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________________ जैनविद्या 26 अप्रेल 2013-2014 अष्टपाहुड और जैन साधु - डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल जैन संस्कृति के तीर्थंकरों / जिनवरों ने संसार के जीवों को आत्म-विकारों का परिहार कर ज्ञान-आनन्द-स्वरूप शुद्धात्म की प्राप्ति का मार्ग बताया। जिनवरों का यह मार्ग वीतरागता की प्राप्ति का मार्ग कहलाता है। जिनवर अंतर से वीतरागी होकर निज स्वभाव में लीन रहते हैं जबकि उनका बाह्य भेष नवजात शिशु के समान निर्विकार नग्न होता है। इस बाह्य भेष को ही जिनमुद्रा, जिनलिंग या जिनचिह्न कहते हैं। जिनचिह्न का स्वरूप ___ इस मार्ग के पथिकों के स्तर की पहिचान के दो संकेत हैं - पहला आन्तरिक (भावलिंग), दूसरा बाह्य (द्रव्यलिंग)। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन चिह्नों के अलावा अन्य चिह्नों को जिनेतर (कुलिंग) कहा है। सुविधा की दृष्टि से इस लेख में भावलिंग को 'भावचिह्न', द्रव्यलिंग को 'द्रव्यचिह्न' एवं कुलिंग को 'जिनेतर चिह्न' के रूप में वर्णित किया गया है। ___ भावचिह्न अंतरंग परिणामों अथवा वीतराग भावों का सूचक है, जो अकषाय भाव या कषायहीनता के अंशों के होने का द्योतक है। यह परम परिणामिक भाव के आश्रय से
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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