़ और जड़ का दृष्टान्त प्रस्तुत करके आचार्य ने सम्यग्दर्शन जैसे दुरूह विषय को समझना इतना सरल एवं रोचक बना दिया है कि एक साधारण व्यक्ति भी इसको मिनटों में समझ सकता है। तथा सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये केवल रूपक ही नहीं `हैं, अपितु सांगरूपक हैं। जड़ की जगह सम्यग्दर्शन को तथा चारित्र की जगह शाखा, पुष्प, फलादि को रखकर विषय को इतना रोचक बना दिया है कि वह जनसाधारण को भी हृदयग्राह्य हो गया है। यथा
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जह मूलम्मि विट्ठे दुमस्स परिवार णत्थि परिवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झति । ।10।।
जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होई । तहं जिणदंसणमूलो णिदिट्ठो मोक्खमग्गस्स ।।11।।
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अर्थात् जिस प्रकार जड़ के नष्ट होने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं होती, उसी प्रकार · सम्यक्त्व के नष्ट होजाने पर चारित्ररूपी वृक्ष की वृद्धि नहीं होती अर्थात् जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से शून्य हैं, रहित हैं, वे लोग मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।
जिस प्रकार मूल अर्थात् जड़ से ही वृक्ष का स्कन्ध और शाखाओं का परिवार वृद्धि आदि से युक्त होता है उसी प्रकार सम्यक्त्व को मोक्षमार्ग का मूल कहा गया है।
अगर किसी वृक्ष की जड़ कट गई है तो वह ऊपर से खूब हरा-भरा दिखाई देता हो तो भी उसे नष्ट ही समझो। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति खूब तप, उपवास, नियमादि से युक्त है परन्तु यदि उसमें सम्यग्दर्शन नहीं है तो उसकी उक्त सभी क्रियाएँ व्यर्थ ही समझो।
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जिस प्रकार यदि किसी पेड़ के पत्ते एवं शाखाएँ सूख गई हैं और जड़ सुरक्षित है तो अनुकूल परिस्थिति के उत्पन्न होने पर वे सभी फिर से हरे-भरे हो जाएँगे, उसी प्रकार अगर जीव को सम्यग्दर्शन है और चारित्र प्रकट नहीं हो पा रहा है तो योग्य समय और परिस्थिति आने पर वह चारित्र भी प्रकट हो जाएगा।
दसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं।
सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति।।3।। जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं परन्तु जो दर्शनभ्रष्ट हैं वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते।
(ख) सामासिक शैली - आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा के विषय में ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने जनसामान्य की लौकिक भाषा का प्रयोग किया है लेकिन सर्वथा ऐसा नहीं है। कहीं-कहीं उन्होंने सामासिक श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा का भी प्रयोग किया है। इसके अनेक उदाहरण दिखाई देते हैं -
सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे ।
कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण।।6।। जो पुरुष सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, बल, वीर्य से वर्द्धमान हैं तथा कलिकलुष पाप अर्थात् मलिन पाप से रहित हैं वे सभी अल्पकाल में वरज्ञानी अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं।
(ग) अलंकार - अनेक स्थलों पर आचार्य कुन्दकुन्द ने सहज अलंकारों का प्रयोग भी किया है। उदाहरणार्थ अधोलिखित गाथा में आचार्य ने उपमा अलंकार का प्रयोग किया
सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्ठए जस्स।
कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स।।7।। जिस प्रकार पुरुष के हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवर्तमान है उसके कर्मरूपी रज-धूल का आवरण नहीं लगता, तथा पूर्वकाल में जो कर्मबंध हुआ हो वह भी नाश को प्राप्त होता है।
(घ) सुभाषित निर्माण - आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा इतनी सुगठित है कि उसमें सहज ही अनेक सूक्तियों का निर्माण हो गया है। यथा -
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1. 'दंसणमूलो धम्मो' - धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। (2) 2. 'मूल विणट्ठाण सिझंति' - सम्यक्त्व रूप मूल के नष्ट हो जाने पर मोक्षरूपी ____ फल की प्राप्ति नहीं होती (10) 3. 'सोवाणं पढम मोक्खस्स' - सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है। (21)
4. ‘णाणं णरस्स सारो' - ज्ञान मनुष्य जीवन का सार है। (31) सम्यग्दर्शन की प्रधानता
इनके अतिरिक्त भी आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में अनेक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यथा - अभिव्यक्ति पर जोर, स्पष्टता, दृढ़ता, सुगमता, युक्तता, शब्दों का उपयुक्त चयन, सकारात्मक एवं नकारात्मक शैली का प्रयोग आदि अनेक विशेषताएँ भरी हुई हैं। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा के सम्बन्ध में मनीषी विद्वान बलभद्र जैन का यह कथन पठनीय है - हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्त और अध्यात्म के ही मर्मज्ञ विद्वान नहीं थे, अपितु वे भाषा शास्त्र के भी अधिकारी और प्रवर्तक विद्वान थे। उन्होंने अपनी प्रौढ़ रचनाओं द्वारा प्राकृत को नये आयाम दिये, उसका संस्कार किया, उसे सँवारा और नया रूप दिया। इसीलिए वे जैन शौरसेनी के आद्य कवि और रचनाकार माने जाते हैं। ज्ञातव्य है कि कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने इनकी कृतियों की भाषा को 'जैन शौरसेनी' भी कहा है।
___ आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन पर इतना अधिक जोर दिया है - इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि लोग सम्यग्दर्शन पर ध्यान न देकर बाहरी तप, व्रत, उपवास और नियमादि पर ज्यादा ध्यान देते हों। जैसे वर्तमान में भी देखा जाता है कि कोरा आचार ही पढ़ाया जाता है उसके आधार पर शिखर ‘सम्यग्दर्शन और आत्मानुभूति' दोनों अछूते रह जाते हैं, जबकि सभी आचार्यों ने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन को धारण करना अनिवार्य बतलाया है, तत्पश्चात् ही व्रत, नियम, प्रतिमादि की चर्चा की है तथा सम्यग्दर्शन को ही आचार का मूलाधार बतलाया है। ग्रन्थों में आचार्यों ने अनेक प्रकार के दृष्टान्तों का प्रतिपादन करते हुए बतलाया है कि - जिस प्रकार बिना मूल के वृक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना व्रत, तप, नियमादि भी व्यर्थ हैं। सम्यग्दर्शन को आचार का आधारस्तम्भ न केवल पूर्ववर्ती आचार्यों ने अपितु उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी प्रतिरूपित किया है। अतः यह स्पष्टतया कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन
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के बिना आचार की बात करना ही व्यर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसीलिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन को ही आवश्यक बतलाया तथा न केवल आवश्यक अपितु मंगलाचरण के तुरन्त बाद धर्म का मूल ही सम्यग्दर्शन को बतलाया है। यथा -
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।2।।
आचार्य कुन्दकुन्द की यह सबसे बड़ी विशेषता एवं दार्शनिक दृष्टिकोण है कि उन्होंने स्पष्ट कहा है कि इस संसार का मूल हेतु मिथ्यात्व है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि अन्य आचार्यों ने ऐसा नहीं कहा है लेकिन जिस शैली में इन्होंने कहा है कि हे भव्य जीवो! तुम कान खोलकर के सुन लो कि सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है, शायद ही किसी आचार्य ने इस प्रकार से कहा हो। भगवती आराधना' में आचार्य शिवार्य कहते हैं कि -
संसारमूलहेदु मिच्छतं सव्वधा विवज्जेहि।
बुद्धि गुणण्णिदं पि हु मिच्छतं मोहिदं कुणदि।।723।।
अर्थात् मिथ्यात्व संसार का मूल कारण है, उसका मन-वचन-काय से त्याग करो, क्योंकि मिथ्यात्व गुणयुक्त बुद्धि को भी मूढ़ बना देता है।
लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द तो स्पष्ट उद्घोष करते हैं कि - सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव ही वास्तव में भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट जीव तो फिर भी सिद्ध हो जाता है परन्तु सम्यग्दर्शन से . भ्रष्ट जीव को निर्वाण की प्राप्ति कथमपि नहीं हो सकती है। यथा -
दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणे।
सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति।।3।। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सम्यग्दर्शन का वर्णन करते-करते आचार्य कुन्दकुन्द सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भूल गए हों, लेकिन सम्यग्दर्शन के बिना जीव और समाज की क्या दुर्दशा हो रही है - यह वे अपनी आँखों से देख रहे थे अतः उन्होंने दो-तीन बार यह बात स्पष्ट कही है कि मोक्ष का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है। यथा -
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स।।21।।
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अर्थात् हे भव्य जीवो! तुम इस भगवान जिनेन्द्र द्वारा कहे गए सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को भावपूर्वक धारण करो। यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न सभी रत्नों में श्रेष्ठ है तथा यह मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है।
इसी प्रकार का आशय आचार्य समन्तभद्र भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रकट करते हैं। यथा -
दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते।।31।। अर्थात् ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन श्रेष्ठता को प्राप्त है, अतः उसे मोक्षमार्ग का कर्णधार (खेवटिया अर्थात् नाव चलानेवाला) कहते हैं। अर्थात् सम्यग्र्दशन ही संसाररूपी सागर से पार लगानेवाला है। - इससे यह स्पष्ट होता है कि वे सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को गौण कर रहे हैं तथा यह बतलाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि उनका भी आधार सम्यग्दर्शन है। आगे उन्होंने स्पष्ट कहा है कि काम तो तभी बनेगा जब ये चार चीजें होंगी -
दसणणाणचरित्ते-तवविणये णिच्चकाल सुपसत्था। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।।23।। णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पिसमाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।।30।। णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं। सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं।।31।। णाणम्मि देसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण।
चउण्हं वि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो।।32।। - दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित हैं वे प्रशस्त हैं, सराहने योग्य हैं, गणधर आचार्य भी उनका गुणानुवाद करते हैं अतः वे वन्दने योग्य हैं।23।
- ज्ञान-दर्शन-तप और चारित्र इन चारों का समायोग होने पर जो संयम गुण हो उससे जिनशासन में मोक्ष होना कहा है।30॥
- मनुष्य के लिए ज्ञान सार है क्योंकि ज्ञान से सब हेय-उपादेय जाने जाते हैं, फिर
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मनुष्य के लिए सम्यक्त्व निश्चय से सार है क्योंकि सम्यक्त्व के बिना ज्ञान मिथ्या होता है। सम्यक्त्व से चारित्र होता है क्योंकि सम्यक्त्व बिना चारित्र भी मिथ्या ही है, चारित्र से निर्वाण होता है || 31॥
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पहले जो सिद्ध हुए हैं वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों के संयोग से ही हुए हैं, यह जिनवचन है, इसमें सन्देह नहीं है। 321
अतः यह निष्कर्ष बिल्कुल गलत होगा कि इन्होंने केवल सम्यग्दर्शन का ही कथन किया है। इस बात का एक और भी प्रबल प्रमाण है कि इनके द्वारा मोक्षपाहुड, चारित्रपाहुड और शीलपाहुड आदि अन्य ग्रन्थ भी रचित हैं। परन्तु मूल बात यह है कि सम्यग्दर्शन की नींव पर ही ज्ञान और चारित्र निर्भर करते हैं। इन्होंने ही 'प्रवचनसार' ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि 'चारित्तं खलु धम्मो'। तथा ज्ञान की महत्ता को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि
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सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभाव उवलद्धी । उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेय वियाणेदि ।।15।।
अर्थात् सम्यक्त्व से ज्ञान होता है, ज्ञान से समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है और समस्त पदार्थों की उपलब्धि होने पर यह जीव कल्याण और अकल्याण को विशेष रूप से जानता है।
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निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन का एकसाथ वर्णन करना भी आचार्य. कुन्दकुन्द का वैशिष्ट्य है, क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि ग्रन्थ रचयिता आचार्य या तो व्यवहार सम्यग्दर्शन का लक्षण प्रतिपादित कर आगे बढ़ जाते हैं, या केवल निश्चय सम्यग्दर्शन को बतलाकर आगे बढ़ जाते हैं लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसा नहीं किया, उन्होंने दोनों को एक साथ रखा। यथा
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छद्दव्व णवपयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा ।
सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो ।।19।।
अर्थात् छह द्रव्यों, नौ पदार्थ पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व कहे गये हैं। उनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । व्यवहार नय से जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है और निश्चय नय से निज आत्मा का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। यथा -
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जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं । । 201
प्रायः लोगों के मुख से ऐसा सुना जाता है कि जैन दर्शन में प्रतिपादित साधनापद्धति बहुत ही कठिन है, इसका हर कोई पालन नहीं कर सकता, लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने इसका बड़ा ही सरल समाधान प्रस्तुत किया है। यथा
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जं सक्कड़ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं । । 22।।
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देखिए कितना अच्छा जवाब है आचार्य कुन्दकुन्द का जो काम तुम करने में समर्थ हो उसको करो तथा जो काम तुम नहीं कर सकते हो उस पर केवल श्रद्धा करो। केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान ने श्रद्धान करनेवाले पुरुष को सम्यक्त्व कहा है।
इसी प्रकार का भाव कविवर द्यानतराय जी ने भी व्यक्त किया है - शक्ति बिना सरधा धरे ।
कीजे शक्ति प्रमान, द्यानत सरधावान, अजर अमर पद भोगवे ॥ 7 ॥
उपरिलिखित गाथा का चिन्तन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने जैसे सभी के लिए मोक्ष के द्वार को खोल दिया हो। तथा जैसे आचार्य कह रहे हों कि तुम एक बार आओ तो सही, कदम तो बढ़ाओ ।
एक बात और दर्शनपाहुड में यह बतलायी गई है जो प्रायः अन्यत्र दिखाई नहीं देती कि जो व्यक्ति स्वयं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट हैं और चारित्र से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्टों में विशिष्ट भ्रष्ट हैं, अर्थात् अत्यन्त भ्रष्ट हैं तथा वे अन्य व्यक्तियों को भी भ्रष्ट कर देते हैं
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य। दे भट्ट विभट्ठा से पि जणं विणासंति ॥ 8॥
सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव दूसरों को भी भ्रष्ट कर देता है - यह बड़ी दुःखद बात है।
अंत में हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक क्षेत्र में आचार्य कुन्दकुन्द का
''दर्शनपाहुड' एक बहुत ही क्रान्तिकारी रचना है। इस जैसी दूसरी रचना समूचे जैनवाङ्मय
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में दुर्लभ है। प्रतीत होता है कि यदि यह रचना नहीं होती तो सम्यग्दर्शन का ऐसा अद्भुत महत्त्व प्रकाशित नहीं हो पाता।
1. प्रवचनसार, अंग्रेजी भूमिका, पृष्ठ 25, सम्पादक डॉ. ए.एन.उपाध्ये, रायचन्द ग्रन्थमाला, 1935 2. संयमप्रकाश, पृ. 453, आचार्य सूर्यसागर, दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, जयपुर 3. समयसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा 1 की टीका 4. कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 386 5. कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 325 6. अष्टपाहुड, भूमिका, पृष्ठ 19 7. देवशास्त्रगुरु पूजा, कविवर द्यानतराय
सहायक आचार्य
जैनदर्शन विभाग श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली - 110016
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अप्रेल 2013-2014
दर्शनपाहुड : एक अध्ययन
____ - डॉ. कस्तूरचन्द जैन 'सुमन'
'अष्टपाहुड' आचार्य कुन्दकुन्द की एक आध्यात्मिक रचना है। प्रस्तुत रचना में उन्होंने क्रमशः दर्शन, सूत्र, चारित्र, बोध, भाव, मोक्ष, लिंग और शील विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।
दर्शनपाहुड की चौंतीसवीं गाथा से प्रतीत होता है कि अष्टपाहुड की रचना मानवजाति के उत्थान लिए की गयी थी। गाथा निम्न प्रकार है -
लखूण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण।
लक्ष्ण य सम्मत्तं अक्खयसुक्खं च मोक्खं च।।34।। अर्थात् - यह जीव उत्तमगोत्र रचित मनुष्य पर्याय को तथा वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त कर अक्षय सुख और मोक्ष को प्राप्त होता है।
__ प्रस्तुत गाथा-प्रसंग से ज्ञात होता है कि मनुष्य-पर्याय की प्राप्ति और उसमें भी उत्तम गोत्र को पाकर मनुष्य चाहे तो सम्यक्त्व को प्राप्त कर अक्षय सुख मोक्ष को प्राप्त कर सकता
___ मनुष्य पर्याय और उत्तम गोत्र की प्राप्ति के पश्चात् भी मनुष्य में मनुष्यता, श्रुतिशास्त्रज्ञान, श्रद्धा और संयम की उपलब्धि दुर्लभ कही गयी है। किसी दार्शनिक ने लिखा भी है - 'मानुसत्वं' सुइ सद्धा संयमो चतुदुल्लभाः'।
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आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम मोक्ष के प्रमुख साधनरूप दर्शन-सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझाया। सम्यग्दर्शन मात्र से मोक्ष संभव नहीं। अतः उन्होंने सूत्रपाहुड की रचना कर उसे आगम-ज्ञान कराने का श्रम किया। ज्ञान होने के पश्चात् चारित्रपाहुड रचकर मोक्ष पाने के अनुकूल चारित्र की अपेक्षा की। बोधपाहुड से चारित्रिक अनुकूलता दर्शाकर भावपाहुड के माध्यम से भावशुद्धि और तदुपरान्त मोक्षपाहुड लिखकर मोक्ष की चर्चा की। लिंगपाहड में वेष का निर्धारण किया तथा अन्त में शीलपाहुड लिखकर शील का महत्त्व दर्शाया है। इस प्रकार आचार्य ने मोक्ष प्राप्ति के विभिन्न अंगों का विश्लेषण किया है।
दर्शनपाहुड, मोक्ष प्राप्ति के साधनों में प्रथम साधन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मनुष्यों को मोक्ष प्राप्ति के विभिन्न उपहारों में यह प्रथम उपहार दिया है। इसमें आचार्य ने दर्शनमूलक धर्म के उपदेशामृत का शिष्यों को पान कराया है। सदुपदेशों से मोक्ष का मार्ग दर्शाया है। आचार्य की मान्यता है कि जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह वन्दनीय नहीं है -
दसण हीणो ण वंदिव्वो। वन्दनीय कौन है इस सन्दर्भ में आचार्य लिखते हैं कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में निरन्तर लीन रहते हैं, गुणों के धारक आचार्य आदि का गुणगान करते हैं वे वन्दनीय हैं, पूज्य हैं -
दसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था।
एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।।23।। इससे स्पष्ट है कि उक्त गुणों में यदि मात्र सम्यग्दर्शन है तो भी व्यक्ति वन्दनीय है। आचार्य की धारणा संभवतः यह रही है कि सम्यक्त्व होने पर उक्त गुणों में अन्य गुणों की उपलब्धि भी संभावित है।
आचार्य ने प्रस्तुत पाहुड में सम्यक्त्व को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि कोई सम्यक्त्वी क्यों न हो किन्तु यदि सहजोत्पन्न दिगम्बर मुद्रा को मात्सर्य भाव के कारण देखने के योग्य नहीं मानता है तो वह संयमी होने पर भी मिथ्यादृष्टि ही है। गाथा द्रष्टव्य है -
सहजुप्पणं रूवं दटुं जो मण्णएण मच्छरिओ।
सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।।24।। अवन्दनीयों के विवरण में आचार्य ने यह भी कहा है कि जो देवों के द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्र के रूप को देखकर भी स्वयं को बड़ा मानते हैं वे सम्यग्दर्शन से रहित हैं।
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- वन्दना के प्रसंग में आचार्य का कथन है कि असंयमी तो अवन्दनीय है ही किन्तु भाव संयम से रहित बाह्य नग्न रूपधारी भी वन्दनीय नहीं है क्योंकि दोनों असंयमी हैं।
असंजदं ण वंदे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज्ज।
दोणि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।।26।। आचार्य ने लिखा है कि देह-कुल-जाति वन्दनीय नहीं है। वन्दनीय गुण होते हैं। गुणहीन की कौन वन्दना करता है? गुणों के बिना न मुनि होता है और न श्रावक होता है।
ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो।
को वंदमि गुणहीणो ण हुसवणो णेय सावओ होइ।।27।। आचार्य ने लिखा है कि वे तपस्वी साधुओं की, उनके शील की, उनके गुणों की, ब्रह्मचर्य की और मुक्ति गमन की सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से वन्दना करते हैं। यही नहीं चौंसठ चमर सहित, चौंतीस अतिशयों से युक्त, प्राणियों के हितैषी और कर्मक्षय के कारण परमदेव को भी उन्होंने वन्दना के योग्य माना है (28-29)।
मोक्ष के लिए ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र - इन चार गुणों का समागम अपेक्षित कहा है (30)। . दर्शनपाहुड की निम्न गाथा ध्यातव्य है -
णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं।
सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं।।31।। आचार्य ने मनुष्य के लिए जगत में सार स्वरूप ज्ञान बताया है तथा ज्ञान में भी अधिक सार सम्यग्दर्शन में कहा है। सम्यग्दर्शन सम्यकचारित्र का मूल है। यह सम्यक्चारित्र ही निर्वाण प्राप्त कराता है। उन्होंने कहा - जो जीव सिद्ध हुए हैं वे ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व सहित तप और चारित्र के समागम से हुए हैं (32)।
सम्यग्दर्शन रूपी रत्न जीव-कल्याण की परम्परा के कारण लोक में देव ही नहीं दानवों के द्वारा भी पूजा जाता है (33)। .
कर्मों का क्षय बारह प्रकार के तपों से होना कहा है। विधिपूर्वक कर्मों का क्षय कर जो देह व्युत्सर्ग करते हैं अर्थात निर्ममता से शरीर त्यागते हैं वे सर्वोत्कृष्ट मोक्ष को प्राप्त करते हैं (36)।
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प्रस्तुत विवेचन से प्रतीत होता है कि आचार्य ने 'दसणहीणो ण वंदिव्वो' कहकर दर्शन से भ्रष्टजनों को ऐसा भ्रष्ट बताया है कि वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते। कदाचित् सम्यकचारित्र से भ्रष्टजन सिद्ध हो सकते हैं किन्तु सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट सिद्ध हो ही नहीं सकते (3)।
सम्यक्त्वरहित अवस्था का महत्त्व प्रतिपादित करते हए कहा गया है कि हजारोंकरोड़ों वर्ष तक उग्र तपश्चरण करने पर भी रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती। इसका अर्थ है कि बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति में सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति आवश्यक है। दर्शन, ज्ञान
और चारित्र - तीनों से भ्रष्टजन भ्रष्टों में भ्रष्ट अत्यन्त भ्रष्ट कहे गये हैं। संभवत इस स्थिति से बचने के लिए आचार्य ने मात्र सम्यक्त्व को प्राथमिकता दी है। उन्होंने दृष्टान्तों के द्वारा भी शिष्यों को समझाया है कि जैसे मूल-जड़ के नष्ट होने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं होती ऐसे ही दर्शन से भ्रष्ट जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं होते (11)। मोक्षमार्गसम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप कहा गया है। किन्तु यहाँ जिनदर्शनजिनधर्म-श्रद्धान को मोक्षमार्ग की जड़ कहा है (11)। ___आचार्य ने सम्यग्दर्शन से भ्रष्टजनों की कार्यप्रणाली को ध्यान में रखकर अपने शिष्यों को समझाते हुए उन्हें सचेत किया है कि ऐसे लोग मिथ्यामार्ग में पड़कर सम्यग्दृष्टियों से यदि नमन कराने के भाव रखते हैं, नमन कराते हैं तो वे लूले और गूंगे होते हैं। वे स्थावरत्व को प्राप्त होते हैं क्योंकि गति और शब्दश्रवणहीनता स्थावरों में ही देखी जाती है।
यदि सम्यग्दृष्टि लज्जा, गौरव और भय के वशीभूत होकर मिथ्यादृष्टियों को नमन करते हैं, उनके पाप की अनुमोदना करते हैं तो उन्हें भी बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती।
सच्चा सम्यक्त्वी सम्यक्त्व में अडिग रहता है। वह निज की चिन्ता छोड़कर निज सिद्धान्त और श्रद्धान को प्राथमिकता देता है।
सम्यग्दर्शन ऐसे संत-समागम से, सान्निध्य से उपलब्ध होना कहा है जो उभय परिग्रह के त्यागी, मन-वचन-काय योगों में संयत, कृत-कारित-अनुमोदना से ज्ञान में शुद्ध रहता है और खड़े होकर आहार लेता है (14)।
जिससे सेव्य-असेव्य, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है, समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है ऐसा सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन से ही होता है (15)।
सम्यग्दृष्टि छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सातों तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धानी होता है (19)।
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आचार्य ने तत्त्व-श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। उनकी दृष्टि में शुद्ध आत्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व ही मोक्ष प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रतीत होता है। इसे उन्होंने रत्नत्रय में सार रूप मोक्ष की प्रथम सीढ़ी कहा है। इसे अच्छे अभिप्राय से धारणीय बताया है।
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण।
सारं गुणरयणत्तयसोवाणं पढम मोक्खस्स।।21।। पण्डित दौलतरामजी कुन्दकुन्दाचार्य के परम अनुयायी रहे हैं। उन्होंने शास्त्रों का साररूप अपनी कृति 'छहढाला' में आचार्य कुन्दकुन्द के कथन को दोहराया है। उन्होंने लिखा है -
मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी या विन ज्ञान-चरित्रा। सम्यकता न लहे सो दर्शन धारोभव्य पवित्रा।। 'दौल' समझ सुन चेत सयाने काल वृथा मत खोवै।
यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक नहीं होवे।।3.17॥ पण्डित दौलतरामजी ने भी स्वीकार किया है कि सम्यक्दर्शन मोक्षरूपी महल की प्रथम सीढ़ी है इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्त्व नहीं कहे जा सकते। दौलतराम जी समझाते हुए कहते हैं कि हे चतुर-समझदार, ध्यान से श्रवण कर। समय व्यर्थ मत जाने दे। मनुष्य पर्याय समुद्र में गिरे रत्न के समान पुनः मिलना कठिन है। अतः इसी पर्याय में सम्यक्त्व धारण करो।
आचार्य कुन्दकुन्द ने सार स्वरूप कहा है कि दर्शनहीन वन्दनीय नहीं है। इस वाक्य में रहस्य भरा है। मोक्षमार्गी कुमार्गी नहीं होता। वह कुमार्ग से मुख मोड़ सुमार्ग-मोक्षमार्ग से नाता जोड़ता है। वीतरागता को खोजता है और वीतरागी की शरण में जाता है। वीतरागी की वन्दना से वीतरागता का उपदेश मिलता है। पूज्य जैसा होता है पूजक भी वैसा ही अनुसरण करता है।
सरागी देव से राग की शिक्षा मिलती है जबकि सम्यक्त्व के लिए वीतरागता अपेक्षित होती है। शरीर से निःस्पृहता आवश्यक होती है। जल से भिन्न कमल के समान वह निःस्पृही होकर जीवन जीता है और अपना आत्मकल्याण करने में पीछे नहीं रहता। ऐसे निःस्पृही ही सम्यक्त्व को साकार करते हैं।
अन्त में आचार्य यह भी कहते हैं कि चारित्र अपनी शक्ति के अनुसार करें किन्तु चारित्र के प्रति श्रद्धान अवश्य रखें। जहाँ श्रद्धान होता है श्रद्धा के अनुकूल आचार भी समय आने पर
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प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। अतः सम्यक्त्वाचरण को आधार बनाकर मोक्ष की ओर बढ़ने में
सार है।
1. तत्त्वार्थ सूत्र : 1.1
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जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी जिला - करौली, राजस्थान
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अप्रेल 2013-2014
जैन अध्यात्म योग का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'मोक्षपाहुड'
- डॉ. अनेकान्तकुमार जैन
ध्यान-योग जैन साधना-परम्परा का मूल आधार है। अगर हम साहित्यिक प्रमाणों से इतर पुरातात्त्विक प्रमाणों को भी देखें तो पायेंगे कि हमें तीर्थंकरों की जो प्राचीन से प्राचीन मूर्तियाँ (प्रतिमाएँ) खुदाई में प्राप्त हुई हैं वे सभी प्रतिमाएँ या तो पद्मासन मुद्रा में मिलती हैं, या खड़गासन मुद्रा में, इसके अलावा अन्य किसी मुद्रा में तीर्थंकर योगियों की प्रतिमाएँ नहीं मिलती। परम वीतरागी, शान्त, नासाग्रदृष्टि, शुक्लध्यान में स्थित प्रतिमाएँ ही मिलती हैं। यह एक बहुत बड़ा प्रमाण है कि जैन साधना का मूल ही ध्यान-योग रहा है।
साहित्यिक दृष्टि से भी देखें तो आचारांग आदि अर्धमागधी आगमों में तो ध्यानयोग के अनेक उल्लेख मिलते ही हैं, शौरसेनी आगमों में भी इसके पुष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं। इसी परम्परा में मैं एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की तरफ आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिसका नाम है 'मोक्षपाहुड'।' समयसार आदि परमागमों का प्रणयन करनेवाले परम योगी आचार्य कुन्दकुन्द ने ईसा की पहली शती में इस ग्रन्थ का प्रणयन ‘योगियों' को सावधान करने के लिए किया था। मात्र मोक्ष के लक्ष्य से जो योग होता है उसे हम 'अध्यात्म योग' कहते हैं। यहाँ मात्र शुद्धात्मा के लक्ष्य से सारा कथन होता है और यदि शुद्धात्मा से अतिरिक्त कोई बात हो तो उसकी आलोचना भी होती है। 'अध्यात्म योग' शब्द का प्रयोग आगमों में भी हुआ है।
'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवदिट्ठिए ठि अप्पा''
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आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘अष्टपाहुडों' का प्रणयन किया जिसमें दंसणपाहुड, चारित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, लिंगपाहुड, शीलपाहुड ग्रन्थ आते हैं।
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आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ पाहुड कहे जाते हैं। 'पाहुड' अर्थात् 'प्राभृत' जिसका अर्थ होता है 'भेंट' या 'उपहार'। आचार्य जिनसेन ने समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है कि जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राजा का दर्शन करने के लिए कोई ' सारभूत वस्तु' राजा को देता है तो उसे प्राभृत या 'भेंट' कहते हैं, उसी प्रकार परमात्मा आराधक पुरुष के लिए निर्दोष 'परमात्मा रूपी राजा' का दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी 'प्राभृत' अर्थात् भेंट हैं। 2
'मोक्षपाहुड' में एक सौ छह गाथायें हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं यह लिखा है कि इस ग्रन्थ में मैं परम योगियों के लिए परमपद रूप परमात्मा का कथन करूँगा - वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ।।2।।
-
जिसको जानकर 'योगी' अव्याबाध, अनन्त, अनुपम निर्वाण को प्राप्त होता है . जाणिऊण जोई जोअत्थो जोइऊण अणवरयं । अव्वावाहमणतं अणोवमं हवइ णिव्वाणं ॥3॥
इस ग्रन्थ को देखकर तथा इस ग्रन्थ में प्रतिपादित विषय गाथाओं में साक्षात् 'योग', 'योगी', 'ध्यान', 'ध्यानी' आदि शब्दों को देखकर डॉ. हीरालाल जैन ने लिखा है कि इस ग्रन्थ का नाम 'मोक्षपाहुड' की जगह 'योगपाहुड' होना चाहिए था ।
मोक्षपाहुड में आचार्य कहते हैं कि मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य को मनवचन-कायरूप त्रिविध योगों से जोड़कर जो योगी मौनव्रत से ध्यानस्थ होता है वही आत्मा को द्योतित करता है, प्रकाशित करता है ।
मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएति तिविहेण । मोणव्वण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा | | 28।।
योगी मौन क्यों रहता है? इसका बहुत आध्यात्मिक समाधान अगली गाथा में कहा
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जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे गंतं तम्हा जंपेमि केण हं।।29।। अर्थात् जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह बिल्कुल नहीं जानता और जो जानता है वह दिखाई नहीं देता तब मैं किसके साथ बात करूँ? (इसलिए मेरे मौन है।) इसके अलावा योगी का एक विलक्षण लक्षण भी बताते हैं -
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।।31॥ अर्थात् जो योगी व्यवहार में सोता है वह आत्मकार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है वह आत्मकार्य में सोता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो मुनि लौकिक कार्यों में उदासीन रहता है वह कर्मक्षयरूपी आत्मकार्य में जागता है और जो लौकिक कार्यों में जागरूक है वह आत्मकार्य में उदासीन रहता है।' आत्मध्यान में कैसा योगी लग पाता है उसके लिए कहते हैं -
देव गुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजदेसु अणुरत्तो।
सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होइ जोई सो ।।52।। अर्थात् - जो देव और गुरु का भक्त है, सहधर्मी भाई तथा संयमी जीवों का अनुरागी है तथा सम्यग्दर्शन को आदरपूर्वक धारण करता है ऐसा योगी ही ध्यान में तत्पर होता है।
आगे भी कहते हैं कि जब तक मनुष्य विषयों में रमण करता है तब तक आत्मा को नहीं जान पाता। विषयों से विरक्तचित्त योगी ही आत्मा को पहचानता है।
ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम।
विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं।।66।। इस प्रकार पहली शताब्दी में रचे गये इस ग्रन्थ में अनेक प्रेरक और रोचक गाथायें हैं जो सीधे योगी को लक्ष्य करके लिखी गयी हैं। यही कारण है कि जैनाचार्य परम्परा में हम आचार्य कुन्दकुन्द को जैन योग का प्रतिष्ठापक आचार्य मानते हैं।
1. अध्यात्मयोगशुद्धादान उपस्थितः स्थितात्मा - सूत्रकृतांग, 16/3
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2. समयसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा - 1 3. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान - डॉ. हीरालाल जैन, पृ. 116 प्रका. मध्यप्रदेश शासन,
भोपाल
4. तुलनीय
'व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे। जागर्ति व्यवहारेस्मिन सुषुप्त श्चात्मगोचरे।।78॥ - आचार्य पूज्यपाद, समाधितन्त्र
सहायक आचार्य
जैनदर्शन विभाग श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली - [10016
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मुनिराज ही जिनबिम्ब व जिनप्रतिमा
- डॉ. (प्रो.) कुसुम पटोरिया
आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन परम्परा के दृढ़स्तम्भ हैं। उनके पाहुडों से स्पष्ट है कि उस समय तक श्रमणों में आडम्बर अधिक बढ़ गया था। उस समय तक साधु अनेक प्रकार के आडम्बरों में लिप्त हो गए थे। सम्पूर्ण लिंगपाहुड में शिथिलताओं का वर्णन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन सबकी स्पष्ट और कड़े शब्दों में भर्त्सना कर वास्तविक श्रमणजीवन का तपोपूत चित्र उपस्थित किया है और उन्हें साक्षात् जिनेन्द्र का प्रतिरूप कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव की सारी चिन्ता एक ओर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझाने की है, तो दूसरी ओर श्रमणधर्म का निरूपण कर उन्हें आत्माभिमुख बनाने की है। वे मुनि के द्रव्यलिंग और भावलिंग किसी में भी किंचित् भी शिथिलता नहीं चाहते थे। सुत्तपाहुड में उन्होंने निश्चेल तथा पाणिपात्र को ही जिनेन्द्र - कथित मोक्षमार्ग बताया है। वस्त्रधारी तीर्थंकर भी हो तो मुक्त नहीं होता। नग्नलिंग ही मोक्षमार्ग है, अन्य सब उन्मार्ग हैं।' यहाँ भगवती आराधना की तरह उत्सर्ग-अपवाद लिंग की चर्चा नहीं है।' उन्होंने तीन ही लिंग कहे हैं - एक जिनरूप (अर्थात् नग्नमुनि - वेष ), दूसरे उत्कृष्ट श्रावक का और तीसरा आर्यिका का, चौथा कोई लिंग नहीं है। इनमें से निर्ग्रन्थ मुनि का मार्ग ही मोक्षमार्ग है। वही वंदनीय है । ' दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का लिंग है, जो भ्रमण कर भिक्षा द्वारा भोजन करता है तथा पात्र में भोजन करता है। मौन अथवा समितिरूप वचन का प्रयोग करता है। वह इच्छाकार योग्य है। ' तीसरा आर्यिका का लिंग कहा है, परन्तु उनकी प्रव्रज्या को शंका की दृष्टि से देखा है।' इसे ही परवर्ती आचार्यों ने औपचारिक कहा है।
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द्रव्यलिंग परमार्थ नहीं है। परमार्थ व प्रथम तो भावलिंग ही है। द्रव्यलिंग भावशुद्धि के लिए ग्रहण किया जाता है। भावपाहुड में इसी की चर्चा है कि भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग व्यर्थ व अकिंचित्कर है।' मोक्षपाहुड में भी द्रव्यलिंगी मुनियों को चारित्र से भ्रष्ट तथा मोक्षमार्ग का विध्वसंक कहा है।' इस भरत क्षेत्र में दुःखमा काल में भी धर्मध्यान होता है। जो इसका अपलाप करते हैं, वे मूढ व अज्ञानी हैं।' पाहुड ग्रन्थों में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने साधु के सही स्वरूप के निरूपण को ही विषय बनाया है। अपने ज्ञान और चारित्र के बल पर ही उन्होंने साधुओं के सम्यक् स्वरूप का विवेचन किया है। पुनरुक्तियाँ भी इसीलिए हैं, क्योंकि अज्ञानी साधुओं को बार-बार सचेत किया है।
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बोधपाहुड एक विशिष्ट रचना है। जिनमार्ग में जो कहा है, वह षट्जीव निकाय के लिए हितकर है, आचार्य उसी के कथन की प्रतिज्ञा करते हैं। इसमें 11 अधिकार अर्थात् ग्यारह शब्दों के विशिष्ट अर्थ दिए गए हैं। इन विशिष्ट अर्थों को उन्होंने जिनवरकथित व षट्कायहितंकर कहा है, जिसे वे सकलजन बोधनार्थ कहते हैं। ये ग्यारह शब्द हैं - 1. आयतन, 2. चैत्यगृह, 3. जिनप्रतिमा, 4. दर्शन, 5. जिनबिम्ब, 6. जिनमुद्रा, 7. ज्ञान, 8. देव, 9. तीर्थ, 10. अर्हत और 11. प्रव्रज्या । इन सबका अर्थ मुख्यतः मुनि है। आरम्भिक नौ शब्दों का अर्थ मुनि ही लिया गया है। प्रव्रज्या भी मुनि की प्रव्रज्या का स्वरूप है। अरहन्त शब्द से अरहंत का स्वरूप कथन किया गया है। ये सब अर्थ प्रचलित अर्थों से विशिष्ट, मौलिक व भूतार्थनय से किये गए हैं। 10
आयतन
आयतन शब्द का सामान्य अर्थ है घर, निवास-स्थान, जैसा कि धर्मायतन, देवायतन आदि शब्दों में है। आचार्यश्री तीन गाथाओं में आयतन का अर्थ करते हैं। आयतन का अर्थ है संयतरूप । मन-वचन-कायरूप द्रव्य जिनके स्वाधीन है, इन्द्रियों के विषयों पर जिनका संयम है, वे संयतरूप हैं। अभिप्राय हुआ त्रिगुप्ति युक्त व इन्द्रिय संयमी मुनि संयत रूप है। यह संयत रूप ही आयतन है। दूसरी गाथा में वीतरागी, निष्कषाय महाव्रतधारी महर्षियों को आयतन कहा है। महर्षि वीतरागी व निष्कषाय कहा है। दोनों गाथाओं में बाह्य और आभ्यन्तर रूप से संयमी को आयतन कहा है। आशय यह है कि संयम का स्थान होने से मुनि ही आयतन है। तीसरी गाथा में शुद्धात्म, विशुद्धध्यानी, ज्ञानी (वस्तुतत्त्व का ज्ञाता ) मुनिवृषभ को सिद्धायतन कहा है। शुद्धात्मा का निवास-स्थल होने से यही वास्तविक आयतन है। वह विशुद्धध्यानी व आत्मज्ञ होने से झटिति सिद्धत्व प्राप्त करनेवाला होने से सिद्धायतन (सिद्ध का निवास) कहा गया है। "
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चैत्यगृह - दूसरा शब्द है चैत्यगृह जिसका मंदिर अर्थ प्रसिद्ध है। बोधपाहुड के अनुसार चैत्य अर्थात् चेतनात्मा (शुद्धात्मा) का निवास मुनि ही चैत्यगृह है। स्व-पर आत्मा को जाननेवाला बुद्ध, पंचमहाव्रतपालन से शुद्ध, ज्ञानमय मुनि, चैत्यगृह है अथवा बंधमोक्ष, सुख-दुख का अनुभव करनेवाला आत्मा चैत्य व चैत्य का निवास मुनि चैत्यगृह है। चैत्यगृह को षट्कायहितंकर कहा गया है। सम्पूर्ण अहिंसा का पालक मुनि ही षट्काय के जीवों का रक्षक होता है। 12
जनप्रतिमा जिनप्रतिमा का अर्थ तीर्थंकर की पाषाणादि निर्मित प्रतिमा लिया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव मुनि की चलती-फिरती देह को ही जिनमार्ग में कही हुई जिनप्रतिमा कहते हैं। जिनप्रतिमा तो बाह्य अनुकृति होने से बाह्य प्रतिमा (स्थापित प्रतिमा) है। स्थापना सत्य व्यवहार है। जिनका अर्थ तो निर्ग्रन्थ वीतराग है, अतः जिनके गुण जहाँ प्रतिबिम्बित हों वह रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ वीतराग मुनि ही जिनप्रतिमा है, इसे ही आचार्यश्री जंगमप्रतिमा या संयत प्रतिमा कहा है। अगली दो गाथाओं में सिद्धस्थान में विराजमान सिद्धों को व्युत्सर्ग प्रतिमा कहा है। 13
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दर्शन - दर्शन का अर्थ दिखलानेवाला किया है। सम्यक्त्व, संयम, सुधर्म, निर्ग्रन्थ, ज्ञान ये मोक्षमार्ग हैं। इन्हें दिखानेवाला ही जिनमार्ग में दर्शन कहा गया है। इस प्रकार दर्शन का अर्थ सिद्धान्त न लेकर उसका उपदेशक मुनि किया है। जैसे पुष्प गन्धमय और दुग्ध घृतमय होता है, उसी प्रकार दर्शन ज्ञानमय होता है। ज्ञानमय रूपस्थ मुनि ही दर्शन है। 14
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जिनबिम्ब जिन अर्थात् वीतराग सर्वज्ञ का प्रतिबिम्ब जिनबिंब है। जिनेन्द्र भगवान् की पाषाणादि निर्मित प्रतिमा तो स्थापित प्रतिमा है। बाह्याकृति का प्रतिरूप है। जिन तो ज्ञानी व वीतरागी का नाम है और ऐसे जिन का बिम्ब मुनि (आचार्य) ही है, क्योंकि वही ज्ञानमय, संयमी व वीतरागी है। जिन ने जिस प्रकार भव्यों को मोक्षमार्ग प्रशस्त किया उसी प्रकार मुनि (आचार्य) भी शिक्षा व दीक्षा देते हैं, जो शुद्ध व कर्मक्षय का कारण होती हैं। उनकी ही पूजा, प्रणाम, विनय व वात्सल्य करना चाहिए। उनमें ही चेतना भाव व ज्ञान - दर्शन पाया जाता है। 15
जिऩमुद्रा - मुनि ही अर्हन्त की तरह शिक्षा-दीक्षा देने के कारण अर्हन्तमुद्रा है। ज्ञानी मुनि ही दृढ़संयम, इन्द्रियनिग्रह व कषायरहित होने से जिनमुद्रा है। इस प्रकार जिनमुद्रा अर्थ भी मुनि ही है। 16
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जैनविद्या 26 ज्ञान - मुनि ही साक्षात् ज्ञान है। संयम से संयुक्त, सुध्यानी व मोक्षमार्गी मुनि ही ज्ञान से अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। ज्ञानी मुनि से ही ज्ञान जाना जाता है। ज्ञान अमूर्त गुण है उसे ज्ञानी मुनि में ही समझाया जा सकता है। सत्पुरुष विनय से ज्ञान प्राप्त करते हैं। मोक्षमार्ग रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने वाले मुनि का मतिरूपी धनुष स्थिर होता है। श्रुत प्रत्यंचा व रत्नत्रयरूपी बाण से परमार्थ पर दृष्टि स्थिर रखते हुए मोक्षरूपी लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। ज्ञानी मुनि ही ज्ञान का आश्रय होने से ज्ञान है। ज्ञानी के अभाव में ज्ञान निराश्रित है। ज्ञानी के अतिरिक्त कहीं ज्ञान प्राप्त होना संभव नहीं है।"
देव - देव शब्द का अर्थ है दाता। अर्थ, धर्म, काम और ज्ञान देनेवाला देव है। अर्थ, धर्म और प्रव्रज्या में जो जिसके पास होता है, देता है। अगली गाथा में धर्म, प्रव्रज्या
और देव का अर्थ स्पष्ट किया गया है। दयाविशुद्ध धर्म है। सर्वसङ्ग का परित्याग प्रव्रज्या है। व्यपगतमोही देव है। ऐसा देव भव्यजीवों का उदय करने वाला है। भव्यजीव के लिए प्राप्य धर्म और प्रव्रज्या है, जिसे स्वयं धर्मयुक्त व प्रव्रजित मुनि (आचार्य) ही देता है। वही देव
है।
तीर्थ – तीर्थ के विषय में कहते हैं कि व्रत व सम्यक्त्व से विशुद्ध, इन्द्रियविषयों में संयत और अपेक्षा-आकांक्षा रहित तीर्थ है। इस तीर्थ में मुनि दीक्षा व शिक्षा रूपी स्नान से स्नात होता है। तीर्थ का अर्थ होता है घाट अर्थात् नदी में उतरने का स्थान। पवित्र स्थलों को तीर्थ कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि निर्मल सुधर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप, ज्ञान आदि भावसहित हो तो वे जिनमार्ग में तीर्थ कहे गए हैं। इस गाथा में मुनि जिनका अनुपालन करता है, वह दया अथवा उत्तमक्षमादि धर्म, सम्यक्त्व, षट्कायजीवनिकायों की रक्षा रूप संयम, तप, ज्ञान को तीर्थ कहा है। ये स्वयं मूर्त रूप नहीं है, पालन करते मुनि में ही साकार होते हैं। इस प्रकार मुनि ही तीर्थ है।
अर्हन्त - अर्हन्त शब्द की नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव चारों निक्षेपों से व्याख्या की गई है। इन निक्षेपों का उपयोग व्यवहार सत्य के लिए किया जाता है, जिससे लोकव्यवहार सुचारु रूप से चल सके। परन्तु यहाँ अर्हन्त शब्द की व्याख्या इन चारों निक्षेपों से तथ्यात्मक रूप से की गई है, व्यवहार से नहीं। सत्तरह गाथाओं में अर्हन्त शब्द की व्याख्या है।
अनन्त दर्शन और ज्ञान होने व अष्टकर्मबन्ध का नाश होने से मोक्ष है। ऐसे निरूपम गुणों पर आरूढ़ को अर्हन्त कहते हैं। गुणों से युक्त ही अरहंत है। नाममात्र को
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अर्हन्त नहीं कहते हैं। अगली गाथा में दोषरहित को अरहंत कहा है। जरा, व्याधि, जन्ममरण, चतुर्गतिगमन, पुण्यपाप जैसे दोष-कर्मों का नाश करके ज्ञानमय (सर्वज्ञ) अरहंत होता है। स्थापना की दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान में स्थित, चौंतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य युक्त होते हैं। मार्गणा की दृष्टि से मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, त्रसकाय, पाँच योग आदि पर्याप्ति प्राण, व जीवस्थान आदि का विचार कर स्थापना अर्हन्त का स्वरूप बताया है।
द्रव्य अरिहंत में अर्हन्त के निर्दोष, निर्मल औदारिक काय का वर्णन है। भाव अरिहंत के रूप में उनके 'केवल' भाव का वर्णन है, इस प्रकार अरहंत का वास्तविक स्वरूप बताया है।20
प्रव्रज्या - इसके पश्चात् अन्तिम प्रव्रज्या का स्वरूप विस्तार से बताया है। मुनिवर वृषभों के ठहरने के स्थान दो गाथाओं में बताए हैं। प्रव्रज्या का सही स्वरूप आगे की गाथाओं में बताया है। गृह-ग्रंथ (परिग्रह)- मोह से मुक्त होना, बाईस परीषह सहना, कषायों को जीतना, पापदंभ से विमुक्त होना यह प्रव्रज्या का स्वरूप है। अगली गाथा में प्रव्रज्या को किन दोषों से रहित होना चाहिए, यह बताते हुए कहा है कि धन, धान्य, वस्त्र, सुवर्ण, शयन, आसन, छत्र, भूमि आदि दान से रहित होना चाहिए। शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा, लाभा-अलाभ, तृण-कंचन में समभाव, निरपेक्ष भाव से निर्दोष आहार निष्कषाय प्रव्रज्या होती है। अन्तरंग शुद्धि के बाद बहिरंग का वर्णन करते हैं यथाजातरूप, कायोत्सर्गमुद्रा, शस्त्ररहित, शांत, दूसरों के बताये हुए घर में अस्थायी निवास ऐसी प्रव्रज्या होती है। उपशम-क्षमा, इन्द्रियनिग्रह आदि से युक्त शरीरसंस्कार से वर्जित तथा मद, राग, दोष से रहित प्रव्रज्या होती है। जिसका मूढभाव, आठकर्म, मिथ्यात्व नष्ट हो गया है और जो सम्यक्त्वगुण से शुद्ध है, प्रव्रज्या उसकी होती है। प्रव्रज्या छह प्रकार के संहननों में से कोई भी संहनन करनेवाला ले सकता है। प्रव्रजित पशु, महिला, नपुंसक, कुशील व्यक्तियों का संग व विकथा नहीं करता। स्वाध्याय व ध्यान से युक्त होता है।21
इस विवेचन से स्पष्ट है कि इस काल में भी भावलिंगी मुनि होना संभव है। आत्मध्यान भी संभव है। विशेषतः तीर्थंकरों की अनुपस्थिति में ये ही हमारे लिए जिनेन्द्र के प्रतिरूप हैं, वंदनीय हैं।
1. सुत्तपाहुड, 10, 23 2. भगवती आराधना, 76-8 3. दर्शनपाहुड, 18
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4. सुत्तपाहुड, 20 5. सुत्तपाहुड, 21 6. वही, 22-27 7. भावपाहुड, 2-7 8. मोक्षपाहुड, 61 9. वही, 76 10. बोधपाहुड, 3-4 11. वही, 5-7 12. वही, 8-9 13. वही, 10-13 14. वही, 14-15 15. वही, 16-18 16. वही, 19 17. वही, 20-23 18. वही, 24-25 19. वही, 26-27 20. वही, 28-41 21. वही, 42-57
आजाद चौक, सदर, नागपुर - 440001
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अप्रेल 2013-2014
अष्टपाहुड में श्रमण और श्रमणाभास
- डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र'
आचार्य कुन्दकुन्द जैन दर्शन, सिद्धान्त, साहित्य एवं शौरसेनी प्राकृत के मूर्धन्य मनीषी और आध्यात्मिक चिन्तक थे और अनेकान्त दृष्टि के प्रबल समर्थक भी। उनके चिन्तन से भारतीय मनीषा प्रभावित हई। यही कारण है तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के बाद की उत्तरवर्ती जैनाचार्यों की परम्परा में अनेक महान आचार्यों में कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्रद्धापूर्वक सबसे पहले स्मरण किया जाता है -
मंगलं भगवान्वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाों जैन धर्मोऽस्तु मंगलं ।। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित उपलब्ध कृतियाँ हैं - समयपाहुड (समयसार), पवयणसारो (प्रवचनसार), णियमसारो (नियमसार), पंचत्थिकायसंगहो (पंचास्तिकायसंग्रह), अट्ठपाहुड (अष्टपाहुड), बारस अणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा), भत्ति संगहो (भक्ति संग्रह)। इनमें अट्ठपाहुड आठ पाहुडों का संग्रह है, इसमें 503 गाथाएँ हैं जो इस प्रकार हैं - दसण पाहुड (दर्शन प्राभृत) 36, सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभृत) 27, चारित्त पाहुड (चारित्रप्राभृत) 45, बोध पाहुड (बोधप्राभृत) 62, भावपाहुड (भावप्राभृत) 165, मोक्ख पाहुड (मोक्षप्राभृत) 106, लिंग पाहुड (लिङ्ग प्राभृत) 22, सील पाहुड (शील प्राभृत) 400
अष्टपाहुड पर पं. जयचन्दजी छाबड़ा द्वारा (ढूंढारी भाषा में) लिखित भाषा वचनिका
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टीका तथा श्रुतसागर सूरि भट्टारक द्वारा लिंग पाहुड और शील पाहुड को छोड़कर शेष छह पाहुडों पर विद्वत्तापूर्ण टीका उपलब्ध है।*
ग्रन्थकार ने अष्टपाहुड के माध्यम से जैन दर्शन का हार्द - रत्नत्रय धर्म, श्रमणाचार, सच्चे श्रामण्य आदि विषयों की विस्तृत विवेचना की है। श्रमण को शिथिलाचार से बचने/ बचाने के लिए सजग/सावधान किया है जिससे वह सर्वज्ञदेव द्वारा प्रतिपादित आत्मकल्याण के विशुद्ध मार्ग पर अग्रसर हो अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त कर सके। ग्रन्थकार ने शिथिलाचार के विरुद्ध आवाज उठाकर अपने शिष्यों के आचरण को अनुशासित किया है। इसमें शिथिलाचार के विरुद्ध सशक्त आदेश है, प्रेरक उपदेश है तथा मृदुल संबोधन भी है। वर्तमान में श्रमणों की आचार-विषयक जो मर्यादा दिखाई देती है वह आचार्य कुन्दकुन्द की ही देन है। .
अष्टपाहुड में श्रमण का स्वरूप मूलाचार या श्रमणाचार के ग्रन्थों में वर्णित स्वरूपवत् न होकर प्रकीर्णक रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। जैसे चारित्रपाहुड में पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति के स्वरूप; सूत्रपाहुड में पाणिपात्र में आहार ग्रहण करने; भावपाहुड में भावलिंग की प्रधानता से साधुस्वरूप तथा भाव विशुद्धि बनाये रखने का संदेश, परीषह-उपसर्ग सहने की प्रेरणा, अनुप्रेक्षा, विनय, ध्यान का निरूपण; मोक्षपाहुड में स्वद्रव्य ध्यान, सम्यक् चारित्र, समभाव चारित्र; शीलपाड में शील की श्रेष्ठता का विवेचन है। यहाँ श्रमण के स्वरूप, वंदनीय तथा अवंदनीय श्रमण कौन है? अवंदनीय होने के कारण, श्रमणाभास आदि विषयों पर विचार किया जा रहा है। श्रमण
प्राकृत भाषा के 'समण' का रूपान्तर है श्रमण। 'श्राम्यति आत्मानं तपोभिरिति श्रमणः' अर्थात् जो तपों से अपनी आत्मा को श्रमयुक्त करता है वह श्रमण है। 'श्राम्यति मोक्षमार्गे श्रमं विदधातीति श्रमणः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो मोक्षमार्ग में श्रम करता है वह श्रमण है। यहाँ श्रमण में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों गर्भित हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने साधु को पराक्रमी, स्वाभिमानी, भद्रप्रकृति, सरल, निरीह, गोचरी वृत्ति, निःसंग, तेजस्वी, गंभीर, अकंप, शान्तचित्त, प्रभायुक्त, सर्वबाधाजयी, अनियतवासी, निरालंबी, निर्लेप आदि गुणों से युक्त कहा है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में पंचसमिति, पंचेन्द्रिय-विजय, त्रिगुप्तियुक्त, कषायजयी, दर्शन-ज्ञानपूर्ण, एकाग्रचित्त, समभावी को साधु कहा है। अष्टपाहुड
___ *वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागरजी संघस्थ मुनि श्री प्रणम्यसागर जी ने अष्टपाहुड के लिंगपाहुड तथा शीलपाहुड पर संस्कृत में नन्दिनी टीका लिखकर हिन्दी अनुवाद किया है। यह धर्मोदय साहित्य प्रकाशन, खुरई रोड, सागर से वर्ष 2008 में प्रकाशित है।
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में कहा है - जिसके हृदय में शत्रु-मित्र में समभाव है, प्रशंसा-निंदा, लाभ-अलाभ, तृणकंचन में समभाव है, जो निर्ग्रन्थ, निःसंग, निर्मान, रागरहित, द्वेषरहित, ममत्वहीन, निरहंकारी, यथाजात-नग्न, लंबायमान भुजा, निरायुध, सुंदर अंगोपांग, अन्यकृत निवासवासी, उपशान्त परिणामी, क्षमाभावी, इन्द्रियजयी, शृंगारहीन, अज्ञाननिवृत्त और सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध है वह श्रमण है। पंचेन्द्रियों को वश में करना, पच्चीस क्रियाओं के रहते हुए, पंच महाव्रत धारण करना, तीन गुप्तियों को धारण करना साधुओं का संयम चारित्र है।
निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलनेवाले ही परिपूर्ण श्रमण हैं, इनका स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द ने (प्रवचनसार में) इस प्रकार बतलाया है -
चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्हि।
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो।।214।। . जो श्रमण सदा ज्ञान और दर्शनादि में प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में प्रयत्नशील विचरण करता है वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है।
पूर्ण श्रमण का लिंग जिनलिंग है। वह लिंग दोषरहित होता है। उसमें अयाचक वृत्ति होती है। भावों की शुद्धि की प्रधानता होती है जैसा कि भावपाहुड में बतलाया गया है - जिसमें पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग किया जाता है, पृथ्वी पर शयन किया जाता है, दो प्रकार का संयम धारण किया जाता है, भिक्षायोजन किया जाता है, भाव की पहले भावना की जाती है तथा शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति की जाती है, वही जिनलिंग निर्मल कहा जाता है। श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य ने दिगम्बर मुनि के बाह्य स्वरूप और आभ्यन्तर स्वरूप का पार्थक्य बतलाते हुए द्रव्यलिंगी और भावलिंगी मुनि की पहचान बतलाई है। द्रव्यलिंगी मुनि संसार में परिभ्रमण करता है और भावलिंगी मुनि पंचमगति मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसे साधु के अट्ठाइस मूलगुण प्रवचनसार में इस प्रकार बतलाये गये हैं -
वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेग भत्तं च।।208॥ पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निग्रह, छह आवश्यक, केशलोंच, नग्नता, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्त-धावन, स्थितिभोजन और एक भक्त (दिन में एक बार आहार ग्रहण) जिनवर द्वारा ये साधु के मूलगुण बताये गये हैं।
इन मूलगुणों के अभाव में मुनि जिनलिंग का विराधक होता है। इन मूलगुणों की रक्षार्थ अनुप्रेक्षा, तप आदि उत्तरगुणों का पालन भी अनिवार्य है।' इन गुणों का पालन करते
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हुए जो साधु वैराग्य में तत्पर होता है, परद्रव्य से परांगमुख रहता है, संसारसुख से विरक्त रहता है, वह स्वकीय शुद्ध सुख में अनुरक्त साधु होता है। ऐसा साधु सच्चा साधु है। सच्चे साधु ही वन्दनीय हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शनपाहुड में कहा है - मैं उन मुनियों को नमस्कार करता हूँ जो तप से सहित है, साथ ही उनके शील को, गुण को, ब्रह्मचर्य को और मुक्ति प्राप्ति को भी सम्यक्त्व तथा शुद्ध भाव से नमस्कार करता हूँ -
वंदमि तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च।
सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण।।28।। अष्टपाहुडकार ने इस प्रकार वन्दनीय साधु के गुण बतलाये हैं। सूत्रपाहुड में उन्होंने निर्दिष्ट किया है - जो मुनि संयम से सहित है तथा आरम्भ-परिग्रह से विरत है, बावीस परीषह सहन करते हैं, सैकड़ों शक्तियों से सहित हैं, कर्मों के क्षय तथा निर्जरा करने में कुशल हैं, ऐसे श्रमण वन्दना करने योग्य हैं।'
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण की वन्दना के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए उनकी योग्यता की कसौटी निर्धारित की है। वस्तुतः साधु को दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनययुक्त होना चाहिए। इसके साथ ही श्रमण का प्रथमलिंग भावलिंग है। द्रव्यलिंग परमार्थ नहीं है। भाव के बिना द्रव्यलिंग परमार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं है। गुण और दोषों का कारण भावलिंग ही है। लिंग पाहुड के प्रारम्भ में ही आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है धर्म से ही लिंग होता है, लिंगमात्र धारण करने से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए भाव को ही धर्म जानो।
उपर्युक्त गुणों से भिन्न जो वस्त्ररहित होकर भी असंयमी (भावसंयम रहित) तथा असंयत हो वह वन्दना के अयोग्य है।12 भले ही स्वस्थ-सुन्दर शरीर हो, उच्चकुल-उच्च जातिवाला हो पर संयम, रत्नत्रय गुणरहित साधु अवंदनीय है।13
जो श्रमण जिनाज्ञा का पालन या श्रद्धान नहीं करते वे श्रमण न होकर श्रमणाभासी
ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ।।264।। प्रवचनसार
श्रमण के द्वारा जो कार्य करने योग्य न हो, उन कार्यों को जो करता है वह श्रमणाभास है। श्रमणाभासी मुनिपने से हीन होते हैं। इनके विषय में कहा गया है कि जो श्रमण आहार,
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उपकरण और बसतिका का बिना शोधन किये ही ग्रहण करते हैं व मूल-स्थान प्रायश्चित्त को प्राप्त होते हैं और संसार में मुनिपने से हीन हैं -
पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।।918।। मूलाचार
मुनिपने से हीन श्रमणों को ‘पाप श्रमण' संज्ञा दी गई है। अर्थात् जो श्रमण साधना नहीं कर सकता, वह पाप श्रमण' है। श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य ने लिंग पाहड में ‘पाप श्रमण' की कुछ पापक्रियाओं को निम्न प्रकार बतलाया है -
(1) नाचना, गाना, बाजा बजाना4 (2) आर्तध्यान करना (3) कलह, वादविवाद, घमण्ड करना16 (4) परिग्रह-संग्रहण व रक्षण करना7 (5) जुआ खेलना, अब्रह्मचारी होना, मायाचारी करना (6) बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना (7) स्त्रियों में निरन्तर राग करना20 (8) परोक्ष में निर्दोष व्यक्तियों पर दोषारोपण कर निन्दा करना (9) रत्नत्रय का पालन न करना22 (10) दूसरों के विवाह सम्बन्ध कराना3 (11) दर्शन, ज्ञान, चारित्र, संयम, तप, नियम तथा नित्यकर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी दूसरे जीव को पीड़ा पहुँचाना24 (12) कृषि तथा व्यापार द्वारा जीवघात करना (13) चोरों और मिथ्यावादियों के मध्य युद्ध एवं विवाद कराना26 (14) तीव्रकर्म (हिंसादि क्रूरकर्म) करना7 (15) यन्त्र (चौपड़) आदि से क्रीड़ा करना28 (16) कंदी आदि कुत्सित भावनायें करना29 (17) भोजन में रस- लोलुपी होना (18) आहार के लिए दौड़ना, कलह करना व ईर्ष्या करना" (19) ईर्या समिति धारण करके भी चलते समय कभी उछलना, कभी दौड़ना, कभी पृथ्वी को खोदना (20) किसी के बंधन में पड़कर धान कूटना, पृथ्वी खोदना, वृक्षों का छेदन करना (21) गृहस्थों से अति स्नेह करना अर्थात् अपनी मर्यादा भूलकर उनके घर जाना और सुख-दुःख में आत्मीयता दिखाना4, आदि।
इस प्रकार लिंग पाहुड में ‘पाप श्रमण' की कुछ क्रियाओं को बतलाया गया है। इसी तरह की अन्य पापाचार की क्रियाओं का समावेश कर लेना चाहिए। वस्तुतः ये क्रियाएँ महाव्रतों की भंजक हैं। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्यमुनि व भावमुनि होने का फल बतलाकर भावलिंगी मुनि होने की प्रेरणा दी है। लिंग पाहुड में बतलाया है - जो साधु आचार, विनय, दर्शन, ज्ञानादि से रहित है वह तिर्यंच है, साधु नहीं। चोर है जिनमार्गी श्रमण नहीं है। पापकर्मों से उपहित है, जिनलिंग भंजक है", पशु है, पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है। ऐसा साधु संसाररूपी जंगल में भटकता रहता है। अनन्त संसारी होता है।' दुर्गतिरूप नरकादि में
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जाता है। 42 संयमियों के मध्य रहता हुआ तथा बहुत ज्ञानवान होता हुआ भी जो भाव ( वीतरागता ) से विनष्ट है, 43 वह बाल स्वभावी है। 44
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आचार्य बट्टकेर ने मूलाचार में पाँच प्रकार के पापश्रमण बतलाये हैं - (1) पार्श्वस्थ (2) कुशील (3) संसक्त (असंयतों में आसक्त), अवसन्न (अल्प संज्ञक ) और (5) मृगचरित्र।” इन पाप श्रमणों को मूलाचारकार ने घोड़े की लीद की तरह निस्सार तथा बगुले की तरह कुत्सित चेष्टा करने वाला कहा है, जो अन्दर से तो कुटिल है और बाहर से सुन्दरसरल लगता है (10.73)। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में श्रमण के आहार सम्बन्धी को दर्शाया गया है। आहार में दोष लगानेवाले को पाप श्रमण कहा गया है। इन पापश्रमणों की जिनागम में निन्दा की गई है। ये पाँचों इन्द्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धान्तानुसार आचरण करनेवाले मुनियों के प्रतिपक्षी हैं (306)। ये पाँचों ही जिनधर्म - बाह्य हैं। 46
आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड में श्रमण के यथार्थ स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि सर्वज्ञ प्रणीत आगम के अनुसार जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करनेवाला तथा श्रमणचर्या का निर्दोष पालन करनेवाला ही यथार्थ / योग्य श्रमण है। ये श्रमण ही वन्दनीय हैं। इसके विपरीत मुनिपने से हीन श्रमणाभासी है। इन्हें ही 'पाप श्रमण' की संज्ञा दी गई है। ये आचरणहीन होने से अयथार्थ श्रमण / श्रमणाभासी हैं और अवंदनीय हैं। श्रमणाभासी के आचरण से धर्म की अप्रभावना होती है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण को यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने हेतु सन्देश दिया है। अनेक लौकिक, पाप क्रियाओं में लगे श्रमण को चेतावनी देकर उसकी नग्नता को कठोर शब्दों में धिक्कारा है और पशुतुल्य कहा है क्योंकि मुनिपने से हीन श्रमण आत्महित और परहित का विघातक होता है। इस धिक्कार से श्रमण सजगसावधान होकर यत्नाचारपूर्वक मूलगुणों का पालन करे और जिनलिंग की पूज्यता पर कोई आँच न आये इसका भरसक प्रयत्न कट्टर अनुशासक आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। समाज भी श्रमणाभासी के प्रति सजग होकर कार्य करे जिससे धर्म और समाज की मर्यादा सुरक्षित रह सके।
1.
अ. - सोह - गय बसहमिय पसु मारूद सुरूवहिमंदरिंदु मणी ।
खिदी उरगंबर सरिसा परमपय विमग्गयासाहु।। धवला, 1/1, 1, 1 / गाथा 33 /51 ब. - मूलाचार परिशीलन, सम्पादक डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन भारती, प्रकाशक : आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर (राज.), वर्ष 2012, पृष्ठ 74
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3.
4.
5..
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ।
दंसणणाणसमग्गो समणो जो संजदो भणिदो | 240 || प्रवचनसार : आचार्य कुन्दकुन्द
6.
सत्तूमित्ते व समा पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा।
तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। 47 || णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिद्दोसा । णिम्ममणिरहंकारापव्वज्जा एरिसा भणिया ||49৷ जहजाय रूवसरिसा अवलंबियभुअ णिराउहा संता। परकियणिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। 51।। उवसम खमदमत्त सरीरसंक्कार वज्जिया रुक्खा || मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ||52||
बोधपाहुड, अष्टपाहुडः श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य, श्री श्रुतसागरजी सूरिकृत संस्कृत टीका / हिन्दी अनुवाद : पं. पन्नालाल साहित्याचार्य । प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद, सोनागिर, दतिया म.प्र., प्रथम संस्करण सन् 1989-90
विवरीयमूढभावा पणट्ठकम्मट्ठ णट्ठमिच्छत्ता। सम्मत्तगुणविसुद्ध पव्वज्जा एरिसा भणिया ||53||
पंचिंदियसंवरणं पंच वया पंचविंस किरियासु ।
पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं णिराया ||28|| चारित्तपाहुड
पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू
भावं भावियपुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ||79|| भावपाहुड
मूलगुणं छित्तूणय बाहिरकम्मं करेइ जो साहू ।
सोण लहइ सिद्धि सुहं जिणलिंग विराहगो णिच्च || 98 || मोक्षपाहुड
79
7.
तेषां च मूलगुणानां रक्षणार्थं द्वाविंशतिपरीषहजय-द्वादशविध तपश्चरणभेदेन चतुस्त्रिंशदुत्तरगुणा भवन्ति । तेषां च
रक्षणार्थ..
द्वादशानुप्रेक्षा भावनादयश्चेत्यभिप्रायः ।
प्रवचनसार गाथा 208, 209 की तात्पर्यवृत्ति
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8.
10.
वेरग्गपरो साहू परदव्व परम्मुहो य सो होदि। संसार सुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो।।101॥ मोक्षपाहुड जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। सो होई वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए॥11॥ जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरा साहू।।12।। सूत्रपाहुड दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराण।।23। दर्शनपाहुड धम्मेण होइ लिंगंण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।।2।। लिंगपाहुड असंजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि तो ण वंदिज्जा दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥26॥ दर्शनपाहुड दर्शनपाहुड, गाथा 27, श्रुतसागर सूरिकृति टीका का भावार्थ, पृष्ठ 46-47 लिंग पाहुड, 4
15. वही, 5, 8 वही, 6
वही, 5 वही, 6, 7, 12
वही, 14 वही, 17
वही, 17,14 वही, 9
12.
वही, 8
वही, 10
कई ई ई ई ई
वही, 12
वही, 13
___ वही, 16
वही, 17,18
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वही, 13 वही, 20
वही, 15-18 वही, 7 वही, 6, 9, 10, 11 वही, 21
41.
वही, 19
43.
वही, 20
मूलाचार : आचार्य बट्टकेर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली 110003, छठा संस्करण, वर्ष 2006, 7.96 भगवती आराधना, आचार्य शिवार्य, 1315
46.
भगवान महावीर मार्ग
गंज बासौदा (विदिशा) म.प्र.
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परिणामादो बंधो मुक्खो सत्तूमित्ते य समा पसंस-णिंदा-अलद्धि-लद्धिसमा। तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।47।। बो.पा. मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो। णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं ।।45॥ मो.पा. पावं हवेइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा। परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिह्रो ।।116।। भा.पा.
आचार्य कुन्दकुन्द
अष्टपाहुड
- ऐसा कहा गया है (कि) निश्चय ही संन्यासी का जीवन शत्रु और मित्र में (के
प्रति) समान (होता है), प्रशंसा और निन्दा में, लाभ और अलाभ में (भी)
समान (होता है) (तथा उनके) तृण और सुवर्ण में (भी) समभाव (होता है)। - लोभ से रहित तथा अहंकार, कपट (और) क्रोध से रहित जो जीव निर्मल
स्वभाव से युक्त (होता है) वह उत्तम सुख को पाता है। समस्त पुण्य परिणाम (अर्थात् भावों) से होता है तथा समस्त पाप (भी) (भावों से ही) होता है। जिन-शासन में बंध और मोक्ष परिणाम (भावों) से ही प्रतिपादित
है
- डॉ. कमलचंद सोगाणी
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अप्रेल 2013-2014
अष्टपाहुड और जैन साधु
- डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
जैन संस्कृति के तीर्थंकरों / जिनवरों ने संसार के जीवों को आत्म-विकारों का परिहार कर ज्ञान-आनन्द-स्वरूप शुद्धात्म की प्राप्ति का मार्ग बताया। जिनवरों का यह मार्ग वीतरागता की प्राप्ति का मार्ग कहलाता है। जिनवर अंतर से वीतरागी होकर निज स्वभाव में लीन रहते हैं जबकि उनका बाह्य भेष नवजात शिशु के समान निर्विकार नग्न होता है। इस बाह्य भेष को ही जिनमुद्रा, जिनलिंग या जिनचिह्न कहते हैं। जिनचिह्न का स्वरूप
___ इस मार्ग के पथिकों के स्तर की पहिचान के दो संकेत हैं - पहला आन्तरिक (भावलिंग), दूसरा बाह्य (द्रव्यलिंग)। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन चिह्नों के अलावा अन्य चिह्नों को जिनेतर (कुलिंग) कहा है। सुविधा की दृष्टि से इस लेख में भावलिंग को 'भावचिह्न', द्रव्यलिंग को 'द्रव्यचिह्न' एवं कुलिंग को 'जिनेतर चिह्न' के रूप में वर्णित किया गया है।
___ भावचिह्न अंतरंग परिणामों अथवा वीतराग भावों का सूचक है, जो अकषाय भाव या कषायहीनता के अंशों के होने का द्योतक है। यह परम परिणामिक भाव के आश्रय से
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जैनविद्या 26 आत्मा के ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव की प्रसिद्धि से ही संभव होता है। द्रव्यचिह्न शरीर का बाह्य भेष है जो अंतरंग भावों का प्रतिनिधित्व करता है; किन्तु सर्वथा ऐसा होने का नियम भी नहीं है, क्योंकि भावचिह्न के अभाव में भी द्रव्यचिह्न देखने में आता है। जिनचिह्न धारण कर शरीरादिक विकृत क्रियाएँ एवं परिग्रहादि की अभिलाषा रखने को जिनमार्ग में 'जिनेतर चिह्न' कहा गया है।
__ जब अंतरंग वीतराग परिणामों के अनुरूप बाह्य भेष होता है तब वह मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत एवं उपकारक होता है। इस दृष्टि से वीतरागता के अंशों की विद्यमानता के कारण अंतरंग भाव-सहित बाह्य यथाजात/दिगम्बर भेष ही जिनवरों के मार्ग में मान्य एवं पूज्य है। जिनमार्गी साधकों का वर्गीकरण
जिनमार्गी वीतरागता के साधकों के मोटे तौर पर दो वर्ग हो सकते हैं - प्रथम गृहत्यागी साधु तथा दूसरा गृहस्थ-श्रावक। प्रथम वर्ग में दिगम्बर साधु, आर्यिका एवं उत्कृष्ट श्रावक आते हैं और दूसरे वर्ग में व्रती-अव्रती सम्यग्दृष्टि श्रावका इस वर्गीकरण का आधार अंतरंग विशुद्ध परिणाम है। यदि बाह्य भेष के अनुसार साधु एवं श्रावक में अंतरंग भाव, परिणाम नहीं है तो वह भेष जिनमार्ग में स्वांग जैसा माना जाएगा। साधु का सामान्य स्वरूप
जिनमार्गी साधु 28 मूलगुणयुक्त एवं अंतर्बाह्य चौबीस परिग्रहों से रहित होता है। इनमें मिथ्यात्व, चार कषाय, तीन वेद एवं छह नौकषाय से चौदह अंतरंग परिग्रह तथा क्षेत्र (भूमि), मकान, चाँदी, सोना, धन, धान्य (अनाज), दासी, दास, वस्त्र और बर्तन आदि दस बाह्य परिग्रह होते हैं। इच्छा एवं मूर्छा परिग्रह होने से अंतरंग परिग्रह का त्याग एवं परिणामों की तदनुसारी निर्मलता ही महत्वपूर्ण है। साधु मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से इन चौबीस परिग्रहों का त्यागी होता है। यदि साधु तिल-तुष मात्र भी परिग्रहयुक्त हो तो उसका साधुत्व भग्न हो जाता है। ऐसे साधु का कथित जिनचिह्न कुचिह्न हो जाता है और वह निगोद का पात्र हो जाता है (सूत्रपाहुड 18)। भाव एवं द्रव्यचिह्नी साधु
बाह्य भेष के अनुसार साधुओं को भावचिह्नी, द्रव्यचिह्नी और जिनेतर चिह्नी (कुलिंग) इन तीन वर्गों में संयोजित किया जा सकता है। सर्वपरिग्रहरहित तथा अंतरंग में सम्यक्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र-रूप आत्मलीनता से वीतरागता के अंशों को धारण करनेवाले साधु भावचिह्नी
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कहलाते हैं। वे सुख-दुःख, काँच-कांचन, शत्रु-मित्र, हित-अहित सभी में समता-भाव धारण कर आत्माराधन करते हैं। आत्मज्ञान से शून्य और मंदकषाय-रूप शुभभावों को ही धर्म माननेवाले साधु द्रव्यचिह्नी कहलाते हैं।
भावचिह्नी एवं द्रव्यचिह्नी साधु का बाह्य भेष यद्यपि एक-जैसा ही होता है, तथापि आत्मज्ञान के सद्भाव के कारण भावचिह्नी साधु कषायों का परिहार करता हुआ आत्मा में वीतरागता के अंशों की वृद्धि करता है और अन्ततः कर्मों से मुक्त हो जाता है। इसी कारण से 'समयसार' में आचार्य कुन्दकुन्द ने भावचिह्न-सहित बाह्यचिह्न-रूप दिगम्बर मुद्रा को मोक्षमार्ग माना है। (समयसार 410-411)।
द्रव्यचिह्नी साधु मंद कषाय को धर्म मानने के कारण पुण्य का बन्ध करता है। वह मनुष्य एवं देवादिक सद्गति को तो प्राप्त करता है, किन्तु कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्यचिह्नी साधु को बोधि या समाधि की प्राप्ति नहीं होती (भावपाहुड 72)। भावचिह्न-रहित साधु के बाह्य भेष से मोक्षमार्ग का विनाश होता है (मोक्षपाहुड 61)। यह पाप से युक्त एवं अपयश का कारण है (भावपाहुड 69)। धर्म से रहित साधु को आचार्य कुन्दकुन्द ने ईख के फल-सा मानते हुए उसे दिगम्बर रूप में रहनेवाला नट श्रमण निरूपित किया है (भावपाहुड 71)। उन्होंने ऐसे दर्शन-रहित द्रव्यचिह्नी साधु को 'चल शव' जैसे शब्द से सम्बोधित किया है। (भावपाहड 143)। ऐसे साधु का ज्ञान एवं चारित्र क्रमशः बालश्रुत एवं बालचारित्र जैसा निरर्थक होता है (मोक्षपाहुड 100)। उन्होंने प्रश्न किया है कि ज्ञान-रहित चारित्र, दर्शन-रहित तप एवं भावविहीन आवश्यक क्रियाएँ आदि से युक्त लिंग (भेष) से सुख की प्राप्ति कैसे संभव है (मोक्षपाहुड
57)?
भावचिह्न की प्रधानता
जिनमार्ग में भावचिह्न की प्रधानता प्रतिपादित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने 'भावपाहुड' में कहा कि पहले मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़कर भाव से अंतरंग नग्न होकर शुद्धात्मा का श्रद्धान, ज्ञान एवं आचरण करे पश्चात् द्रव्य से बाह्य मुनिमुद्रा (लिंग) प्रकट करे, यही जिनाज्ञा एवं मोक्षमार्ग है (भावपाहुड 73)। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने कहा कि जैसे भी बने सब तरह के प्रयत्न कर आत्मा को जानो, उसका श्रद्धान करो, उसे प्रतीत करो और उसका आचरण करो; मोक्ष की प्राप्ति तभी होगी (भावपाहुड 87, सूत्रपाहुड 16)।
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मोक्षमार्ग और जिनसूत्र
आचार्य कुन्दकुन्द ने 'सूत्रपाहुड' में कहा है कि जिनमार्ग में वीतरागता की प्राप्ति हेतु जिनसूत्रों को अर्थात् आगम-अध्यात्म में प्रतिपादित जीवादि पदार्थों, हेय-उपादेय आदि को जाननेवाला साधु ही सम्यग्दृष्टि है (सूत्रपाहुड 5)। जिस प्रकार सूत्र - सहित सुई गुमती नहीं है, उसी प्रकार जिनसूत्रों का ज्ञाता साधु कभी पथभ्रष्ट नहीं होता (सूत्रपाहुड 3-4)। उनके अनुसार जिनसूत्र से भ्रष्ट रुद्र जैसा ऋद्धिवान तपस्वी भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सका (सूत्रपाहुड 8)। जिनसूत्रों का जानकार व्यक्ति कभी भी अपने अहंकार की तुष्टि हेतु आत्मस्वरूप, सप्त तत्त्व, त्रिरत्नरूप मोक्षमार्ग साध्य-साधन आदि की मनगढ़न्त या मनमानी व्याख्या नहीं करता। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिनसूत्रों की मनमानी व्याख्या करनेवाला साधु श्रावक मिथ्यादृष्टि होता है (सूत्रपाहुड 7)।
जिन - चिह्नधारी सूत्र और जिनेतर - चिह्नी साधु
राग गुण के कारण लोक में जिनचिह्न की श्रेष्ठता, विशिष्टता एवं महिमा बनी रहे और वह पाप का कारण न बने इसके प्रति आचार्य कुन्दकुन्द जागरूक थे। जिनचिह्नधारी साधु उन्मार्गी होकर लोक-उपहास का कारण बने, यह उन्हें इष्ट नहीं था; अतः एक ओर जहाँ उन्होंने 'बोध पाहुड' में वीतराग गुणयुक्त जिनचिह्नी साधुओं को जिन आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, जिनदेव, जिनतीर्थ, अरहंत एवं प्रव्रज्या जैसी उपाधियों से महिमा मण्डित किया है (बोध पाहुड 3-4 ); वहीं दूसरी ओर जिनभेष का दुरुपयोग रोकने हेतु 'लिंगपाहुड' में जिन चिह्नधारी भ्रष्ट साधुओं की निन्दा करते हुए उन्हें पशुतुल्य, पापरूप एवं निगोदगामी बताया है।
द्रव्यचिह्न साधु
द्रव्यचिह्नी साधु आत्माज्ञान-विहीन होते हैं; किन्तु वे साधुओं के बाह्य नियमों का निरतिचार पालन करते हैं। उनके पास भी तृण मात्र परिग्रह नहीं होता। वे मन एवं इन्द्रिय संयम से युक्त होते हैं। वैसे द्रव्यचिह्नी साधु एवं भावचिह्नी साधु में भेद करना दुष्कर होता है। यह केवलज्ञान-गम्य है। इन साधुओं के अतिरिक्त जिनचिह्न धारण कर कुक्रिया में मग्न रहनेवाले जिनेतर-चिह्नी साधुओं का वर्णन भी आचार्यदेव ने (लिंगपाहुड) में किया है। ऐसे साधु स्वच्छन्द होकर स्त्री-संसर्ग, विषय-कषायों की पुष्टि, शरीर-संस्कार, गृहस्थोचित कार्य एवं परिग्रह के प्रति ममत्व रखते हुए लौकिक कार्यों में रुचिवान होते हैं।
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(1) जो साधु होकर भी बहुत मान - कषाय करता हुआ निरन्तर कलह, वाद-विवाद, द्यूत-क्रीड़ा, अब्रह्म (भोग-विलास ) सेवन करता है, वह अधोगामी होता है ( लिंगपाहुड 6-7 ) ।
(2)
(4)
( 3 ) जो साधु होकर भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र, तप, संयम, नियम आदि की क्रियाएँ बाध्यतापूर्वक या खिन्न मन से पीड़ायुक्त भावना से करता है वह अधोगामी होता है (लिंगपाहुड 11)।
(5)
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साधु होकर भी गृहस्थों के विवाहादि कार्य करता है, कृषि व्यापार एवं जीवघात आदि पाप कार्य करता है, चोरी, झूठ, युद्ध, विवाद करता है; यंत्र, चौपड़, शतरंज, पासा आदि क्रीड़ाएँ करता है, वह अधोगामी होता है ( लिंगपाहुड 9-10 ) ।
(8.)
(9)
जो साधु पाप-बुद्धि से मोहित होकर बाह्य कुक्रिया करता है वह जिनचिह्न का उपहास करता है (लिंगपाहुड 3 ) ।
जो साधु नृत्य करता है, गाता है, बजाता है, परिग्रह का संग्रह करता है, या परिग्रह का चिन्तन एवं ममत्व रखता है वह श्रमण नहीं है (लिंगपाहुड 4-5)
(6) जो साधु भोजन में अति आसक्ति रखते हैं, काम-वासना की इच्छा रखते हैं, प्रमादी होते हैं, वे साधु नहीं होते हैं; ऐसे साधुओं से गृहस्थ श्रेष्ठ होते हैं (लिंगपाहुड 12 ) ।
( 7 ) जो साधु ईर्या समितिपूर्वक नहीं चलते, दौड़ कर चलते हैं, पृथ्वी खोदते हैं, वनस्पति आदि की हिंसा करते हैं, अनाज कूटते हैं, वृक्षों को छेदते-काटते हैं; वे श्रमण नहीं हैं (लिंगपाहुड 15-16)।
भावरहित साधु साधु नहीं है ( भावपाहुड 74)।
जो साधु दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र धारण नहीं करता; किन्तु परिग्रह व विषय- कषाय में आर्तध्यान करता है, वह अनन्त संसारी है (लिंगपाहुड 8 ) |
(10) जो साधु आहार के लिए दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर आहार भोगता है, खाता है और उसके निमित्त अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है, वह जिन श्रमण नहीं है (लिंगपाहुड 13)।
( 11 ) जो बिना दिया आहार, दान आदि लेता है और पर की निन्दा करता है, वह साधु नहीं है (लिंगपाहुड 14)।
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आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिनचिह्न धारण कर उक्त अनुपयुक्त क्रियाओं को करनेवाले साधु भले ही बहुत सारे शास्त्रों के ज्ञाता हों और भावचिह्न साधुओं के साथ रहते हों तो भी वे भाव से नष्ट ही हैं और साधु नहीं हैं (लिंगपाहड 19)। अन्त में आचार्य कहते हैं कि जो साधु गणधरादि द्वारा उपदिष्ट वास्तविक धर्म को यत्नपूर्वक धारण करते हैं वे निश्चित ही सर्वदुःख दूर कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं (लिंगपाहुड 22)।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिनचिह्न धारण करनेवाले साधु यदि अहंकारी होकर मोक्षमार्ग की आगम के विपरीत व्याख्या करते हैं, या व्यक्तिगत विश्वासों के अनुसार उसका असत्य निरूपण करते हैं, षट् रस एवं भोजन में आसक्ति रखते हैं; छल, कपट, प्रलोभन देकर धार्मिक क्रियाओं की आड़ में अविहित (निषिद्ध, अनुचित) क्रियाएँ करते हैं; ज्योतिषमन्त्र-तन्त्र एवं वास्तु जैसे लौकिक कार्यों में रुचि लेते हैं; रुपया, मकान, भोग-उपभोग की सामग्री, वाहन आदि परिग्रह की कामना करते हैं; हिंसा, मारपीट, चोरी, झूठ, अब्रह्म आदि पाप कार्य करते-कराते हैं; धर्म के नाम पर हिंसा-कषाय-पोषक एवं निन्द्य ग्रन्थों का अभ्यास एवं रचना करते हैं; जिनदेव, जिनगुरु एवं जिनशास्त्रों की अवज्ञा-अविनय करते हैं, असंयमीरागी देवी-देवताओं को पूजते हैं और शरीर-क्रिया, भोजन एवं इन्द्रिय-पोषण आदि में मग्न रहते हैं, वे पंथ-भेद को फैलाते हैं, यश के लिए दौड़ते-भागते हैं, धर्म के नाम पर धन-संग्रह करते-करवाते हैं, वे वास्तव में जिनमार्गी श्रमण न होकर उन्मार्गी, भले ही फिर बाह्य में वे कितनी ही कठोर शारीरिक तपस्या क्यों न करते हों? आत्मज्ञान के बिना कितना ही कठोर तप किया जाए उससे कर्मों की निर्जरा नहीं होती।
बी-369, ओ.पी.एम. कॉलोनी
अमलाई पेपर मिल जिला- शहडोल (म.प्र.) 484117
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