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जैनविद्या 26
आच्छादित हूँ, मैं इन्हें समाप्त कर निज स्वरूप को प्रकट करूँ (119)। अधिक कहने से क्या? तू तो प्रतिदिन शील व उत्तरगुणों का भेद-प्रभेदों सहित चिन्तन कर (120)।
हे मुनि! ध्यान से मोक्ष होता है। अतः तुम आर्त्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म व शुक्ल ध्यान को धारण करो (121)। द्रव्यलिंगी के धर्म व शुक्ल ध्यान नहीं होता, अतः वह संसाररूप वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं है (122)। जिस मुनि के मन में रागरूप पवन से रहित धर्मरूपी दीपक जलता है, वही आत्मा को प्रकाशित करता है (123), वही संसाररूपी वृक्ष को ध्यानरूपी कुल्हाड़ी से काटता है।
__ ज्ञान का एकाग्र होना ही ध्यान है (125)। ध्यान द्वारा कर्मरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है, जिससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है (126), अतः भावश्रमण तो सुखों को प्राप्त कर तीर्थंकर व गणधर आदि पदों को प्राप्त करते हैं; पर द्रव्यश्रमण दुःखों को ही भोगता है। अतः गुण-दोषों को जानकर तुम भावसहित संयमी बनो (127)।
भावश्रमण विद्याधरादि की ऋद्धियों को नहीं चाहता, न ही वह मनुष्य-देवादि के सुखों की वांछा करता है (130), वह चाहता है कि मैं शीघ्रातिशीघ्र आत्महित कर लूँ (131)।
हे धीर! जिस प्रकार गुड़मिश्रित दूध के पीने पर भी सर्प विषरहित नहीं होता, उसी प्रकार अभव्य जीव जिनधर्म के सुनने पर भी अपनी दुर्मत से आच्छादित बुद्धि को नहीं छोड़ता (138)! वह मिथ्या धर्म से युक्त रहता हुआ मिथ्या धर्म का पालन करता है, अज्ञान तप करता है, जिससे दुर्गति को प्राप्त होता हुआ संसार में भ्रमण करता है; अतः तुझे 363 मतों के मार्ग को छोड़कर जिनधर्म में मन लगाना चाहिए (142)।
सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार लोक में जीवरहित शरीर को 'शव' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष 'चल शव' है (143)। शव लोक में अपूज्य होता है और सम्यग्दर्शनरहित पुरुष लोकोत्तर मार्ग में अपूज्य होता है। मुनि व श्रावक धर्मों में सम्यक्त्व की ही विशेषता है। जिसप्रकार ताराओं के समूह में चन्द्रमा सुशोभित होता है, पशुओं में मृगराज सुशोभित होता है; उसी प्रकार जिनमार्ग में जिनभक्ति सहित निर्मल सम्यग्दर्शन से युक्त तप-व्रतादि से निर्मल जिनलिंग सुशोभित होता है (145)।
इस प्रकार सम्यक्त्व के गुण व मिथ्यात्व के दोषों को जानकर गुणरूपी रत्नों के सार मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन को भावपूर्वक धारण करना चाहिए (146-147)।