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जैनविद्या 26 आत्मा के ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव की प्रसिद्धि से ही संभव होता है। द्रव्यचिह्न शरीर का बाह्य भेष है जो अंतरंग भावों का प्रतिनिधित्व करता है; किन्तु सर्वथा ऐसा होने का नियम भी नहीं है, क्योंकि भावचिह्न के अभाव में भी द्रव्यचिह्न देखने में आता है। जिनचिह्न धारण कर शरीरादिक विकृत क्रियाएँ एवं परिग्रहादि की अभिलाषा रखने को जिनमार्ग में 'जिनेतर चिह्न' कहा गया है।
__ जब अंतरंग वीतराग परिणामों के अनुरूप बाह्य भेष होता है तब वह मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत एवं उपकारक होता है। इस दृष्टि से वीतरागता के अंशों की विद्यमानता के कारण अंतरंग भाव-सहित बाह्य यथाजात/दिगम्बर भेष ही जिनवरों के मार्ग में मान्य एवं पूज्य है। जिनमार्गी साधकों का वर्गीकरण
जिनमार्गी वीतरागता के साधकों के मोटे तौर पर दो वर्ग हो सकते हैं - प्रथम गृहत्यागी साधु तथा दूसरा गृहस्थ-श्रावक। प्रथम वर्ग में दिगम्बर साधु, आर्यिका एवं उत्कृष्ट श्रावक आते हैं और दूसरे वर्ग में व्रती-अव्रती सम्यग्दृष्टि श्रावका इस वर्गीकरण का आधार अंतरंग विशुद्ध परिणाम है। यदि बाह्य भेष के अनुसार साधु एवं श्रावक में अंतरंग भाव, परिणाम नहीं है तो वह भेष जिनमार्ग में स्वांग जैसा माना जाएगा। साधु का सामान्य स्वरूप
जिनमार्गी साधु 28 मूलगुणयुक्त एवं अंतर्बाह्य चौबीस परिग्रहों से रहित होता है। इनमें मिथ्यात्व, चार कषाय, तीन वेद एवं छह नौकषाय से चौदह अंतरंग परिग्रह तथा क्षेत्र (भूमि), मकान, चाँदी, सोना, धन, धान्य (अनाज), दासी, दास, वस्त्र और बर्तन आदि दस बाह्य परिग्रह होते हैं। इच्छा एवं मूर्छा परिग्रह होने से अंतरंग परिग्रह का त्याग एवं परिणामों की तदनुसारी निर्मलता ही महत्वपूर्ण है। साधु मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से इन चौबीस परिग्रहों का त्यागी होता है। यदि साधु तिल-तुष मात्र भी परिग्रहयुक्त हो तो उसका साधुत्व भग्न हो जाता है। ऐसे साधु का कथित जिनचिह्न कुचिह्न हो जाता है और वह निगोद का पात्र हो जाता है (सूत्रपाहुड 18)। भाव एवं द्रव्यचिह्नी साधु
बाह्य भेष के अनुसार साधुओं को भावचिह्नी, द्रव्यचिह्नी और जिनेतर चिह्नी (कुलिंग) इन तीन वर्गों में संयोजित किया जा सकता है। सर्वपरिग्रहरहित तथा अंतरंग में सम्यक्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र-रूप आत्मलीनता से वीतरागता के अंशों को धारण करनेवाले साधु भावचिह्नी