SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 26 75 में कहा है - जिसके हृदय में शत्रु-मित्र में समभाव है, प्रशंसा-निंदा, लाभ-अलाभ, तृणकंचन में समभाव है, जो निर्ग्रन्थ, निःसंग, निर्मान, रागरहित, द्वेषरहित, ममत्वहीन, निरहंकारी, यथाजात-नग्न, लंबायमान भुजा, निरायुध, सुंदर अंगोपांग, अन्यकृत निवासवासी, उपशान्त परिणामी, क्षमाभावी, इन्द्रियजयी, शृंगारहीन, अज्ञाननिवृत्त और सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध है वह श्रमण है। पंचेन्द्रियों को वश में करना, पच्चीस क्रियाओं के रहते हुए, पंच महाव्रत धारण करना, तीन गुप्तियों को धारण करना साधुओं का संयम चारित्र है। निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलनेवाले ही परिपूर्ण श्रमण हैं, इनका स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द ने (प्रवचनसार में) इस प्रकार बतलाया है - चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्हि। पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो।।214।। . जो श्रमण सदा ज्ञान और दर्शनादि में प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में प्रयत्नशील विचरण करता है वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है। पूर्ण श्रमण का लिंग जिनलिंग है। वह लिंग दोषरहित होता है। उसमें अयाचक वृत्ति होती है। भावों की शुद्धि की प्रधानता होती है जैसा कि भावपाहुड में बतलाया गया है - जिसमें पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग किया जाता है, पृथ्वी पर शयन किया जाता है, दो प्रकार का संयम धारण किया जाता है, भिक्षायोजन किया जाता है, भाव की पहले भावना की जाती है तथा शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति की जाती है, वही जिनलिंग निर्मल कहा जाता है। श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य ने दिगम्बर मुनि के बाह्य स्वरूप और आभ्यन्तर स्वरूप का पार्थक्य बतलाते हुए द्रव्यलिंगी और भावलिंगी मुनि की पहचान बतलाई है। द्रव्यलिंगी मुनि संसार में परिभ्रमण करता है और भावलिंगी मुनि पंचमगति मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसे साधु के अट्ठाइस मूलगुण प्रवचनसार में इस प्रकार बतलाये गये हैं - वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेग भत्तं च।।208॥ पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निग्रह, छह आवश्यक, केशलोंच, नग्नता, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्त-धावन, स्थितिभोजन और एक भक्त (दिन में एक बार आहार ग्रहण) जिनवर द्वारा ये साधु के मूलगुण बताये गये हैं। इन मूलगुणों के अभाव में मुनि जिनलिंग का विराधक होता है। इन मूलगुणों की रक्षार्थ अनुप्रेक्षा, तप आदि उत्तरगुणों का पालन भी अनिवार्य है।' इन गुणों का पालन करते
SR No.524771
Book TitleJain Vidya 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy