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जैनविद्या 26
भावरहित द्रव्यलिंग की निरर्थकता बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस मुनि में धर्म का वास नहीं है, अपितु दोषों का आवास है, वह तो इक्षुफल के समान है, जिसमें न तो मुक्तिरूपी फल लगते हैं और न रत्नत्रयरूप गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं (71)।
अतः हे आत्मन्! पहले मिथ्यात्वादि आभ्यन्तर दोषों को छोड़कर, भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर, बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग धारण करना चाहिए (73)।
___शुद्धात्मा की भावना से रहित मुनियों द्वारा किया गया बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरिकन्दरादि का आवास, ज्ञान, अध्ययन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं। इसलिए हे मुनि! लोक का मनोरंजन करनेवाला मात्र बाह्य वेष ही धारण न कर, इन्दियों की सेना का भंजन कर, विषयों में मत रम, मनरूपी बन्दर को वश में कर, मिथ्यात्व, कषाय व नव नोकषायों को भावशुद्धिपूर्वक छोड़, देव-शास्त्र-गुरु की विनय कर, जिनशास्त्रों को अच्छी तरह समझकर शुद्धभावों की भावना कर; जिससे तुझे क्षुधा-तृषादि वेदना से रहित त्रिभुवन चूडामणी सिद्धत्व की प्राप्ति होगी (94)।
हे मुनि! तू बाईस परीषहों को सह(94); बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना कर (96); भावशुद्धि के लिए नवपदार्थ, सप्ततत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान आदि की नामलक्षणादिकपूर्वक भावना कर (97); दशप्रकार के अब्रह्मचर्य को छोड़कर नवप्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रगट कर (98)। इस प्रकार भावपूर्वक द्रव्यलिंगी मुनि ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप को प्राप्त करता है, भावरहित द्रव्यलिंगी तो चारों गतियों में अनंत दुःखों को भोगता है (99)।
हे मुनि! तू संसार को असार जानकर केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्मल सम्यग्दर्शन सहित दीक्षा लेने की भावना कर (110), भावों से शुद्ध होकर बाह्यलिंग धारण कर, उत्तम गुणों का पालन कर (113)। जीव, अजीव, आस्रव, बंध और संवरतत्त्व का चिन्तन कर (114), मन-वचन-काय से शुद्ध होकर आत्मा का चिन्तन कर; क्योंकि जब तक विचारणीय जीवादि तत्त्वों का विचार नहीं करेगा, तब तक अविनाशी पद की प्राप्ति नहीं होगी (115)। ____ हे मुनिवर! पाप-पुण्य बंधादि का कारण परिणाम ही है (116)। मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योगरूप भावों से पाप का बंध होता है (117)। मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव पुण्य को बाँधता है (118)। अतः तुम ऐसी भावना करो कि मैं ज्ञानावरणीय आठ कर्मों से